सहज योगी संत श्री श्रद्धानाथ जी महाराज
हमारा भारत देश धर्म एवं दर्शन की दृष्टि से विश्व में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। हमारे देश में अनेक संत महात्मा एवं विद्वान हुए हैं जिन्होंने हमें नैतिक आचरण, सामाजिक मूल्यों एवं आदर्श जीवन का रास्ता दिखाया है। इन संतों ने चिंतन एवं आचरण के आधार पर बनने वाले चरित्र की स्वयं अपने शुद्ध एवं पवित्र आचरण द्वारा व्याख्या की। ऐसे ही एक महान सहजयोगी संत श्री श्रद्धानाथ जी हुए जो एक सहज, सरल एवं विलक्षण व्यक्ति थे। वे एक साधक, सिद्ध एवं तपस्वी महापुरूष थे। जिन्होंने भारत के महान योगी गुरू गोरखनाथ के विशिष्ट योगमार्ग को अपने जीवन की समरसता, अगाध स्नेह एवं समत्व भाव के साथ अपने सेवकों एवं अनुयायियों के सम्मुख प्रस्तुत किया।
श्री श्रद्धानाथ जी के पिता का नाम श्री गाहड़सिंह जी एवं माता का नाम श्रीमती जोर कँवर था। श्री गाहड़सिंह जी राजस्थान राज्य के सीकर जिले की लक्ष्मणगढ़ तहसील के पूर्वांचल में दस किलोमीटर की दूरी पर स्थित पनलावा गाँव के निवासी थे। श्री गाहड़सिंह जी राजस्थान के क्षत्रिय शेखावत वंश से सम्बद्ध थे। वे ब्रिटिश काल में भारतीय सेना में एक सैनिक थे और सन् 1914 में उनकी सेना का पड़ाव झेलम नदी के तट पर स्थित एक छावनी में था।
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कहते हैं छावनी से कुछ दूरी पर एक आश्रम था। उस आश्रम में एक लाल तिलकधारी बाबा तपस्या करते थे वे दिन-रात अपनी साधना में लीन रहते थे वे एक दिव्य सिद्ध पुरूष थे।
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सेना के कुछ लोग समय मिलने पर बाबा के दर्शन करने चले जाते थे उनमें श्री गाहड़सिंह जी भी एक थे। इन्हें बाबा जी की सेवा करना बहुत अच्छा लगता था। वे विनम्र भाव से उनकी सेवा टहल करते थे और बाबा जी के सत्संग का लाभ लेते। जैसा कि विद्वान लोग सत्संग को तीर्थ से भी अधिक पवित्र बताते हैं। ‘‘प्राहुः पूततमां तीर्थदपि सत्संगति बुधाः।’’।
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यह समय प्रथम विश्वयुद्ध का था एवं श्री गाहड़ सिंह की सैनिक टुकड़ी को भी लाम (युद्ध) पर जाने का आदेश हुआ। एक कर्त्तव्य परायण सैनिक की भांति श्री गाहड़सिंह युद्ध में जाने को तैयार हुए एवं जाने से पहले बाबा जी का आशीर्वाद लेने गये तो बाबा ने मंद मुस्कान के साथ आशीर्वाद दिया ‘‘परमेश्वर सबका रक्षक है, वही रक्षा करेगा।’’
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श्री गाहड़सिंह जी युद्ध में भाग लेने समुद्र पार चले गए, वहाँ उन्हें तीन साल रहना पड़ा। युद्ध के दौरान अनेक सैनिक मारे गए अनेक घायल हुए। गाहड़सिंह जी की भी जांघ में गोली लगी किन्तु कुछ दिनों के उपचार के बाद वे ठीक हो गए, उन्हें बाबा जी के वचन याद आ रहे थे ‘‘कष्ट आएगा लेकिन टल जाएगा।’’
