श्रीनाथजी महाराज का आश्रम, लक्ष्मणगढ़  - श्री श्रद्धानाथजी महाराज व्यक्तित्व

भारतीय संस्कृति में त्याग के प्रतीक गैरिक वस्त्र, सुडौल श्यामल शरीर, सुखद सौम्य मुखारविन्द, किंचित् रक्तिम नेत्रों में परम कारूणिक भाव, प्रसन्न प्रशांत आनंद मूर्ति श्री बाबाजी महाराज के जिस किसी ने दर्शन किए, उसी ने अंतरमन से एक अद्भुत आत्मीयता का अनुभव किया है। पूज्य बाबाजी महाराज के सम्पर्क में जो भी आया, वह आज भी यह अनुभव करता है कि बाबाजी महाराज की मुझ पर असीम कृपा रही है, वे मुझे सर्वाधिक प्रेम करते रहे हैं। जिसे एक बार भी आपका सत्संग लाभ मिल गया, वह आपके अलौकिक प्रेमाकर्षण से अछूता न रहा। इस दिशा में गरीब, अमीर, शिक्षित, अशिक्षित, युवा, वृद्ध सभी को समान अनुभूति हुई है, प्रत्येक की यही मान्यता है कि मुझ पर बड़ी कृपा रही है। मुझे बड़ा प्रेम मिला है। श्री श्रद्धानाथ जी महाराज का व्यक्तित्व इतना उन्मुक्त और मानवता के प्रति समर्पित था कि उनमें कहीं दुराव-छिपाव, परायापन या भेदबुद्धि नहीं थी। आत्मवान महापुरूषों का यही समत्वभाव उनकी महानता है। यह निश्चित है कि असीम को ससीम से नापा नहीं जा सकता।

बाबाजी महाराज के दिव्य एवं अलौकिक व्यक्तित्व की थाह को पाना सरल कार्य नहीं है। बाबाजी महाराज जीवन मुक्त सिद्ध पुरूष थे। उनका चरित्र आदर्शों एवं मर्यादाओं का प्रकाश स्तंभ है। उसमें एक ऐसी विलक्षण मोहकता थी कि जो भी दर्शनार्थी उनके पास आता, वह नतमस्तक हो जाता तथा उसकी सभी शंकाएँ निर्मूल हो जातीं। बाबाजी महाराज का सान्निध्य आत्म-शांति और नवीन स्फूर्ति प्रदान करने वाला था। आपकी वाणी इतनी सहज और मधुर थी कि आप्तजनों की प्यास स्वतः ही बुझ जाती। आपके कथनों में सहजता, गंभीरता, स्मित हास्य और विनोदप्रियता का अपूर्व सम्पुट रहता। सीधी सरल भाषा में रसमयता भी थी तो ज्ञान-विज्ञान की व्यावहारिक व्याख्या भी। सहज बातों में शंकाओं का समाधन भी था तो आत्मीयता से परिपूर्ण सांसारिक बातों का मार्गदर्शन भी। आप कभी भी किसी के लिए कटु या कड़वे शब्द का प्रयोग नहीं करते, क्योंकि आप मानते थे कि ऐसा करने से वाणी निस्सार हो जाती है। आपकी निश्छल वाणी में सरलता, सहजता और संक्षिप्त कथन की विशेषता होती थी।

ज्ञान-विज्ञान, योग-साधना और अध्यात्य के गूढ़ विषयों को सहज, सरल भाषा में सामान्य उदाहरणों द्वारा व्याख्यायित कर देना, आपकी अप्रतिम विशेषता थी। आपकी वाणी में लोक भाषा की अनगढ़ता और अकृत्रिमता थी। बातों के सारे संदर्भ, रूपक और बिम्ब लोक जीवन से जुड़े हुए होते।

