नर से नारायण ।। श्रद्धा से श्रद्धानाथ
अपना भारत ही वह देश है जहाँ पर नर से नारायण बनने की संभावना को मूर्त रूप दिया जाता रहा है। अन्य देशों के लोगों ने मनुष्य की श्रेष्ठता को वैज्ञानिक प्रयोगों, यांत्रिक आविष्कारों के द्वारा प्रमाणित किया है परन्तु भारतवर्ष के योगियों ने ही मानवता को यह बताया है कि वैज्ञानिक यंत्र केवल इस मृत्यु लोक में भौतिक सुख ही दे सकते हैं, जीवन तो मृत्यु के बाद भी है अतः मनुष्य को अस्थायी सुख के बजाय शाश्वत सुख प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। इसके लिए अत्यन्त प्राचीनकाल में तो भारत के ऋषि-मुनियों ने अपने जप-तप एवं क्रिया योग के द्वारा सिद्धियाँ प्राप्त की ही थीं, इस विज्ञान प्रधान घोर कलियुग में भी यहाँ संतों ने अपने गुरू निर्देशित जप-तप के योग मार्ग को अंगीकार कर नर से नारायण बनकर दिखाया है और उस प्राप्त नारायणत्व के द्वारा असंख्य पीड़ितजनों के संकट काटे हैं। श्री श्रद्धानाथजी महाराज भी ऐसे ही एक महान योगी, जनकल्याणकारी सिद्ध संत थे।
भारतीय सनातन हिन्दू धर्म का आधार पुनर्जन्म एवं पूर्वजन्म है। श्रीमद्भगवद्गीता एवं रामायण में अनेक स्थानों पर पूर्व जन्म एवं पुनर्जन्म को प्रमाणित किया गया है-
‘‘बहूनि में व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।’’
श्री भगवान बोले-हे परंतप अर्जुन। मेरे और तेरे बहुत से जनम हो चुके हैं। उन सबको तू नहीं जानता किन्तु मैं जानता हूँ। (गीता अध्याय 4 श्लोक 5)।
‘‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुर्वं जनम मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।’’
अर्थात् जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म भी तय है। यहाँ पुनर्जन्म का उल्लेख इसलिए किया जा रहा है क्योंकि श्री श्रद्धानाथजी महाराज के बारे में यह बात सर्वविदित हो चुकी थी कि वे पिछले कई जन्मों के संत थे। ठीक पिछले जन्म में वे झेलम नदी के किनारे स्थित आश्रम में तपस्यारत श्री लाल तिलकधारी बाबा थे। उन तिलकधारी बाबा ने ही श्री श्रद्धानाथजी के रूप में अवतरण किया था। विक्रम संवत् 1975 आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को उनका जन्म राजस्थान के सीकर जिले की लक्ष्मणगढ़ तहसील के ग्राम पनवाला में हुआ था। उन्होंने बचपन में ही गृह त्याग कर जप-तप एवं योग का मार्ग अपना लिया था। कारण कि उन्हें अपने पिछले जन्म की योग साधना को जारी रखकर उसे आगे बढ़ाना था। इस संबंध में गीता कहती है-
‘‘अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्।।
तत्रं तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्व देहिकम्।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरूनन्दन।।’’ (गीता अ. 6 श्लोक 42, 43)
अर्थात् पूर्व जन्म में भगवान की प्राप्ति हेतु प्रयास करने वाला योगी पुरूष अगले जन्म में ज्ञानवान् योगियों के कुल में जन्मता है। इस प्रकार का जन्म संसार में दुर्लभ है। वहाँ जन्म लेकर वह उस पहले शरीर में संग्रह किए हुए बुद्धि संयोग को अर्थात् समबुद्धि योग के संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो जाता है और उसके प्रभाव से वह फिर परमात्मा की प्राप्ति रूपी सिद्धि के लिए पहले से भी बढ़कर प्रयत्न करता है।