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युद्ध समाप्ति के बाद श्री गाहड़ सिंह जी भारत लौटे बाबा जी से मिले और बताया कि वे दो माह की छुट्टी पर गाँव जा रहे हैं। उन्होंने बाबा जी से भी साथ चलने का आग्रह किया। बाबा जी ने उन्हें गाँव जाने को कहा एवं स्वयं अपनी सुविधानुसार गाँव आने का आश्वासन दिया। गाहड़ सिंह जी अपने गाँव पनलावा आ पहुँचे। दो माह की छुट्टी गाँव के लोगों से मिलने में व्यतीत हो गई।
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छुट्टी समाप्त होने पर पुनः छावनी लौटे। छावनी लौटते ही बाबा जी के दर्शन हेतु आश्रम गए किन्तु बाबा जी ब्रह्मलीन हो चुके थे। श्री गाहड़सिंह जी ने बाबा जी की समाधि पर अश्रुपूरित श्रद्धासुमन अर्पित किए एवं नौकरी छोड़कर अपने गाँव पनलावा आ गए।
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गाँव आने पर उन्हें पता चला कि उनकी धर्मपत्नी जोर कँवर गर्भवती है। आषाढ़ शुक्ला तृतीया, सम्वत् 1975 में श्री गाहड़सिंह जी को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। पुत्र स्वयं में विलक्षण था जन्म के बाद उसके ललाट पर एक लाल टीका था उसकी शारीरिक स्थिति एक सामान्य शिशु से अधिक थी एवं वह प्रायः शांत सोया रहता था।
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बालक की विलक्षणताओं को देखकर श्री गाहड़सिंह जी को मन में यह विश्वास हो गया कि उनके यहाँ संतान के रूप में उनके श्रद्धास्पद बाबाजी ने ही अवतार लिया है क्योंकि बाबाजी और बालक के रूप रंग तथा प्रकृति में अपूर्व समानता थी एवं बाबा जी के शरीर छोड़ने के लगभग नौ माह बाद इस बालक ने जन्म लिया था उन्होंने इसे बाबाजी के गाँव आने के वचन की परिणिति माना एवं उस दिव्य बालक का नामकरण ‘नारायण’ के रूप में हुआ।
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बालक नारायण जब मात्र आठ वर्ष का था तभी उसके पिता श्री गाहड़सिंह जी का निधन हो गया अकस्मात् हुए इस वज्रपात से परिवार के सभी सदस्य शोक विहवल थे किन्तु बालक नारायण शांत था। इतना ही नहीं इसने अपने बिलखते दादा श्री एवं माताश्री को भी शांत किया। इस घटना ने इनके पूर्वजन्म के संस्कारों से जुड़े वैराग्य को प्रगट किया।
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नारायण की माँ भक्तिमती थी उनकी श्री श्रीअमृतनाथ जी महाराज के चरणों में अपार श्रद्धा थी। श्री अमृतनाथ जी शेखावाटी क्षेत्र के महान् नाथ योगी एवं विलक्षण अवधूत थे। माँ किशोर बालक को धार्मिक उपदेश देती, संस्कारित करती एवं कहती ‘ईश्वर में विश्वास रखो और श्री नाथजी महाराज (अमृतनाथ जी) में श्रद्धा’। वे समझाती ‘‘बेटा भक्ति एवं प्रेम से भगवान प्रकट होता है और भीतर की आँखों से दिखाई देता है।’’