सुस्पष्ट शब्दों एवं संक्षिप्त रूप में अपनी बात प्रस्तुत कर देना, बाबाजी महाराज की विशेषता थी। सामान्य जनों के लिए वे अध्यात्म के केवल व्यावहारिक पक्ष को सीधे सरल ढंग से समझा दिया करते थे। बाबाजी महाराज की स्मरण शक्ति विलक्षण थी। एक बार मिले और देखे हुए व्यक्तिको बाबाजी महाराज तुरंत पहचान जाते।

व्यवहार में समता बनाए रखना, बाबाजी महाराज का महान् गुण था। बाबाजी महाराज कहा करते थे, साधु को समता रखनी चाहिए। गीता का यह श्लोक बाबाजी महाराज का आदर्श था-

" सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थ द्वेष्यबन्धुषु।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते।। "

‘समदृष्टि’ और ‘समवृत्ति’ शब्दों की बाबाजी महाराज बड़ी सटीक व्याख्या करते। जो जैसा है, उसे वैसा ही देखना व तदनुरूप ही व्यवहार करना चाहिए, ऐसा बाबाजी महाराज कहते थे। साथ में ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ का आदर्श आपके व्यवहार में सन्निहित रहता। सभी परमात्मा की संतान हैं अतः धन, जाति या अन्य किसी आधार पर भेदभाव रखना मन की संकीर्णता है, ऐसा बाबाजी महाराज मानते थे।

बाबाजी महाराज न्यायप्रिय एवं तटस्थ थे। सत्य को स्पष्ट शब्दों में कह देना, बाबाजी महाराज के चरित्र की महानता थी। बाबाजी महाराज प्रखर बुद्धि नीति-निपुण और निष्कपट हृदय वाले थे। जो बाबाजी महाराज के सम्पर्क और सान्निध्य में रहे वे बाबाजी महाराज की हृदयगत निर्मलता, निष्कपटता और प्रगाढ़ आत्मीयता को अच्छी प्रकार जानते थे।

प्रेम योग

पूज्य बाबाजी महाराज स्वयं प्रेमस्वरूप थे, प्रेममय थे। बचपन से ही आपके हृदय में श्री अमृतनाथजी महाराज के प्रति अटूट श्रद्धा, अगाध प्रेम एवं दृढ विश्वास था। फिर आगे चलकर तो जैसे आपके जीवन में प्रेम की बाढ़ ही आ गई। आपके मुख पर सदा प्रेम का प्रकाश छाया रहता। आप सदा उस दिव्य अलौकिक प्रेम में आत्मिक प्रेम से ओत-प्रोत रहते, जो भी श्रद्धा भाव लेकर आपके सम्मुख आता, उसी पर प्रेम वर्षण होने लगता। आपका प्रेम आत्मा का प्रेम था। आप देह भाव से ऊपर उठ गए थे। लौकिक प्रेम प्रतिदान चाहता है, किन्तु आत्मिक प्रेम आनन्द का विषय है जिसमें कल्याण की उदात्त भावना के साथ आनन्द ही आनन्द है, यही कारण है कि जब कभी आपके दर्शन किए, तभी आपको आनन्दमय पाया।

आपका सान्निध्य व्यक्ति को सांसारिक चिंताओं से मुक्ति प्रदान करने वाला था, यही कारण है कि जैसे ही कोई व्यक्ति आपके सत्संग में आया वह सांसारिक चिंताओं को भूलकर आनन्द का अनुभव करने लगा। सत्संग लाभ प्राप्त करने वाले श्रद्धालु के हृदय में शांति की धारणा प्रवाहित होने लगती। उसे सम्पूर्ण वातावरण प्रेममय प्रतीत होने लगता।