इसी प्रकार श्री श्रद्धानाथ जी महाराज भी बाल्यकाल में ही घर छोड़कर जप-तप, योग के मार्ग पर चल पड़े थे। अपनी अगाध श्रद्धा, अटूट लगन और दृढ़ निश्चय के दम पर वे आगे बढ़ते गए। सिद्ध संतों, महान् योगियों के सान्निध्य में उन्हांेने योग के गूढ़ तत्वों को जाना, सीखा और जीवन में उतारा। उन्होंने विधिवत संन्यास तो लिया था करीब 36 वर्ष की उम्र में पौष शुक्ल त्रयोदशी विक्रम संवत् 2011 को किन्तु इससे पूर्व ही उन्होंने तमाम योग सिद्धियाँ प्राप्त कर ली थी। प्राप्त योग विभूतियों के द्वारा वे शरणागत भक्तों के कष्ट दूर कर देते थे। संन्यास से पूर्व उनका सांसारिक नाम नारायण था। संन्यास की विधिवत दीक्षा देने के बाद उनके गुरू ने उनसे कहा था।-
‘‘नारायण से श्रद्धा, श्रद्धा से श्रद्धानाथ।
|योगी बनकर साधना, श्रद्धा रखना साथ।’’
अर्थात् नारायण नामधारी व्यक्ति ने सदगुरू और ईश्वर में अगाध श्रद्धा के कारण ही श्रद्धानाथ का रूप धारण किया है और अब योग साधना एवं श्रद्धा के मार्ग पर सदैव ही कायम रहना है। श्री श्रद्धानाथ जी महाराज ने अपने गुरू के इन वचनों का सदैव ही पालन किया और श्रद्धाभाव के दम पर महानता के सर्वोच्च शिखर तक पहुंचे। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं-
‘‘श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।’’
अर्थात् श्रद्धावान् व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त होता है और वह श्रद्धावान व्यक्ति जितेन्द्रियता एवं साधना की तत्परता के द्वारा ज्ञान को प्राप्त होकर बिना विलम्ब के तत्काल ही भगवद्प्राप्ति रूप परम शांति को प्राप्त हो जाता है। श्रद्धा का बड़ा भारी महत्व बताया गया है। गीता का उपदेश देकर श्रीकृष्ण ने कहा है कि जो कुछ मैंने कहा है, उसे श्रद्धापूर्ण हृदय से ग्रहण करने वाला मनुष्य समस्त कर्मबंधनों से मुक्त हो जाता है। अक्सर लोग श्रद्धा और विश्वास को एक ही मानते हैं परन्तु ये अलग-अलग भाव है। भीतर के अविश्वास को दबाने के लिए जो साधन किया जाता है, वह विश्वास है और मनुष्यों में आप देख सकते हैं कि विश्वास के साथ थोड़ा बहुत अविश्वास मौजूद रहता है, परन्तु श्रद्धा का अर्थ है अविश्वास का समूल नष्ट हो जाना। ईश्वर में विश्वास रखने वाला मनुष्य तो ईश्वर पर कुछ अविश्वास भी करता है किन्तु ईश्वर के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो जाए तब अविश्वास अंश मात्र भी नहीं रहता। विश्वास कभी भी टूटकर अविश्वास में बदल सकता है लेकिन श्रद्धा न तो टूट सकती है अैर न ही कम हो सकती है। हाँ, वह प्रगाढ़ से प्रगाढ़तम हो सकती है जैसे श्री रामकृष्ण परमहंस में हो गई थी। वे माँ काली के नाम के उच्चारण मात्र से ही भाव समाधि में लीन हो जाते थे। ऐसे ही श्री श्रद्धानाथ जी महाराज के नेत्रों में अपने गुरूओं के स्मरण से ही आँसू भर आते थे। उनकी तो नस-नस में श्रद्धा इस हद तक रच बस गई थी कि हे ईश्वर! तू ही है सब कुछ, तू जाने, तेरा काम जाने, चाहे जैसे रख, तेरी हर इच्छा स्वीकार है। मैं हूँ ही नहीं, केवल तू ही है। वे कहते थे कि अपने अस्तित्व को ईश्वर में विलीन कर दो। अपने