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बालक नारायण की जन्म भूमि पनलावा में एक मंदिर था जो गाँव की धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र था, जहाँ भजन कीर्तन, कथा वार्ता और सत्संग का क्रम चलता ही रहता था इन कथाओं के श्रवण और मनन से ही नारायण की शिक्षा पूर्ण हुई हनुमान चालीसा का पाठ इनका विशिष्ट दैनिक कृत्य था।
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बारह वर्ष की आयु में ही किशोर नारायण को पूर्व जन्म से अर्जित संस्कारों के फलस्वरूप संसार की असारता की गहराई से समझ हो चुकी थी वैराग्य की ओर अग्रसर होते हुए इन्होंने गृह त्याग कर मंदिर को अपना आवास बना लिया। इनके मन में किसी साधु गुरू को प्राप्त करने की अभीप्सा प्रबल होने लगी, एक रात इन्हें स्वप्न में एक दिव्य साधु के दर्शन हुए जिन्होंने इनका मार्ग प्रशस्त किया।
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मंदिर में निवास करते हुए युवा साधक नारायण के जीवन में भक्ति के उदय के साथ-साथ संतों का समागम भी होने लगा ‘‘सद्भिरासीत सततं सदिमः कुर्वीत संगतिम्’’(सदा सज्जनों के साथ रहना चाहिए, सज्जनों की ही संगति करनी चाहिए) के आदर्श पर नारायण (श्रद्धानाथजी) ने श्री नवानाथ, श्री शुभनाथ जी, श्री भानीनाथ जी, श्री गोविन्द नाथ जी, आदि के सत्संग का लाभ उठाते हुए स्वयं संत रूप ग्रहण किया-
‘‘यादृशैः सन्निवसति यादृशरंगश्चोप सेवते।
यादृगिच्छेच्च भवितुं तादृग्भवति पुरूषः।।’’
मनुष्य जिसके साथ रहता है, जिसकी सेवा करता है और जैसा होना चाहता है वैसा ही हो जाता है।
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शेखावाटी के प्रबुद्ध संतों का सत्संग करके नारायण को काफी शांति प्राप्त हुई और बहुत कुछ योग विषयक अभिज्ञता भी। लेकिन साथ ही देश के अन्यान्य सिद्ध क्षेत्रों के भ्रमण एवं वहाँ के संतों से सम्पर्क स्थापित करने की इच्छा से नारायण (श्रद्धानाथजी) ने सं. 2006 में तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान किया एवं द्वारिका होते हुए जूनागढ़ पहंुचे जहाँ 9999 सीढ़ियाँ चढ़ कर गिरनार पर्वत पहुँचे।
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गिरनार पर्वत पर दो दर्शनीय स्थान हैं भगवान श्री दत्रात्रेय जी की चरण पादुका एवं श्री गोरखनाथ जी का धूणा। इन दोनों को एक दूसरे का सान्निध्य तथा नैकट्य अपने जीवनकाल में उपलब्ध था। भगवानदत्तात्रेय नारायण स्वरूप थे और श्री गोरखनाथ शिवस्वरूप एवं समन्वित रूप में वे हरिहर रूप थे। युवा साधु नारायण धूणे के दर्शन कर अभिभूत हो उठे-
‘‘जले विष्णुः स्थले विष्णु विष्णुः पर्वत मस्तके।
ज्वालामाला कुले विष्णुः सर्वं विष्णुमयं जगत्।।’’
जल, स्थल, पर्वत के शिखरों और अग्नि की ज्वालाओं से घिरे स्थानों में सर्वत्र विष्णु व्याप्त है। यह सम्पूर्ण जगत विष्णुमय है।
