दृश्य विवरण
यह आश्रम लक्ष्मणगढ़ कस्बे के उत्तर पूर्वी कोण में स्थित है। यहाँ से लक्ष्मणगढ़ रेल्वे स्टेशन मात्र आधा किलोमीटर(1/2 किमी.) है। इस आश्रम के दक्षिण पूर्वी कोने में भगवान कृष्ण का एक भव्य मंदिर कृष्ण वाटिका के नाम से स्थित है। इसके पश्चिम में मोदी विश्वविद्यालय के संस्थापक एवं संचालक श्री राजेन्द्र मोदी की कोठी है। उत्तर में किसानों के खेत एवं छोटी-छोटी ढाणियाँ हैं।
यह आश्रम 15 बीघा भू क्षेत्र में फैला हुआ है जिसके चारों ओर ऊँची-ऊँची दीवारों की चारदीवारी है। आश्रम परिसर एवं आश्रम की खाली भूमि में हजारों की संख्या में छायादार पेड़ अपनी हरी-भरी छटा बिखरे रहे हैं। इस मरूस्थल भूमि में इतनी हरियाली है कि यह किसी सुरम्य पहाड़ी प्रदेश में ही प्राप्त हो सकती है।
आश्रम परिसर के अंदर सुन्दर-सुन्दर फूलों की छोटी-छोटी क्यारियाँ हैं। जो बहुत ही नैनाभिराम है। पूरी स्वच्छता एवं सफाई सर्वत्र फैली हुई है। आश्रम के कुंज(बगीचे) में हजारों पक्षियों के लिए यहाँ के हरे भरे पेड़ शरणस्थली हैं। इस अकेले कुंज में मोरों की संख्या 70 है। विभिन्न किस्म के एवं प्रजातियों की चिड़ियाँ एवं पक्षी हैं। पक्षियों के लिए यहाँ प्रतिदिन 15 किलोग्राम दाना बिखेरा जाता है। पक्षियों के पीने के लिए यहाँ यत्र-तत्र शुद्ध पानी के टब हैं। बीमार पक्षियों के लिए एक छोटा सा कक्ष भी है। यहाँ बीमार पक्षियों का उपचार किया जाता है। इस आश्रम का दृश्य अतिसुन्दर, भव्य एवं नैनाभिराम है।
आश्रम की स्थापना
लक्ष्मणगढ़ से ईशान दिशा में बस्ती से बाहर एक बालुकामय अंचल में एक खुले एकान्त में ऊँचा टीला था जो पश्चिम से पूर्व की ओर फैला हुआ था। इस विशाल सुरम्य टीले पर स्वच्छ कोमल बालुका बिखरी हुई थी। उत्तर की तरफ टीला समतल था जिस पर दो खेजड़ी के सघन वृक्ष खड़े थे। श्री बाबाजी महाराज रमते-घूमते इस ऊँचे टीले पर आए। उन्हें अंतः प्रेरणा हुई कि इस टीबड़ी पर बैठकर ध्यान करना चाहिए क्योंकि उनके शब्दों में ‘आ जागती भौम है।’ इस भूमि से बाबाजी महाराज का पुराना संबंध था। आश्रम से पूर्व भी वे कई बार यहाँ आए और एकांत में बैठते थे। इन टीलों पर बैठने पर इन्हें कई बार दिव्य अनुभूतियाँ होती थी। ये अनुभूतियाँ इसलिए होती थी कि इन पर महासिद्ध गुरूवर परमयोगी श्री अमृतनाथजी महाराज के चरण पड़े थे। उनके चरणों से तपःयुक्त भूमि साधना के अनुकूल थी। कभी कभी बाबाजी महाराज यह भी कहते थे कि इन टीलों पर घूमते समय उन्हें सुनाई पड़ता, जैसे कोई कह रहा हो, ‘श्रद्धानाथ’ इन टीबों पर बैठो, यहाँ चित्त की वृत्तियों का सहज निरोध होगा और उन्हें होता भी वैसा ही था। वे बताते थे कभी-कभी तो यहाँ बैठने पर, भावदशा में उनकी आँखों से अविरल अश्रु-प्रवाह होता और उन्हें लगता जैसे वे भाव-समाधि में गहराई से उतरते जा रहे है।
आश्रम निर्माण के प्रेरक कारण इनके गुरूदेव श्री शुभनाथजी महाराज थे। एक बार बाबाजी महाराज रमते-घूमते अमृताश्रम पहुँचे। वहाँ पीर महंत श्री शुभनाथ जी महाराज ने स्नेहिल आत्मीय मुस्कान के साथ कहा ‘‘श्रद्धानाथ, म्हारी एक बात मान ले। नाथजी महाराज का नांव सूं एक आश्रम बणा लै।’’ श्रद्धानाथ जी द्वारा आज्ञा शिरोधार्य करते हुए जब पूछा गया कि ‘‘आश्रम किस स्थान पर बनना है?’’ तो गुरू महाराज ने कहा ‘‘बो लिछमणगढ़ सूनो पड़योः बठै बणाले।’’ लक्ष्मणगढ़ में तब तक कोई नाथाश्रम नहीं था अतः श्रद्धानाथ जी महाराज ने उत्तर दिया, ‘‘जैसा आपका आदेश है, वैसा ही करूँगा।’’ और इस तरह रामनवमी की शुभ तिथि पर संवत् 2029 तदनुसार 23 मार्च, 1972 ई. को आश्रम का शिलान्यास हुआ। श्री श्रद्धानाथजी महाराज के पूजा मंदिर की स्थापना पूर्णिमा संवत् 2029 तदनुसार 28 मई, 1972 ई. को हुई। आश्रम की प्रतिष्ठा और उद्घाटन श्री अमृत आश्रम के महंत श्री हनुमाननाथजी महाराज के कर कमलों द्वारा शुभ मिति आषाढ़ शुक्ला सप्तमी सोमवार विक्रम संवत् 2029 तदनुसार 17 जुलाई, 1972 ई. को सम्पन्न हुए। उनके साथ साधु एवं भक्त भी इस अवसर पर आए। आश्रम पर उपस्थित हजारों सेवकों और भक्तों ने उनका हार्दिक स्वागत किया।
आश्रम का उद्देश्य
बाबाजी महाराज के ब्रह्मलीन होने के पश्चात् आश्रम के लिए एक ट्रस्ट गठन की आवश्यकता महसूस की। प्रायः संस्था, आश्रम या किसी सार्वजनिक संस्थान की व्यवस्था के लिए ट्रस्ट का गठन सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त होता है तथा उस संस्थान का पूरा लेखा-जोखा लिखित एवं ट्रस्ट के विधान एवं नियमानुसार होता है। वह संस्थान ट्रस्ट की धरोहर होता है तथा ट्रस्ट के सदस्यों द्वारा उसका संचालन किया जाता है। इस बात को ध्यान में रखकर आश्रम व्यवस्था के सुसंचालन में सहयोग करने हेतु 2 नवम्बर, 1987 को श्री श्रद्धानाथजी महाराज के आश्रम का ‘‘श्रीनाथजी महाराज का आश्रम ट्रस्ट’’ नाम से ट्रस्ट मण्डल का गठन किया गया।
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