एक बार किसी सत्संग के अवसर पर किसी दर्शनार्थी ने बाबाजी महाराज से यह प्रश्न किया कि इस जीवन का सार क्या है? इस पर बाबाजी ने कहा-‘इस जीवन का सार प्रेम है। इस जीवन में जो सजलता नजर आ रही है, वह प्रेम के परिणाम स्वरूप ही है। प्रेम रहित जीवन नीरस है, मृतक समान है प्रेम से ज्ञान, ध्यान, भजन और योग सब कुछ होता है। अगर प्रेम नहीं तो इस संसार में कुछ भी नहीं। प्रेम ही जीवन का उल्लास है।’

प्रेम आनन्द स्वरूप है। प्रेम ही सबमें समन्वय स्थापित करता है। अतः बाबाजी महाराज कहा करते थे, अपने आपसे प्रेम करो, परस्पर प्रेम करो और परमात्मा से प्रेम करो। इन तीनों ही अर्थों में इन्होंने प्रेम को पूर्णता प्रदान की।

वस्तुतः बाबाजी महाराज का जीवन ही प्रेम का पर्याय बन गया था। बाबाजी महाराज का प्रेम आत्मा का प्रेम था। वे देहभाव से ऊपर उठकर आत्मा के प्रेम को प्रधानता देते। सभी आत्माएँ एक हैं, अतः सभी के प्रति प्रेम-भाव प्रकट किया जा सकता है। बाबाजी महाराज का प्रेम तो असीम था, कवीन्द्र रवीन्द्र के शब्दों में-‘‘संसारे ते और जहारा है अर्थात् हे प्रभु इस संसार की स्थिति बिल्कुल विपरीत है। जिससे प्रेम करते हैं वही बंधन में डालता है। एक तेरा ही प्रेम ऐसा है जो इन बंधनों से छुटकारा दिलाता है। ऐसा ही छुटकारा दिलाने वाला प्रेम बाबाजी महाराज का था।’’

दृढ़ निश्चय और विश्वास साधक को अपने मार्ग पर न केवल आगे ही बढ़ाते हैं, अपितु सफलता भी दिलाते हैं। बाबाजी महाराज में ये दोनों गुण थे। वे कहा करते थे कि हम जिस सत्ता की प्रार्थना कर रहे है; क्या वह सत्ता इस प्रार्थना को नहीं सुन रही है? तब वे कहते, ‘अवश्य सुन रही है।’ वही सत्ता प्रार्थना भी सुन रही है और आंधी तथा तूफान भी चला रही है अतः अस्थिर और उद्वेलित होने की आवश्यकता नहीं। ऐसी विषम परिस्थिति का वह स्वयं निराकरण करेगी।

अगर प्रार्थना करते समय प्रकृति का प्रतिकूल रूप प्रार्थना में विघ्न पैदा भी कर दे, तो प्रार्थना में दृढ़ निश्चय के साथ बैठे रहना चाहिए और प्रार्थना करके ही उठना चाहिए। बाबाजी महाराज का कहना था, कि दृढ़ निश्चय का नाम ही भक्ति हे और दृढ़ निश्चय का नाम ही योग है। मीरा में दृढ़ निश्चय था, प्रहलाद में दृढ़ निश्चय था। कितनी ही विषम परिस्थतियों ने उन्हें विचलित करने की कोशिश की, लेकिन वे अपनी साधना से डिगे नहीं, इसलिए आप कहते थे-‘‘कभी भी अपने निश्चय को छोड़ना नहीं चाहिए। निश्चय में ही शक्ति है और यह शक्ति ही सब विपत्तियों का निराकरण कर देती है।’’

बाबाजी महाराज की मूल धारणा यह रही कि इस सृष्टि का मूल आधार प्रेम है। यह संसार प्रेम से ही परिचालित है। शुद्ध प्रेम आत्मा का है और शारीरिक या दैहिक प्रेम से ऊपर है। उसमें केवल आनन्द ही आनन्द है। वास्तविक प्रेम से जोड़ सांठ नहीं होता। जैसे प्रेम बना और फिर टूट गया, यह बनावटी और दिखावटी प्रेम है। क्योंकि प्रेम होेने पर वह टूटता ही नहीं है। जैसे जल में जल मिलकर, एकाकार हो जाता है, वैसे ही शुद्ध प्रेम जोड़ता है, तोड़ता नहीं।