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गिरनार पर्वत की दिव्य भूमि के दर्शन के बाद ये राजस्थान के पवित्र तीर्थराज पुष्कर की पावन भूमि पर पहंुचे। पुष्कर अजमेर के पास स्थित है यहाँ एक बहुत बड़ा प्राकृतिक जलाशय है। यहाँ ब्रह्मा जी का मंदिर है पुराणों के अनुसार यह तीर्थों का गुरू माना जाता है। भारत के पंचतीर्थों और पंचसरोवरों में इसकी गणना की जाती है इसके लिए कहा गया है:
‘‘दुष्करं पुष्करे गन्तुं, दुष्करं पुष्करे तपः।
दुष्करं पुष्करे दानं, वस्तुं चैव सुदुष्करम्।।’’
ऐसे तीर्थ की यात्रा से नारायण ने अपने आध्यात्मिक आधार को और सुदृढ़ किया।
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पुष्कर आदि की यात्रा के बाद इन्होंने कुछ समय अपने गाँव में अपनी कुटिया में व्यतीत किया और पुनः अपनी माता जी से आज्ञा लेकर तीर्थाटन को निकल पड़े इस बार वे हरिद्वार, ऋषिकेश, प्रयाग एवं बौधगया होते हुए कलकत्ता जा पहुँचे। जहाँ उन्होंने कलकत्ता की अधिष्ठात्री देवी महाकाली के दर्शन किए जो शव पर आरूढ़ है जो चार भुजाओं वाली हैं एवं जिनकी लाल जिह्वा बाहर निकली हुई है। शाक्त मतानुसार दस महादेवियों में से प्रथम महाकाली है इनके शक्तिमान अधीश्वर महाकाल रूद्र हैं।
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कलकत्ता से चलकर जगन्नाथपुरी होते हुए वे मद्रास होते सेतुबंध रामेश्वरम् पहुँचे। यह भारत वर्ष का अंतिम दक्षिणी छोर है जो समुद्र को स्पर्श करता है यहाँ का विशाल रामेश्वरम् मंदिर द्राविड़ शैली के मंदिरों मंे अग्रगण्य है। शिवपुराण के अनुसार भारत के द्वादश ज्योर्तिलिंगो में से एक यहाँ अवस्थित है नारायण ने अत्यन्त श्रद्धा भाव से शिव की पूजा अर्चना की।
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रामेश्वरम् से अनेक तीर्थस्थलों का दर्शन करते हुए नारायण (श्री श्रद्धानाथजी) नाथ द्वारा पहुँचे। मेवाड़ क्षेत्र का यह प्रसिद्ध वैष्णवतीर्थ वल्लभ सम्प्रदाय का प्रधान पीठ है वल्लभ का मार्ग भक्ति मार्ग है इस मतानुसार भक्ति ईश्वर की कृपा से मिलती है नारायण (श्री श्रद्धानाथजी) का भक्ति भाव भी ईश्वर के अनुग्रह से ही पुष्ट हुआ था और वे पूरी तरह ईश्वर के प्रेम में रंग गए थे।
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सत्य, ज्ञान, आनंदरूप परब्रह्म श्री कृष्ण के दर्शनों से कृत्यकृत्य हुए नारायण पुनः अपनी कुटिया पर आ पहुँचे उन्हें कुटिया में रहते हुए लगभग बारह वर्ष व्यतीत हो चुके थे एवं वे विधिवत् सन्यस्त होने को उन्मुख थे। इसी समय संवत् 2011 में श्री अमृत नाथ जी के शिष्य श्री ज्योतिनाथ जी महाराज ब्रह्मलीन हुए और उनके योग्य अधिकारी श्री शुभनाथ जी महाराज द्वारा पौष शुक्ला तृतीया को साधक नारायण का शिखा संस्कार करके विधिवत दीक्षा संस्कार किया गया।