अहंकार का ईश्वर रूपी महासागर में विसर्जन कर दो। अपने अहंकार, भ्रम, भय, संशय को मार डालो, इस प्रकार जीते जी मर जाओ। मरो हे जोगी मरो, मरो मरण है, मीठा, तिस मरणि मरो, जिस मरणी मरे गोरख दीठा। मीरा, द्रोपदी, शबरी, सूरदास....... ये सब श्रद्धा के ही प्रतीक बन गए थे। ऐसे ही श्री श्रद्धानाथ जी महाराज तो विलीन होते होते स्वयं श्रद्धा ही बन गए थे। हाँ! श्रद्धा ही बन गए थे। श्रद्धा का अर्थ है ईश्वर के प्रति हृदय की समग्रता, सम्पूर्णता।
विश्वास और अविश्वास के बीच तो तर्क-वितर्क चलते हैं परन्तु सारे तर्क जब रीत जाते हैं, चुक जाते हैं, थककर चूर-चूर हो जाते हैं तब श्रद्धा उत्पन्न होती है। जैसे भीषण गर्मी के कुछ माह बीतते-बीतते जब जन जीवन त्राहि त्राहि कर उठता है तब नजरें और दोनों हाथ आसमान की तरफ उठ जाते हैं। हे प्रभो, कुछ कर और तब आसमान से कृपा पानी बनकर बरसती है। ईश्वर को हमसे कुछ नहीं चाहिए, केवल समर्पण चाहिए, केवल श्रद्धा चाहिए। वे चाहते हैं कि एक बार उनका अंश यह प्राणी कातर भाव से, असहाय बन कर हृदय की गहराइयों से उन्हें पुकार ले। पद, सत्ता धन आदि का दम्भ रहते ईश्वर मदद के लिए नहीं आते। वे आते हैं, असहाय, श्रद्धावान भक्त के लिए। द्रोपदी को अपने पाँचों पतियों की शक्ति पर विश्वास था, उसे भीष्म पितामह पर भी विश्वास था कि ये लोग उसे दुःशासन के हाथों से बचा लेंगे........परन्तु उसका विश्वास चूर-चूर हो गया। वह हर तरह से असहाय हो गई। तब उत्पन्न हुई श्रद्धा और तब आने में एक क्षण की भी देरी नहीं की भगवान श्री
कृष्ण ने। गजेन्द्र को भी अपनी शारीरिक शक्ति और परिवार पर विश्वास था, गर्व था, परन्तु जब ग्राह(मगरमच्छ) ने नदी के किनारे पर उसका पैर पकड़ लिया और शारीरिक बल, उसके परिवार का बल सब थक कर चूर्ण हो गए, पूरी तरह से वह असहाय हो गया तब हृदय में उत्पन्न हुई श्रद्धा और उसने कातर भाव से भगवान को पुकारा। तब आने में कहाँ देर की थी भगवान ने।
असहाय में श्रद्धा उत्पन्न होती है। जिस क्षण भक्त अपने को पूरी तरह असहाय समझकर ईश्वर के हाथों में सौंप देता है इस भाव के साथ कि ‘‘अब मुझसे कुछ नहीं हो पाएगा। मेरे प्रयासों से मैं तुझ तक नहंी पहुँच पाऊँगा, मेरे प्रयासों की एक सीमा है जो तुझ असीम तक नहीं पहुँचा सकती। बस अब संभाल ले प्रभु। सब तरफ से हारा हुआ, थका हुआ व्यक्ति ही सच्ची श्रद्धा से भगवान के चरणों में गिरता है। हृदय में समग्र भाव जग जाए कि सब कुछ परमात्मा ही है, इसी अनुभूति का नाम श्रद्धा है और श्रद्धा में गलती नहीं हो सकती क्योंकि हमने सब कुछ उस प्रभु पर छोड़ दिया है।’’
श्रद्धा और रहस्य का भी आपस में गहरा संबंध है, जिसे यह जीवन और यह सृष्टि रहस्य की तरह लगने लगे वही व्यक्ति ईश्वर प्राप्ति की राह में आगे बढ़ता है। ऐसे महान व्यक्ति के बारे में देखिये गीता में क्या लिखा है। गीता के दूसरे अध्याय के 29 वें श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं-
‘‘आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन, माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शंृणोति, श्रुत्वाप्येनं, वेद न चैव कश्चित।।’’