जब आश्रम स्थापित हुआ तो उसके पश्चात् वे अहर्निश अपने सेवकों भक्तों और दर्शनार्थियों के लिए प्रेम लुटाते रहे। आश्रम में आने का किसी के लिए कोई बंधन नहीं था। आश्रम सबका और सबके लिए था। वे तो केवल कठोर तख्त पर सिद्धासन लगाये हुए, दर्शनलाभ देते रहे। कभी अशांत नहीं हुए, तो कभी धैर्य नहीं छोड़ा और छोड़ते भी क्यों? उनके मन मे ंतो सच्चा प्रेम था-मानव मात्र के लिए। यही कारण है कि उनके दर्शनलाभ के लिए परिचित-अपरिचित व्यक्ति को भी कोई कठिनाई नहीं होती, न किसी को प्रतीक्षा करनी पड़ती। दर्शनार्थियों का तांता लगा रहता, कमरा बराबर लोगों से खचाखच भर जाता और बाबाजी, ‘अब ल्यो प्रसाद’ कहकर लोगों को स्नेहपूर्वक आशीर्वाद देते हुए, विदा करते।

बाबाजी महाराज बहुश्रुत एवं विशाल अनुभव वाले थे। भ्रमण और देश के महान् संतों का सत्संग लाभ बाबाजी महाराज के जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि थी, यही कारण है कि उनका सत्संग प्रेरणादायी, ज्ञानवर्द्धक और जीवन संघर्ष का मार्ग प्रशस्त करने वाला था। बाबाजी महाराज में बचपन से ही साधु-संतों के प्रति असीम श्रद्धाभाव रहा और यही श्रद्धाभाव उनके उत्तर जीवन में ‘नाथ’ फल से विभूषित हो गया। बाबाजी महाराज ने शेखावाटी जनपद में श्री अमृतनाथजी महाराज की स्मृति को पुनः जाग्रत किया और अनेक प्रकार की भ्रांतियों और उपेक्षाओं के शिकार नाथ सम्प्रदाय की तरफ बुद्धिजीवी वर्ग का ध्यान आकृष्ट किया। यही कारण है कि आपके सेवकों में आज शिक्षित बुद्धिजीवी और अधिकारी वर्ग के लोग अधिक हैं।

बाबाजी महाराज उदार, समदृष्टि एंव व्यापक दृष्टिकोण वाले थे। बाबाजी महाराज का विभिन्न सम्प्रदायों के संत महात्माओं से व्यक्तिगत सम्पर्क था तथा उनके सानिध्य में रहकर बाबाजी महाराज ने सानिध्य लाभ भी प्राप्त किया था। किसी सम्प्रदाय विशेष की सीमाओं का बंधन बाबाजी महाराज के लिए कभी बाधा नहीं बना। बाबाजी महाराज सभी सम्प्रदाय के संत-महात्माओं के प्रति समान स्नेह और श्रद्धाभाव रखते थे। आश्रम में भी सम्प्रदाय की दृष्टि से कोई भेदभाव नहीं रहा। किसी भी सम्प्रदाय का साधु हो, उसका स्वागत है। इससे प्रतीत होता है कि नाथ सम्प्रदाय में दीक्षित होते हुए भी आपने अन्य सम्प्रदायों एवं धर्मों के प्रति उदार दृष्टि का परिचय दिया।