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शिखा संस्कार के बाद नये आश्रम में प्रवेश पर इन्हें ‘श्रद्धानाथ’ संज्ञा से सुशोभित किया गया। विरल नारायण अब विधिवत् श्रद्धानाथ के रूप मंे नये अभिक्रम के प्रति उन्मुख हुए श्वेत वस्त्र अब भगवे वस्त्र में परिवर्तित हो गया इस अवसर पर गुरूदेव श्री शुभनाथ जी ने कहा-
‘‘नारायण से श्रद्धा, श्रद्धा से श्रद्धानाथ।
योगी बन कर साधना, श्रद्धा रखना साथ।।’’
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दीक्षा के बाद श्री श्रद्धानाथ जी, तपोनिष्ठ जीवनचर्या में संलग्न हो ब्रह्म की ज्योति को अपने अंदर अुनभव करने में लीन हो गए। अपने एकान्त साधना के क्षणों में उन्होंने आत्म साक्षात्कार में ब्रह्म का अनुभव किया-
‘‘ज्योतिरात्मनि नान्यत्र समं तत्सर्वजन्तुषु।
स्वयं च शक्यते द्रष्टुं सुसमाहितचेतसा।।’’
ब्रह्म की ज्योति अपने भीतर ही है, अन्यत्र नहीं वह समस्त जीवधारियों में एक समान है। मनुष्य चित्त को भली भांति शांत एवं स्थिर करके उसी से उसको देख सकता है।
‘‘अचिन्त्यं ब्रह्म निर्द्वन्द्वमैश्वरं हि बलं मम।
वह अनित्य, निर्द्वन्द्व, ऐश्वर्यवान ब्रह्म ही मेरा बल है।’’
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शेखावाटी जनपद के सिद्धयोगी श्री अमृतनाथ जी महाराज की परम्परा में साधक नारायण श्री श्रद्धानाथजी महाराज की संज्ञा से विभूषित हो समर्थ गुरू गोरख नाथ के योगमार्ग में दीक्षित हो गोरखनाथ के मार्ग पर अग्रसर होते हुए पुनः देशाटन हेतु निकल पड़े इस बार उन्होंने राजस्थान के शेखावाटी को भ्रमण का केन्द्र बनाया और फतेहपुर, रामगढ़, मण्डावा, झुन्झुनू, खेतड़ी, पिलानी, चिड़ावा, उदयपुर, लोहार्गल, सीकर, नवलगढ़, पोषाणी, मुकुन्दगढ़, सुजानगढ़, बीकानेर व कोलायत आदि स्थानों की यात्राएँ की।
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सम्वत् 2014 वैशाख शुक्ला तृतीया को (श्री श्रद्धानाथ जी महाराज) ने प्रेमनाथ तथा पूर्णनाथ दो साधुओं के साथ बद्रीनाथ के लिए प्रस्थान किया इस यात्रा का पहला पड़ाव हरिद्वार में रहा जहाँ भगवती सुरसरि ने विष्णु के चरणों से निकलकर शिव के जटाजूट में समाहित हो हरिहर को जोड़ दिया। तीर्थों के द्वार अर्थात् हरिद्वार में स्नान कर श्री श्रद्धानाथ जी ने प्रभु चरणों का बार-बार वंदन किया नमन किया।
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हरिद्वार से ऋषिकेश, देवप्रयाग, श्रीनगर, कीर्तिनगर होते हुए रूद्रप्रयाग पहंुँचे वहाँ अलकनन्दा में स्नान कर केदारनाथ शिव के दर्शन करते हुए बद्रीनाथ जा पहुँचे। भारत के उत्तर में हिमालय की शंृखलाओं में स्थित यह भारत के चार धामों में मुख्य तीर्थ है यहाँ शालग्राम शिला से बनी हुई चतुर्भुज ध्यान मुद्रा में बद्रीनारायण की मूर्ति है यहाँ वनतुलसी की माला, चने की कच्चीदाल, गिरी का गोला और मिश्री आदि का प्रसाद चढ़ाया जाता है। यहाँ शीतकुण्ड व तप्त कुण्ड़ दो कुण्ड है श्री श्रद्धानाथजी ने दोनों कुण्डों के स्नान का आनन्द लिया।