अर्थात् कोई एक महापुरूष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भांति देखता है और वैसे ही कोई दूसरा महापुरूष ही इसके तत्व का आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है और दूसरा कोई अधिकारी पुरूष ही इसे आश्चर्य की भाँति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसे नहीं जान पाता।
श्री कृष्ण कहते हैं वह महान् श्रद्धावान व्यक्ति जिसे यह आत्मा, यह जीवन, यह सृष्टि रहस्य की तरह लगे, वह मेरी शरण में पूरी तरह आ जाता है, आधा अधूरा नहीं। ऐसे सम्पूर्ण समर्पित व्यक्ति को मैं भी तुरन्त अपना लेता हूँ। श्री श्रद्धानाथजी महाराज भी ऐसे ही सम्पूर्ण समर्पित संत थे।
श्री श्रद्धानाथजी महाराज ने साधारण आर्थिक स्थिति वाले परिवार में जन्म लिया, अभावों और निर्धनता के बीच रहे किन्तु उनके समर्पण भाव, लगन में र्काइे कमी नहीं आई। मंजिल पर पहुंचकर ही दम लिया।
साधनों की कमी एवं कठिन परिस्थितियाँ कभी व्यक्ति की राह नहीं रोक सकती यदि व्यक्ति में सच्ची लगन और दृढ़ निश्चय हो। हमारे देश में तो ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं कि अत्यन्त साधारण परिवारों में जन्म लेकर भी लोग विभिन्न क्षेत्रों में महानता के शिखर तक पहुंचे। स्वतंत्रता सेनानी एव ंपूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री, दीनदयाल उपाध्याय जैसे अनेक नेता, रामृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, कबीरजी, रैदासजी जैसे संत, डॉ. अब्दुल कलाम जैसे वैज्ञानिक आदि का बचपन अभावों एवं कठिन परिस्थितियों में गुजरा परन्तु बाद में संसार ने प्रत्यक्ष देखा कि ये लोग अपने-अपने क्षेत्रों के महान् पुरूष बने। श्री श्रद्धानाथ जी महाराज भी एक ऐसे ही गुदड़ी के लाल थे। जब ये मात्र 8 वर्ष के थे तभी इनके पिता का निधन हो गया, जिसके कारण परिवार की आर्थिक स्थिति बिगड़ गई किन्तु दृढ़ निश्चय के धनी बालक ने ईश्वर भक्ति, साधना का मार्ग नहीं छोड़ा और योग की गूढ़तम क्रियाओं का ज्ञान अर्जन व क्रियान्वयन करते रहे। करीब 36 वर्ष तपस्या की। अंततः ईश्वरीय शक्ति का साक्षात्कार करने के बाद अपने आपको पूरी तरह जनकल्याण में झोंक दिया। विशेषकर नई पीढ़ी को सुसंस्कार देने हेतु आप विद्यालयों, छात्रावासों में जाते और विद्यार्थी वर्ग में सुसंस्कारों का बीजारोपण करते। इनकी बातों का, उपदेशों का प्रभाव भी बहुत पड़ता था। आज के इस नैतिक पतन के दौर में भी शेखावाटी में जो आध्यात्मिकता, निष्ठा, धार्मिकता नजर आती है उसकी स्थापना में श्री श्रद्धानाथ जी महाराज का बहुत बड़ा योगदान है। इनके द्वारा जनकल्याण का मानो एक महाभियान सा ही चलता था। एक तरफ नई पीढ़ी में सुसंस्कारों का बीजारोपण तो दूसरी तरफ संसार के ताप, कष्टों से पीड़ित लोगों का कष्ट निवारण। अपनी सिद्धियों के प्रचार प्रसार से दूर पूर्ण निर्लिप्त भााव से आप दीन दुखियों का कष्ट निवारण करते रहे। उनके शरीर त्याग के 27 वर्ष बाद भी उनकी समाधि पर कृतज्ञ भाव से आने वाले भक्तों की संख्या हजारों में है।