रमण-भ्रमण एवं लोक शिक्षण

रमण-भ्रमण न केवल बाबाजी महाराज का ही स्वभाव था बल्कि साधु की मूल-वृत्ति मानी गई है। बाबाजी महाराज ने खूब रमण-भ्रमण किया, देश के सभी प्रमुख स्थानों की यात्राएँ की और हजारों साधु-संतों से मिले। हरिद्वार बाबाजी महाराज का सबसे प्रिय स्थान था, जहाँ वे कई बार गए। तीर्थ स्थानों एवं देशाटन के अलावा बाबाजी महाराज शेखावाटी जनपद के गाँव-गाँव एवं ढाणी-ढाणी में घूमे हैं तथा अपने आदर्शों और उपदेशों की बराबर चर्चा करते रहे हैं। बाबाजी महाराज भारतीय संस्कृति के समर्थक थे। बाबाजी महाराज ने संस्कृति के उदात्त जीवन मूल्यों को अपने जीवन में उतार लिया था। बाबाजी महाराज के समय यहाँ का पढ़ा-लिखा युवक पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में आकर भारतीय संस्कृति की आलोचना करने लग गया था। इस पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति के अनुकरण की मानसिकता धर्म और अध्यात्म के बिल्कुल प्रतिकूल पड़ रही थी। अतः बाबाजी महाराज ने अपने विचारों से शिक्षित वर्ग को अपनी ओर आकृष्ट किया। वे स्कूलों और छात्रावासों में गए युवा वर्ग से मिले और उनमें अध्यात्म एवं अपनी संस्कृति के प्रति

लगाव और जुड़ाव का भाव पैदा किया। वे युवा पीढ़ी को नशीली वस्तुओं से दूर रहने एवं अभक्ष्य पदार्थों का परित्याग करने की प्रेरणा बराबर देते रहे जिसका परिणाम यह हुआ कि आज हजारों युवक ऐसे हैं जो बाबाजी महाराज की सद्शिक्षाओं का लाभ उठाकर, सन्मार्ग पर बढ़ रहे हैं तथा उनका जीवन सीधा-सरल एवं सात्त्विक विचारों का दिखाई देता है। बाबाजी महाराज ने शुरू से ही इस शिक्षित युवा वर्ग में ऐसे संस्कारों का बीजारोपण किया और पथभ्रष्ट होने से लोगों को बचाया। इस क्षेत्र में बाबाजी महाराज का यह योगदान अविस्मरणीय है।

लोक-व्यवहार का अद्भुत ज्ञान रखने वाले बाबाजी महाराज लोगों को पारिवारिक एवं सामाजिक समस्याओं के निराकरण के लिए बराबर सलाह देते थे। टूटते हुए परिवारों की समस्या को ध्यान में रखकर आपने कुटुम्ब भावना पर बल दिया और युवा पीढ़ी को अपने माता-पिता की सेवा करने के लिए प्रेरित किया। आजादी के बाद की संक्रमण स्थिति का उल्लेख करते हुए महाराज ने यह कहा कि इस समय परिवार और समाज को बचाये रखना बड़ा आवश्यक है। लगता है इस समय एक अंधड़ आया हुआ है जो हमारी मूल आदर्श भावना को खत्म कर रहा है और हम दिशाहीन होकर, उस अंधड़ में उड़ रहे हैं। इस अंधड़ में भी कइयों को उड़ना अच्छा लग रहा है। तो कई अंधड़ की समाप्ति की प्रतीक्षा कर रहे हैं, वे इस स्थिति से दुःखी हैं कि यह स्थिति कब टले।

युवा पीढ़ी में चारित्रिक निर्माण पर बल दिया जाए-यह बाबाजी महाराज का मूलतंत्र था। वे कहते थे चरित्र एक व्याप्त शब्द है। जिसमें सब कुछ आ गया। उनकी दृष्टि में सद्गुणों का पर्याय चरित्र है। चरित्र को नकारने से किसी का भी उत्थान नहीं हो सकता। जिसको आगे बढ़ना है, कुछ उपलब्ध करना और समाज को कुछ देना है तो चरित्रवान बनना आवश्यक है। चरित्रवान ही समर्थ एवं प्रभावशाली होता है। बाबाजी महाराज ने अपने सीधे-सरल एवं व्यवहारिक उपदेशों से इस चरित्र साधना पर बल दिया। चरित्र को वे अमोघ शक्ति मानते थे। किसी भी व्यक्ति का हमारे ऊपर जो प्रभाव पड़ता है, वह उसके चरित्र का ही प्रभाव है, भले ही इसकी व्याख्या के लिए किसी भी प्रकार के शब्दों का प्रयोग किया जाए।