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श्रद्धानाथजी की यात्राओं एवं तीर्थांटनों का उपक्रम निरंतर चलता रहा इन्होंने औंकारनाथ कुरूक्षेत्र, मथुरा, उज्जैन, हरिद्वार आदि तीर्थस्थलों की पुनः पुनः यात्रा की इनकी अनेक यात्राओं में श्री बैजनाथ जी महाराज (वर्तमान पीठाधीश्वर) भी इनके साथ रहे दूर की लम्बी यात्राओं के बाद श्री श्रद्धानाथ जी नवलगढ़ या पोसाणी जाते थे और एक सप्ताह के विश्राम के उपरांत पुनः भ्रमणार्थ निकल जाते थे। शेखावाटी क्षेत्र में शायद ही कोई ऐसा गाँव या ढाणी होगी जहाँ श्रद्धानाथ जी नहीं गए। इन यात्राओं में उनके जीवन में कुछ घटनाएँ ऐसी भी घटीं जिन्हें अलौकिक कहा जा सकता है। जैसे कि एक बार लोहार्गल से नवलगढ़ जाते समय प्यास लगने पर एक कुएँ की जगत की ओर बढ़े तो एक खाजी ने इन्हें अपशब्द कहे ओर वे बिना पानी पिये वहाँ से चल दिए दूसरे ही दिन वह खाती कुएँ में गिर कर मर गया वह ही नहीं उसके परिवार के चार अन्य सदस्य भी एक-एक कर कुएँ में गिर कर मर गए बाद में परिवार की ओर से क्षमा मांगने पर यह क्रम रूका।
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महाराज श्री श्रद्धानाथ जी उच्च कोटि के संत थे, उनमंे परदुःख कातरता का भाव अपार था। किसी आर्त को देखकर वे तत्काल द्रवित हो जाते थे। परदुःख कातरता वश उन्होंने अनेक निःसंतान दम्पत्तियों को संतान सुख प्राप्त करने के आशीर्वाद दिए जो उनकी वाक्सिद्धि के कारण फलीभूत हुए एवं उनकी शरण में आये श्रद्धालुओं के जीवन सुख व आनंद से परिपूर्ण हुए।
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सम्वत 2028 में श्री श्रद्धानाथ जी महाराज रमते घूमते अमृताश्रम पहुँचे तो गुरूदेव श्री शुभनाथ जी महाराज ने उन्हें ‘नाथ जी’ के नाम से एक आश्रम बनाने की आज्ञा दी एवं इसके लिए लक्ष्मणगढ़ का चयन किया गया वहाँ तब तक कोई नाथाश्रम नहीं था। श्री अमृतानाथ जी के चरण कमलों द्वारा पवित्र इस भूमि पर गुरू की प्रेरणा से रामनवमी की शुभतिथि पर सम्वत 2029 तदनुसार 23 मार्च, 1972 ई. को आश्रम का शिलान्यास हुआ इस अवसर पर अनेकों महापुरूष उपस्थित थे।
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शिलान्यास के बाद श्री नाथ जी महाराज के पूजा मंदिर की स्थापना 28 मई, 1972 को एवं आश्रम की प्रतिष्ठा ओर उद्घाटन श्री अमृत आश्रम के महंत श्री हनुमाननाथ जी महाराज के कर कमलों द्वारा आषाढ़ शुक्ला सप्तमी संवत् 2029 तदनुसार 17 जुलाई, 1972 ई. को सम्पन्न हुए उनके साथ अनेक साधु एवं भक्त भी इस अवसर पर उपस्थित थे और इसके बाद आश्रम का निर्माण कार्य श्री श्रद्धानाथ जी के संकेतानुसार अबाधगति से चलता रहा और अप्रेल, 1977 ई. में सम्पन्न हुआ।