श्री श्रद्धानाथ जी महाराज द्वारा समाज को दिया गया योगदान अतुलनीय है। उन्होंने नाथ पंथ एवं योगमार्ग को लेकर जनमानस में फैली भ्रांतियों को दूर किया, आडम्बर पाखण्ड के प्रति लोगों को सचेत किया। यही कारण रहा कि उच्च शिक्षित वर्ग भी उनके सान्निध्य में बहुत बड़ी संख्या में जुड़ा। उनके शरणागत भक्तों में एक तरफ अनपढ़, अल्पशिक्षित, गरीब, सर्वहारा लोग थे, तो दूसरी तरफ उच्च शिक्षित वर्ग के अध्यापक, व्याख्याता, डॉक्टर, वैज्ञानिक, पत्रकार, वकील, पुलिस एवं प्रशासन के उच्चाधिकारी, व्यापारी, उद्योगपति, साहित्यकार आदि भी थे। विलक्षण बात यह थी कि इन सभी के साथ उनका व्यवहार समानता का रहता था। वे आगन्तुक की श्रद्धा से ही उसका आकलन कर तदनुरूप उससे व्यवहार करते थे न कि उसके पद व भौतिक अस्तित्व के कारण। वे प्रेम, दया, करूणा, समाभाव की साकार प्रतिमा थे।
श्री श्रद्धानाथ जी महाराज का व्यक्तित्व बहु आयामी था। त्यागवृत्ति इस हद तक थी कि अपने जीवन में कभी मुद्रा का स्पर्श भी नहीं किया। कई वर्षों तक पूरे भारत में रमण-भ्रमण किया, शेखावाटी में भी गाँव-गाँव, कस्बे-कस्बे घूमे परन्तु कभी रूपये, पैसे साथ नहीं रखे और न कभी किसी से मांगे।
हमारे देश में शैव-वैष्णव मतानुयाइयों में अक्सर मतभेद देखे गए हैं। आज भी अनेक लोग शिव और विष्णु में भेद समझते हैं परन्तु श्री श्रद्धानाथजी महाराज ने इस भ्रांति को भी अपने आचरण, व्यवहार एवं शास्त्र सम्मत प्रमाणों के द्वारा दूर किया था। वे शिव और विष्णु को एक ही मानते थे। नाथ पंथ के योगी होने के कारण जाहिर सी बात हे कि वे शैव थे किनतु उन्हांेने द्वारका में वैष्णव मत के अनुयायियों को लगाई जाने वाली शंख, चक्र, गदा, पद्म की छाप भी लगवाई थी। यह चैत्र शुक्ल पूर्णिमा संवत् 2008 की बात है। इससे साबित होता है कि वे परम-सत्ता को एक ही मानते थे। उनके उदार एवं यथार्थवादी दृष्टिकोण का एक प्रमुख कारण यह भी था कि इस जन्म के श्री श्रद्धानाथ जी महाराज पूर्व जन्म के वैष्णव संत लाल तिलकधारी बाबा थे। शैव मत के नाथ योगी श्रद्धानाथ जी को रामजी का चरित्र सर्वाधिक प्रिय था और उनके द्वारा गाई जाने वाली प्रार्थना में दो बार श्रीराम का नाम आता है। ऐसे महान् समन्वयवादी संत श्रद्धानाथ जी के कारण हजारों लोगों की यह भ्रांति दूर हो गई कि शिव और विष्णु में कोई भेद है।
आम आदमी को वे धर्म एवं योग के बारे में इतने सरल तरीके से समझाते थे कि गूढ़ से गूढ़ तत्व भी सहज ही समझ में आ जाता था। एक बहुत बड़े साहित्यकार एक बार अपनी परेशानी लेकर श्री श्रद्धानाथजी महाराज के पास आए। उनकी बात सुनकर स्मित हास्य के साथ महाराज ने दो उदाहरण दिए। उन्होंने कहा कि चील जब उड़ना शुरू करती है तो उसे अपने पंख फड़फड़ाने में बहुत ताकत लगानी पड़ती है। लगातार पंख हिलाते रहना होता है परन्तु ऊँचाई पर पहुँचने के बाद वह आराम से पंख फैलाए हवा में तैरती रहती है। ऐसे ही जब कनखा(पतंग) उड़ाना शुरू करते हैं तो बहुत जोर आता है। ठिमकियां लगानी पड़ती हैं, कभी डोर खींचो, कभी ढील दो परन्तु वहीं पतंग जब आकाश की ऊँचाई तक पहुंच जाती है तब अंगुली के इशारे पर ही टिकी रहती है। फिर महाराज ने कहा कि इसी प्रकार आपके द्वन्द्व, चिन्ता, तनाव भी इस नए काम को लेकर सिर्फ शुरूआत में ही हैं। थोड़े समय पश्चात् स्वतः ही सब कुछ शांति से संचालित होने लगेगा। महाराज के इन सरल उदाहरणों से न केवल उन साहित्यकार महोदय बल्कि वहाँ मौजूद सभी लोगों का मन प्रसन्न हो गया। महाराज की सरल शैली ने सबका दिल जीत लिया।