बाबाजी महाराज का देश प्रेम और संस्कृति के प्रति अगाध निष्ठा ही नवयुवकों के लिए प्रेरणा स्त्रोत रही है। आपके पुण्य प्रताप से इस अंचल के लोगों मे साधु सेवा का भाव जाग्रत हुआ और धर्म-कर्म के सद्भावों से सामाजिक वातावरण में पवित्रता एवं शुद्धता दिखाई दी। आपके मृदु व्यवहार, प्रेम एवं गहन सामाजिक अध्ययन ने जनमानस को अपनी ओर आकृष्ट किया।

रमणकाल में आप जहाँ सदाचार एवं व्यवहारिक जीवन के ज्ञान की चर्चा करते वहाँ तीन बातों पर विशेष बल देते। पहली, सद्गुरू पर विश्वास एवं आज्ञापालन, दूसरी, इष्टदेव की नित्य नियम से प्रार्थना एवं पूजा, तीसरी सबसे प्रेम करना एवं सदमार्ग पर चलना।

वैचारिक दृष्टि से बाबाजी महाराज पुरातन एवं अर्वाचीन के अद्भुत संगम थे। वे भारतीय संस्कृति एवं आदर्शों के संतोषक एवं समर्थक भी थे तो वैज्ञानिक संदर्भ में भी अपने विचारों को प्रस्तुत करते थे। आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों की दृष्टि से बाबाजी महाराज पुरातन एवं अर्वाचीन के अद्भुत संगम थे। वे भारतीय संस्कृति एवं आदर्शों के संतोषक एवं समर्थक भी थे तो वैज्ञानिक संदर्भ में भी अपने विचारों को प्रस्तुत करते थे। आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों की दृष्टि से बाबाजी महाराज का सोच गोरखनाथजी के युग का था तो वैज्ञानिक चिंतन में वे बीसवीं शताब्दी से जुड़े हुए थे। बाबाजी महाराज का मस्तिष्क नव-विचारों के लिए सदैव खुला रहता था। रूढ़िवाद के स्थान पर बाबाजी महाराज हर समस्या को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सोचते थे। बाबाजी महाराज विचारों से प्रगतिशील थे। कभी-कभी अखबार नवीसों से भी कहा करते थे, ‘अखबारों में ऐसी बातें लिखा करो कि हम पश्चिम से ज्ञान-विज्ञान तो सीख लें, धन भी ले आएँ, पर वहाँ का आचरण हमारे में न लाएँ। इससे बड़ा गड़बड़ हो रहा है। आध्यात्मिक चेतना के साथ भौतिक खुशहाली भी लोगों में आए ऐसा बाबाजी महाराज मानते थे क्योंकि वे दीन-दुःखी लोगों के समर्थक थे और एक मायने में उनके अधिक समर्थक थे उन्हें गरीब में सरलता और निष्कपटता अधिक दिखाई देती थी।’

वे कर्म प्रधान जीवन को मनुष्य के पुरूषार्थ का आवश्यक अंग मानते थे। यही कारण है कि कामचोर या कर्मरहित व्यक्ति उन्हें पसंद नहीं था। ऐसे व्यक्ति को वे अपने सम्पर्क में भी नहीं रखना चाहते थे। बाबाजी महाराज कहते थे मुझे ठाला(निष्क्रिय) व्यक्ति अच्छा नहीं लगता।

