गोरखनाथ जी की प्रमुख शिक्षाएँ  

सबदी

बसती न सुन्यं सुन्यं न बसती अगम अजोचर ऐसा।। गगन सिषर महि बालक बोलै ताका नाँव धरहुगे कैसा।।1।।

अदेषि देषिबा देषि बिचारिबा अदिसिटि राषिबा चीया।। पाताल की गंगा ब्रह्मण्ड चढ़ाइबा, तहाँ बिमल-बिमल जल पीया।।2।।

इहाँ ही आछै इहाँ ही अलोप। इहाँ ही रचिलै तीनि त्रिलोक।। आछै संगै रहै जुवा। ता कारणि अनन्त सिधा जोगेस्वर हूवा।।3।।

वेद कतेब न षाँणी बाँणी। सब ढँकी तलि आँणी।। गगन सिषर महि सबद प्रकास्या। तहँ बूझै अलष बिनाँणीं।।4।।

अलष बिनाँणी दोइ दीपक रचिलै तीन भवन इक जोती। तास बिचारत त्रिभवन सूझै चुणिल्यौ माँणिक मोती।।5।।

वेदे न सास्त्रे कतेबे न कुरांणे पुस्तके न बंच्या जाई।। ते पद जांनां बिरला जोगी और दुनी सब धंधे लाई।।6।।

हसिबा षेलिबा रहिबा रंग। काम क्रोध न करिबा संग।। हसिबा षेलिबा गाइबा गीत। दिढ करि राषि आपनां चीत।।7।।

हरिबा षेलिबा धरिबा ध्यांन। अहनिसि कथिबा ब्रह्म गियाँन। हसै षेले न करै मन भंग। ते निहचल सदा नाथ के संग।।8।।

सबदहिं ताला सबदहिं कूँची, सबदहिं सबद जगाया। सबदहिं सबद सूँ परचा हूआ, सबदहिं सबद समाया।।9।।

गगन मँडल मैं ऊँधा कूवा, तहाँ अमृत का बासा।। सगुरा होइ सु भरि भरि पीवै निगुरा जाइ पियासा।।10।।

गगने न गोपंत तेज न सोषंत पवने न पेलंत बाई।। मही भारे न भाजंत उदके न डूबन्त कहौ तौ को पतियाई।।11।।

नाथ कहै तुम सुनहु रे अवधू दिढ करि राषहु चीया।। काम क्रोध अहंकार निबारौ तौ सबै दिसंतर कीया।।12।।

थोड़ा बोलै थोड़ा षाइ तिस घटि पवनां रहै समाइ।। गगन मंडल में अनहद बाजै प्यंड पड़ै तो सतगुर लाजै।।13।।

अति अहार यंद्री बल करै नासै ग्याँन मैथुन चित धरै।। ब्यापै न्यंद्रा झंपै काल ताके हिरदै सदा जंजाल।।14।।

धूतारा ते जे धूतै आप, भिष्या भोजन नहीं संताप।। अहूठ पटण मैं भिष्या करै, ते अवधू सिव पुरी संचरै।।15।।

यहु मन सकती यहु मन सीव। यहु मन पाँच तत्त का जीव।। यहु मन लै जे उनमन रहै। तौ तिनि लोक की बाताँ कहै।।16।।

अवधू नव घाटी रोकि लै बाट। बाई बणिजै चौसठि हाट।। काया पलटै अबिचल बिध। छाया बिबरजित निपजै सिध।।17।।

अवधू दंम कौ गहिबा उनमनि रहिबा, ज्यूँ बाजबा अनहद तूरं।। गगन मंडल मैं तेज चमकै, चंद नहीं तहाँ सूरं।।18।।

सास उसास बाइकौ भषिबा, रोकि लेहु नव द्वारं।। छठै छमासि काया पलटिबा, तब उनमँनी जोग अपारं।।19।।

अवधू प्रथम नाड़ी नाद झमकै, तेजंग नाड़ी पवनं।। सीतंग नाड़ी ब्यंद का बासा, कोई जोगी जानत गवनं।।20।।