संतों में कई प्रकार के संत होते हैं, इन्हीं में से एक होते हैं आत्म कल्याणी और दूसरे आत्मकल्याणी के साथ-साथ जनकल्याणी भी। आत्मकल्याणी वे जो अपनी तपस्या से अर्जित विभूति (सिद्धि) का उपयोग केवल स्वयं के कल्याण में करते हैं। श्री श्रद्धानाथ जी आत्मकल्याणी के साथ-साथ जनकल्याणी भी थे। उन्होंने जप-तप योग के द्वारा अर्जित सिद्धियों की सम्पदा को मुक्त भाव से लोगों के कष्ट हरण, संकट निवारण में खर्च किया। अतः इसी से उनकी महानता, उदारता, करूणा का पता चलता है।
भारतीय सिद्ध संतों की योग विभूति(सिद्धियों) को लेकर न केवल भारत में श्रद्धा रही है बल्कि विदेशी पत्रकारों, विद्वानों एवं अन्य जिज्ञासु लोगों में भी भारी कौतूहल रहा है। श्रीमद्भगवद् गीता का 10वाँ अध्याय ईश्वरीय योग विभूति के बारे में सब कुछ कह देता है। विभूति योग नामक इस अध्याय में अपनी योग विभूति के बारे में अर्जुन को बताने के बाद अंतिम (42 वें) श्लोक में श्री कृष्ण एक बड़ी महत्वपूर्ण बात कहते हैं-
"अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्यासमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत।।’’
अर्थात् श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! मेरे बारे में (मेरी योग विभूति के बारे में) बहुत ज्यादा ज्यादा जानने से मेरा क्या प्रयोजन है। मैं इस सम्पूर्ण जगत को अपनी योग शक्ति के एक अंश मात्र से धारण कर के स्थित हूँ। श्रीकृष्ण के इस कथन से प्रकृति का एक बहुत बड़ा रहस्य तो उद्घाटित होता ही है, साथ ही ईश्वर की अनूठी और असीम योग शक्ति के बारे में भी पता चलता है। संतों की योग विभूति वास्तव में ईश्वर की ही योग विभूति है। जप-तप, आस्था, श्रद्धा, भक्ति एवं योग की विभिन्न क्रियाओं के लम्बे अभ्यास के द्वारा संत ईश्वर के सीधे सम्पर्क में आ जाते हैं और एक तरह से वे ईश्वर के ही प्रतिरूप बन जाते हैं। यहाँ तक कि जो कार्य ईश्वर कर सकते हैं, वही कार्य सिद्ध योगी संत भी कर सकते हैं परन्तु संत ईश्वर के बनाए विधि के विधान में दखल नहीं देते क्योंकि ‘कर्म प्रधान विश्व रचि राखा, जो जस करहि, सो तस फल चाखा’ अर्थात् प्रभु ने विश्व की रचना में कर्म की प्रधानता रखी है और जो जैसा कर्म
करता वह वैसा ही कहा है कि शरणागत को मैं कभी ठुकराता नहीं लेकिन शरणागत होने के साथ ही वह मनुष्य यह भी विचार करे कि उसके किन बुरे कर्मों के कारण संकट आया है और भविष्य में ऐसे बुरे कर्म न कर के वह अब करने योग्य कर्म ही करेगा। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि संकट, रोग आदि स्थिति में मनुष्य को अपने दोषांें और पापों पर विचार करना चाहिए।
ठीक इसी प्रकार श्री श्रद्धानाथ जी महाराज ने भी कभी किसी शरणागत को ठुकराया नहीं, अपनी तपस्या खर्च करके वे शरणागत का कष्ट दूर करते थे परन्तु साथ ही वे यह भी कहते थे कि भविष्य में बुरे कामों से तौबा कर लो। वे कहते थे कि हमें पतित से पतित व्यक्ति भी शरण में आने पर स्वीकार है बशर्तें वह आत्म सुधार की राह पर चले। गीता में श्रीकृष्ण ठीक यही बात कहते हैं.........