बाबाजी महाराज अपने सेवकों को भी निरन्तर यही कहते रहते थे कि जहाँ भी कार्य करो-कर्त्तव्यपालन और ईमानदारी व्यक्ति का पहला गुण होना चाहिए।

आनन्दचित्त रहना

बाबाजी महाराज सद्गुणों के भण्डार थे। उनके जिस गुण की ओर लोग सर्वाधिक आकृष्ट हुए, वह था उनका सदानन्द स्वरूप। वे सदा आनन्दचित्त रहते। उनके श्यामल मुखारविंद पर आनंद की छवि छाई रहती। शांत निर्मल नेत्रों से आनन्द झरता रहता। विरक्त होते हुए भी वे उदासीन नहीं रहे। त्यागी होते हुए भी उन्होंने किसी की उपेक्षा नहीं की। प्रत्येक व्यक्ति को वे प्रेम की दृष्टि से देखते, प्रत्येक में वे रूचि दिखाते। सभी से सुख-दुःख की बात पूछते। उन्होंने कभी किसी से नफरत नहीं की, किसी के प्रति कटुवचन नहीं कहा। बाबाजी महाराज के जीवन में अद्भुत समरसता थी। प्राणी मात्र के प्रति उनके हृदय में अगाध स्नेह था। वे दुराव-छिपाव एवं परायेपन से ऊपर उठे हुए थे। उनका हृदय बच्चों की तरह सरल, निष्कपट और निर्मल था। यही कारण है कि श्रद्धालु, उनकी तरफ खिचे आते थे और उनका चंद क्षणों का सानिध्य उनके जीवन की अविस्मरणीय स्मृति बन जाती थी। फिर जहाँ जाते, चर्चा करते और लक्ष्मणगढ़ का प्रसंग आता तो वे गौरव महसूस करते बाबाजी महाराज के सानिध्य में बिताए क्षणों के कारण।

प्रायः धार्मिक स्थलों, आश्रमों और मठों में धनवान और विद्वान व्यक्तियों का अधिक आदरभाव होता है। इनमें भी पहला स्थान धनवान का होता है क्योंकि ऐसे स्थानों पर वैभव-प्रदर्शन और ज्ञान प्रदर्शन की होड़ लगी रहती है।

अतः गरीब सामान्य शिक्षित और सद्गृहस्थ का तो कोई ख्याल ही नहीं किया जाता। लेकिन एक आत्मवान त्यागी-तपस्वी महापुरूष के पुण्य प्रताप से बना लक्ष्मणगढ़ का श्री श्रद्धानाथजी महाराज का आश्रम अपने आप में निराला है। जहाँ गरीब और अमीर भी, तो शिक्षित एवं विद्वान भी-सब आते रहे हैं लेकिन बाबाजी महाराज में सभी को समान आदर दिया। उनकी दृष्टि में किसान, मजदूर और विद्वान सब बराबर थे। इस दृष्टि से थोड़ा और गहराई से विचार करें तो इस आश्रम में धनवान को विशेष स्थान नहीं था। यह सब बाबाजी महाराज के महान् त्याग और मानव मात्र के प्रति सहज प्रेम का परिचायक है।

बाबाजी महाराज का समत्व भाव अपने आप में एक सर्वोपरि गुण था। उनकी दृष्टि में बड़े से बड़ा सेठ-साहूकार और एक गरीब व्यक्ति, दोनों बराबर थे। दोनों को समान प्रेम और आदर मिले, यह समदृष्टि बाबाजी महाराज की थी। बाबाजी महाराज का व्यक्तित्व विराट एवं महान था इसलिए जो उनके सामने आया, चाहे वह धनवान हो, चाहे ऊँचा पदाधिकारी या उच्च कोटि का विद्वान, उसने अपने को बौना महसूस किया। लेकिन बाबाजी महाराज ने सबको बराबर स्नेह दिया। आपका परिष्कृत लोक व्यवहार अनुकरणीय था।

फोटोगैलेरी

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