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आश्रम बनने के बाद श्री श्रद्धानाथ जी महाराज पहले गोरखपुर गये और बाद में दक्षिण भारत की यात्रा के निमित्त प्रस्थान किया सर्वप्रथम आंध्रप्रदेश में तिरूपति बालाजी के दर्शन किए वहाँ से मद्रास और वहाँ से पांडिचेरी गये और रामेश्वरम्, कन्याकुमारी, मदुराई मीनाक्षी मंदिर, शिवकांची व विष्णुकांची की यात्रा के बाद लक्ष्मणगढ़ लौट आये।
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अपनी यात्राओं विशेषरूप से राजस्थान की यात्राओं के दौरान श्रद्धानाथ जी जनसमूहों को भी सम्बोधित करते उन्हें सद्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते, विशेष रूप से उच्च जीवन मूल्यों को अपनाना, नित्य प्रार्थना, ईश्वर में विश्वास, प्राणिमात्र के प्रति सद्भावना, गुरूजनों के प्रति आदर रखना, नशाखोरी, जुआ, माँस, मदिरा से दूर रहना आदि सामाजिक जीवन से जुड़े पक्षों पर प्रकाश डालते। स्वयं भी अपरिग्रह से संयमित जीवन बिताते हुए अपने सेवकों के सम्मुख उच्च जीवन आदर्श प्रस्तुत करते।
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आश्रम के शिलान्यास के छः वर्ष बाद 15 अप्रेल, 1978 को आश्रम में श्री श्रद्धानाथ जी के द्वारा एक नाथ सम्मेलन का आयोजन किया गया इस अवसर पर नाथ सम्प्रदाय की बत्तीस घूणियों के महंत तथा साधक योगी उपस्थित थे। आगन्तुक संतों में प्रमुख श्री हनुमाननाथ जी, श्री चेताईनाथ जी, श्री रविनाथजी श्री प्रयागनाथ जी, श्री शेरनाथ जी, श्री बालकनाथ जी, श्री माननाथ जी, श्री मंगलनाथ जी, श्री सोमनाथ जी, श्री पूर्वनाथ जी, श्री विवेकनाथ जी एवं श्री शंकर नाथ जी आदि की उपस्थिति ने आश्रम के दृश्य एवं वातावरण को दिव्य एवं अलौकिक बना दिया।
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आश्रम निर्माण के बाद श्री श्रद्धानाथजी महाराज यथा शक्य आश्रम में रहने का प्रयत्न करते जिससे वे अपने गहस्थ सेवकों एवं भक्तों से तो मिले ही साथ ही आश्रम आने वाले साधु संतों का स्वागत सत्कार भी कर सकें। नाथ सम्मेलन में पधारे नाथ पंथ के साधु संतों की चरणरज से पवित्र भूमि 8 सितम्बर, 1978 को पुनः गौरवान्वित हुई इस दिन गोरखपुर के पीठाधीश्वर महंत श्री अवैद्यनाथ जी महाराज का शुभागमन लक्ष्मणगढ़ आश्रम में हुआ। महाराज श्री अवैधनाथ जी आश्रम के स्वरूप एवं व्यवस्था को देखकर अत्यधिक गद्गद हुए आश्रम में किए रात्रि विश्राम संबंधी अपने भावों को गोरखपुर पहंुचकर पत्र लिखकर अभिव्यक्त किया जो आश्रम की गरिमा को बढ़ाने वाले थे। उन्होंने लिखा ‘लक्ष्मणगढ़, आपके आश्रम में एक रात्रि का विश्राम यावत् जीवन स्मरण रहेगा।..........’’