‘‘अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।
सर्वे ज्ञानप्लनैव वृजिनं संतरिष्यसि।।’’ (गीता 4,36)
इस श्लोक सहित गीता में अन्य कई स्थानों पर भी श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कहा है कि कोई मनुष्य यदि कोई अन्य सभी पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है तो भी मेरी शरण में आने पर में उसे अपनाता हूँ। ज्ञान रूप नौका द्वारा पाप समुद्र से उसे पार कर देता हूँ। इसी तरह श्री श्रद्धानाथ जी महाराज ने भी हजारों-हजारों लोगों के संकट निवारण तो किए ही, साथ ही उन लोगों को आत्म सुधार की राह पर भी डाला जो एक महान कार्य तो है ही, सृष्टि, देश, समाज एवं मानता की सेवा भी है। वे परमार्थ, परोपकार के लिए ही आए थे। कहा भी है कि-
‘‘तरूवर फल नहीं खात है, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारणै, साधु धर्यो शरीर।।’’
वैचारिक दृष्टि से बाबाजी महाराज पुरातन एवं अर्वाचीन के अद्भुत संगम थे। वे भारतीय संस्कृति एवं आदर्शों के संतोषक एवं समर्थक भी थे तो वैज्ञानिक संदर्भ में भी अपने विचारों को प्रस्तुत करते थे। आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों की दृष्टि से बाबाजी महाराज का सोच गोरखनाथजी के युग का था तो वैज्ञानिक चिंतन में वे बीसवीं शताब्दी से जुड़े हुए थे। बाबाजी महाराज का मस्तिष्क नव-विचारों के लिए सदैव खुला रहता था। रूढ़िवाद के स्थान पर बाबाजी महाराज हर समस्या को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सोचते थे। बाबाजी महाराज विचारों से प्रगतिशील थे। कभी-कभी अखबार नवीसों से भी कहा करते थे, ‘अखबारों में ऐसी बातें लिखा करो कि हम पश्चिम से ज्ञान-विज्ञान तो सीख लें, धन भी ले आएँ, पर वहाँ का आचरण हमारे में न लाएँ। इससे बड़ा गड़बड़ हो रहा है। आध्यात्मिक चेतना के साथ भौतिक खुशहाली भी लोगों में आए ऐसा बाबाजी महाराज मानते थे क्योंकि वे दीन-दुःखी लोगों के समर्थक थे और एक मायने में उनके अधिक समर्थक थे उन्हें गरीब में सरलता और निष्कपटता अधिक दिखाई देती थी।’
वे कर्म प्रधान जीवन को मनुष्य के पुरूषार्थ का आवश्यक अंग मानते थे। यही कारण है कि कामचोर या कर्मरहित व्यक्ति उन्हें पसंद नहीं था। ऐसे व्यक्ति को वे अपने सम्पर्क में भी नहीं रखना चाहते थे। बाबाजी महाराज कहते थे मुझे ठाला(निष्क्रिय) व्यक्ति अच्छा नहीं लगता।
बाबाजी महाराज अपने सेवकों को भी निरन्तर यही कहते रहते थे कि जहाँ भी कार्य करो-कर्त्तव्यपालन और ईमानदारी व्यक्ति का पहला गुण होना चाहिए।
सदानन्द स्वरूप:
