नाथ सम्प्रदाय - परिचय
जब तांत्रिकों और सिद्धों के चमत्कार एवं अभिचार बदनाम हो गए, शाक्तमद्य, मांसादि के लिए तथा सिद्ध, तांत्रिक आदि स्त्री-संबंधी आचारों के कारण घृणा की दृष्टि से देखें जाने वाले तथा जब इनकी यौगिक क्रियाएँ भी मन्द पड़ने लगी, तब इन यौगिक क्रियाओं के उद्धार के लिए ही उस समय नाथ सम्प्रदाय का उदय हुआ। इसमें नवनाथ मुख्य कहे जाते हैं: गोरक्षनाथ, ज्वालेन्द्रनाथ, कारिणनाथ, गहिनीनाथ, चर्पटनाथ, रेवणनाथ, नागनाथ, भर्तृनाथ और गोपीचन्द्रनाथ। गोरक्षनाथ ही गोरखनाथ के नाम से प्रसिद्ध है।
इस सम्प्रदाय के परम्परा संस्थापक आदिनाथ स्वयं शंकर के अवतार माने जाते हैं। इसका संबंध रसेश्वरों से है और इसके अनुयायी आगमों में आदिष्ट योग साधन करते हैं। अतः इसे अनेक इतिहासज्ञ शैव सम्प्रदाय मानते हैं। परन्तु और शैवों की तरह ये न तो लिंगार्चन करते हैं और न शिवोपासना के और अंगों का निर्वाह करते हैं। किन्तु तीर्थ, देवता आदि को मानते हैं, शिवमंदिर और देवीमंदिरों में दर्शनार्थ जाते हैं। कैला देवी जी तथा हिंगलाज माता के दर्शन विशेषतः कहते हैं, जिससे इनका शाक्त संबंध भी स्पष्ट है। योगी भस्म भी
रमाते हैं, परन्तु भस्मस्नान का एक विशेष तात्पर्य है-जब ये लोग शरीर में श्वास का प्रवेश रोक देते हैं। प्राणायाम की क्रिया मे ंयह महत्व की युक्ति है। फिर भी यह शुद्ध योगसाधना का पन्थ है। इसीलिए इसे महाभारतकाल के योगसम्प्रदाय की परम्परा के अंतर्गत हैं मानना चाहिए। विशेषता इसलिए कि पाशुपत सम्प्रदाय से इसका सम्बन्ध हलका सा ही देख पड़ता है। साथ ही योगसाधना इसके आदि, मध्य और अंत में हैं। अतः यह शैव मत का शुद्ध योग सम्प्रदाय है।
इस पंथ वालों की योग साधना पातंजल विधि का विकसित रूप है। उसका दार्शनिक अंश छोड़कर हठयोग की क्रिया जोड़ देने से नाथपंत की योगक्रिया हो जाती है। नाथपंत में ‘ऊर्ध्वरेता’ या अखण्ड ब्रह्मचारी होना सबसे महत्व की बात है। मांस-मद्यादि सभी तामसिक भोजनों का पूरा निषेध है। यह पंथ चौरासी सिद्धों के तांत्रिक वज्रयान का सात्विक रूप में परिपालक प्रतीत होता है।
उनका तात्विक सिद्धांत है कि परमात्मा ‘केवल’ है। उसी परमात्मा तक पहुँचना मोक्ष है। जीव का उससे चाहे जैसा संबंध माना जाए, परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से उससे सम्मिलित ही कैवल्य मोक्ष या योग है। इसी जीवन में उसकी अनुभूति हो जाए, पंथ का यही लक्ष्य है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रथम सीढ़ी काया की साधना है। कोई काया को शत्रु समझकर भाँति-भाँति के कष्ट देता है और कोई विषयवासना में लिप्त होकर उसे अनियंत्रित छोड़ देता है। परन्तु नाथपंथी काया को परमात्मा का आवास मानकर उसकी उपयुक्त साधना करता है। काया उसके लिए वह यंत्र है जिसके द्वारा वह इसी जीवन में मोक्षानुभूति कर लेता है, जन्म मरण जीवन पर पूरा अधिकार कर लेता है, जरा-भरण-व्याधि और काल पर विजय पा जाता है।
इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह पहले काया शोधन करता है। इसके लिए वह यम, नियम के साथ हठयोग के षट् कर्म(नेति, धौति, वस्ति, नौलि, कपालभांति और त्राटक) करता है कि काया शुद्ध हो जाए। यह नाथपंतियों का अपना आविष्कार नहीं है; हठयोग पर लिखित ‘घेरण्डसंहिता’ नामक प्राचीन ग्रंथ में वर्णित सात्विकयोग प्रणाली का ही यह उद्धार नाथपंथियों ने किया है।
इस मत में शुद्ध हठयोग तथा राजयोग की साधनाएँ अनुशासित हैं। योगासन, नाड़ीज्ञान, षट्चक्र निरूपण तथा प्राणायाम द्वारा समाधि की प्राप्ति इसके मुख्य अंग हैं। शारीरिक पुष्टि तथा पंच महाभूतों पर विजय की सिद्धि के लिए रसविद्या का भी इस मत में एक विशेष स्थान है। इस पंथ के योगी या तो जीवित समाधि लेते हैं या शरीर छोड़ने पर उन्हें समाधि दी जाती है। वे जलाये नहीं जाते। यह माना जाता है कि उनका शरीर योग से ही शुद्ध हो जाता है, उसे जलाने की आवश्यकता नहीं। नाथपंथी योगी अलख(अलक्ष) जगाते हैं। इसी शब्द से इष्टदेव का ध्यान करते हैं और इसी से भिक्षाटन भी करते हैं। इनके शिष्य गुरू के ‘अलक्ष’ कहने पर ‘आदेश’ कहकर सम्बोधन का उत्तर देते हैं। इन मंत्रों का लक्ष्य वहीं प्रणवरूपी परम पुरूष है जो वेदों और उपनिषदों का ध्येय हैं। नाथपंथी जिन ग्रंथों को प्रमाण मानते हैं उनमें सबसे प्राचीन हठयोग संबंधी ग्रंथ घेरण्डसंहिता और शिवसंहिता है। गोरक्षनाथकृत हठयोग, गोरक्षनाथ ज्ञानामृत, गोरक्षकल्प सहस्त्रनाम, चतुरशीत्यासन, योगचिन्तामणि, योगमहिमा, योगमार्तण्ड, योग सिद्धांत पद्धति, विवेकमार्तण्ड, सिद्ध सिद्धांत पद्धति, गोरखबोध, दत्त गोरख संवाद, गोरखनाथ जी रा पद, गोरखनाथ के स्फुट ग्रंथ, ज्ञान सिद्धांत योग, ज्ञानविक्रम, योगेश्वरी साखी, नरवैबोध, विरहपुराण और गोरखसार ग्रंथ भी नाथ सम्प्रदाय के प्रमाण ग्रंथ हैं।
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