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महंत श्री अवैद्यनाथ जी के बाद शीघ्र ही आश्रम की भूमि 29 अक्टूबर, 1978 को धर्म जगत् के सम्राट पूज्य श्री करपात्री जी महाराज की चरण रज से पवित्र हुई। स्वामी जी ने रात्रि विश्राम आश्रम में ही किया। तप और वैदुष्य के महान धनी स्वामी जी श्री श्रद्धानाथ जी के भावपूर्ण हार्दिक स्वागत से अभिभूत हुए आश्रम की शांतिमयता, स्वच्छता, शुद्धता एवं आलौकिकता एवं मुग्धकारी वातावरण की उन्होंने मुक्तकंठ से प्रशंसा की एवं पुनः आने का वायदा किया।
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आश्रम में निवास करते हुए श्रद्धानाथ जी महाराज की दिनचर्या भी अपने में आदर्श रही। नित्यकर्म से निवृत्त होकर मंगल आरती में भाग लेने के बाद सिद्ध गुरूओं को प्रणाम कर मंदिर के पास के पश्चिमी कक्ष में तख्त पर विराजमान हो सन्यासी, ब्रह्मचारी एवं गृहस्थ, सेवक व अन्य भक्त गणों का प्रणाम स्वीकार करते फिर सुबह की प्रार्थना के बाद पुनः दर्शनार्थियों से मिलते दोपहर एक समय अल्पाहार के बाद पुनः संध्याकाल तक बाहर खुले प्रांगण में बैठकर आगन्तुकों से मिलते बाद में संध्या आरती संध्या प्रार्थना आदि के कार्यक्रम होते और फिर रात्रि ध्यान एवं विश्राम के लिए अपने कक्ष में चले जाते यही चौबीस घंटों की उनकी दिनचर्या थी।
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आश्रम में आर्दश दिनचर्या का निर्वहन करते हुए श्रद्धानाथ जी का चंक्रमण भी चलता रहा कुछ दिन आश्रम में रहने के बाद वे पुनः रमने घूमने निकल जाते किन्तु धीरे-धीरे वे बाह्य जगत से उदासीन हो अपने अंतजर्गत् में अवस्थित होने लगे और स्वयं को लोक भार एवं दायित्वमुक्त करने हेतु उन्होंने अपने सर्वाधिक प्रिय शिष्य श्री बैजनाथ जी को जो उस समय ग्राम भारती विद्यालय के प्रधानाचार्य थे बुलाया एवं आश्रम की व्यवस्था संभालने का आदेश दिया एवं सार्वजनिक रूप से अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। 28 फरवरी 1985 को नाथ विधि के अनुसार बैजनाथ जी का दीक्षा संस्कार कर लक्ष्मणगढ़ आश्रम का पीठाधीश्वर नियुक्त किया।
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श्री बैजनाथ जी को अपना कार्यभार सौंपने के बाद अपूर्व निश्चिन्तता का अनुभव करते हुए श्री श्रद्धानाथ जी ने पुनः हरिद्वार की यात्रा की घोषणा कर दी। 4 जून, 1985 को हरिद्वार यात्रा के लिए प्रस्थान किया वहाँ हर की पौड़ी पर स्नान, गोरक्ष मंदिर का दर्शन एवं एक बृहद् साधु भण्डारे का आयोजन किया और पतित पावनी गंगा में स्नान का लाभ लेकर श्री श्रद्धानाथजी प्रसन्नमना व सेवक भारी मन से लक्ष्मणगढ़ लौटे।
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लक्ष्मणगढ़ पहुँच कर श्री श्रद्धानाथजी महाराज बहिर्जगत के प्रति उपरामता की आरे बढ़ गए धीरे-धीरे वे अपने को देहातीत करने लगे एवं उनका हंस रूपी जीव इस जगत को छोड़कर विदेही प्रभु और गुरू चरणों मंे अपने को समर्पित करने लगा श्रावण शुक्ला षष्ठी सं. 2042 तदनुसार 21 अगस्त, 1985 को ब्रह्ममुहूर्त में साढ़े तीन बजे अपने को गुरू चरणों में समर्पित कर वे ब्रह्मलीन हो गए। हंस अपने देश चला गया। पंच भूतात्मक शरीर यहीं रह गया।
नाथमत जो विश्व के प्राचीन मतों में से एक है, जिसके अंतर्गत महासिद्ध मत्स्येन्द्रनाथ, महायोगी गोरखनाथ भरथरीनाथ आदि अनेक महापुरूषों के नाम आते हैं। उसी परम्परा में योगीराज श्री अमृतनाथ जी श्री नवानाथ जी और श्री शुभनाथ जी थे इसी परम्परा में श्री श्रद्धानाथ जी महाराज का नाम जुड़ा। वस्तुतः श्री श्रद्धानाथ जी महाराज महायोगियों की शंृखला में आधुनिक युग की एक कड़ी थे। वे पुरातन और नूतन दोनों युगों में सफलतापूर्व जीते थे। पूज्य श्री श्रद्धानाथजी महाराज संत नहीं, सहज संत थे।