बाबाजी महाराज सद्गुणों के भण्डार थे। उनके जिस गुण की ओर लोग सर्वाधिक आकृष्ट हुए, वह था उनका सदानन्द स्वरूप। वे सदा आनन्दचित्त रहते। उनके श्यामल मुखारविंद पर आनंद की छवि छाई रहती। शांत निर्मल नेत्रों से आनन्द झरता रहता। विरक्त होते हुए भी वे उदासीन नहीं रहे। त्यागी होते हुए भी उन्होंने किसी की उपेक्षा नहीं की। प्रत्येक व्यक्ति को वे प्रेम की दृष्टि से देखते, प्रत्येक में वे रूचि दिखाते। सभी से सुख-दुःख की बात पूछते। उन्होंने कभी किसी से नफरत नहीं की, किसी के प्रति कटुवचन नहीं कहा। बाबाजी महाराज के जीवन में अद्भुत समरसता थी। प्राणी मात्र के प्रति उनके हृदय में अगाध स्नेह था। वे दुराव-छिपाव एवं परायेपन से ऊपर उठे हुए थे। उनका हृदय बच्चों की तरह सरल, निष्कपट और निर्मल था। यही कारण है कि श्रद्धालु, उनकी तरफ खिंचें आते थे और उनका चंद क्षणों का सानिध्य उनके जीवन की अविस्मरणीय स्मृति बन जाती थी। फिर जहाँ जाते, चर्चा करते और लक्ष्मणगढ़ का प्रसंग आता तो वे गौरव
महसूस करते बाबाजी महाराज के सानिध्य में बिताए क्षणों के कारण।
प्रायः धार्मिक स्थलों, आश्रमों और मठों में धनवान और विद्वान व्यक्तियों का अधिक आदरभाव होता है। इनमें भी पहला स्थान धनवान का होता है क्योंकि ऐसे स्थानों पर वैभव-प्रदर्शन और ज्ञान प्रदर्शन की होड़ लगी रहती है।
अतः गरीब सामान्य शिक्षित और सद्गृहस्थ का तो कोई ख्याल ही नहीं किया जाता। लेकिन एक आत्मवान त्यागी-तपस्वी महापुरूष के पुण्य प्रताप से बना लक्ष्मणगढ़ का श्री श्रद्धानाथजी महाराज का आश्रम अपने आप में निराला है। जहाँ गरीब और अमीर भी, तो शिक्षित एवं विद्वान भी-सब आते रहे हैं लेकिन बाबाजी महाराज में सभी को समान आदर दिया। उनकी दृष्टि में किसान, मजदूर और विद्वान सब बराबर थे। इस दृष्टि से थोड़ा और गहराई से विचार करें तो इस आश्रम में धनवान को विशेष स्थान नहीं था। यह सब बाबाजी महाराज के महान् त्याग और मानव मात्र के प्रति सहज प्रेम का परिचायक है।
बाबाजी महाराज का समत्व भाव अपने आप में एक सर्वोपरि गुण था। उनकी दृष्टि में बड़े से बड़ा सेठ-साहूकार और एक गरीब व्यक्ति, दोनों बराबर थे। दोनों को समान प्रेम और आदर मिले, यह समदृष्टि बाबाजी महाराज की थी। बाबाजी महाराज का व्यक्तित्व विराट एवं महान था इसलिए जो उनके सामने आया, चाहे वह धनवान हो, चाहे ऊँचा पदाधिकारी या उच्च कोटि का विद्वान, उसने अपने को बौना महसूस किया। लेकिन बाबाजी महाराज ने सबको बराबर स्नेह दिया। आपका परिष्कृत लोक व्यवहार अनुकरणीय था।
फोटोगैलेरी