मन मैं रहिणाँ भेद न कहिणाँ, बोलिबा अमृत बाँणी।। आगिला अगनी होइबा अवधू, तौ आपण होइबा पाँणी।।21।।

उनमनि रहिबा भेद न कहिबा, पीयबा नींझर पाँणीं।। लंका छाड़ि पलंका जाइबा, तब गुरमुष लेबा बाँणी।।22।।

प्यंडे होइ तौ मरै न कोई, ब्रह्मंडे देषै सब लोई।। प्यंड ब्रह्मंड निरंतर बास, भणंत गोरष मछ्यंद्र का दास।।23।।

उत्तरषंड जाइबा सुंनिफल खाइबा, ब्रह्म अगनि पहरिबा चीरं।। नीझर झरणैं अमृत पीया, यूँ मन हूवा थीरं।।24।।

नग्री सोभंत बहु जल मूल बिरषा सभा सोभंत पंडिता पुरषा।। राजा सोभंत दल प्रवांणी, यूँ सिधा सोभंत सुधि-बुधि की वाँणी।।25।।

गोरष कहै सुणहु रे अवधू जग मैं ऐसैं षैं रहणाँ।। आँषैं देखिबा काँनैं सुणिबा मुष थैं कछू न कहणाँ ।।26।।

नाथ कहै तुम आपा राषौ, हठ करि बाद न करणाँ।। यहु जुग है कांटे की बाड़ी, देषि देषि पग धरणाँ ।।27।।

दृष्टि अग्रे दृष्टि लुकाइबा, सुरति लुकाइबा काँनं।। नासिका अग्रे पवन लुकाइबा, तह रहि गया पद निरबाँनं।।28।।

अरध उरध बिच धरी उठाई, मधि सुँनि मैं बैठा जाई।। मतवाला की संगति आई, कथंत गोरषनाथ परमगति पाई।।29।।

गोरष बोलै सुणि रे अवधू पंचौं पसर निवारी।। अपणी आत्माँ आप बिचारी, तब सोवौ पान पसारी।।30।।

षोडस नाड़ी चंद्र प्रकास्या द्वादस नाड़ी मानं।। सहँसु्र नाड़ी प्राँण का मेला, जहाँ असंष कला सिव थांनं।।31।।

अवधू ईड़ा मारग चंद्र भणीजै, प्यंगुला मारग भाँमं।। सुषमनां मारग बांणीं बोलिये त्रिय मूल अस्थांनं।।32।।

संन्यासी सोइ करै सर्बनास गगन मंडल महि माँडै आस।। अनहद सूँ मन उनमन रहै, सो संन्यासी अगम की कहै।।33।।

कहणि सुहेली रहणि दुहेली कहणि रहणि बिन थोथी।। पढ्या गुंण्या सूवा बिलाई खाया पंडित के हाथि रहि गई पोथी।।34।।

कहणि सुहेली रहणि दुहेली बिन षायाँ गुड़ मींठा।। खाई हींग कपूर बषांणं गोरष कहै सब झूठा।।35।।

मूरिष सभा न बैसिबा अवधू पंडित सौ न करिबा बादं।। राजा संग्रांमे झूझ न करबा हेलै न षोइबा नादं।।36।।

कोई न्यंदै कोई व्यंदै कोई करै हमारी आसा।। गोरष कहै सुणौं रे अवधू यहु पंथ षरा उदासा।।37।।

यंद्री का लड़बड़ा जिभ्या का फूहड़ा। गोरष कहै ते पर्तषि चूहड़ा।। काछ का जती मुष का सती। सो सतपुरूष उतमो कथी।।38।।

अधिक तत्त ते गुरू बोलिये हींण तत्त ते चेला।। मन माँनै तौ संगि रमौ नहीं तौ रमौ अकेला।।39।।

आकास तत सदा सिब जाँण। तसि अभिअंतरि पद निरबाँण।। प्यंडे परचाँनै गुरमुषि जोइ। बाहुडि आबागमन न होइ।।40।।

या पवन का जाणैं भेव। सो आपै करता आपै देव। गोरख कहै सुणौ रे अवधू। अन्ते पांणी जोग।।41।।

फोटोगैलेरी

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