मरना जानो 

गोरखनाथजी महाराज की साधना का मूल स्वर क्या है ? इसी का विवेचन जो गोरखवाणी की कुछ पंक्तियों पर आधृत है, मेरी आज की अभिव्यक्ति का विषय है पंक्तियां हैं-
मेरौ वे जोगी मरौ, मरौ मरण है मीठा।
तिस मरणी मरौ जिस मरणी गोरख मरि दीठा।

मनुष्य जीता है अंहकार में। अंहकार आवरण है आत्मा नहीं। अंहकार हमारा यथार्थ नहीं, हमारा अभिनय है। जैसे रामलीला में कोई राम बने तो वह राम नहीं हो जाता, ऐसे ही हम कुछ बन गये हैं, जो हम नहीं है। एक बड़ी रामलीला चल रही है। जन्में थे कोई नाम लेकर नहीं आए थे, फिर एक नाम मिल गया हमें, फिर वही नाम बन गए हमें जन्में थे तो कुछ ज्ञान लेकर न आए थे, फिर सिखाया गया,पढ़ाया गया, विद्यालय गए। फिर बहुत से विचार हमारी स्मृति में डाले गए। फिर हम भी सोचने लग गए-यह मेरा ज्ञान है। इसमें तुम्हारा कुछ भी नहीं, सब उधार है। न नाम तुम्हारा है, न ज्ञान तुम्हारा है। किसी ने कहा- तुम ज्ञानी हो। तो तुम अपने को ज्ञानी मान बैठे। किसी ने तुम्हारी प्रशंसा कर दी तो तुम आनंदित हो गए। किसी ने निंदा की तो चोट खा गए। तुम्हारा पूरा निर्माण दूसरों के हाथों का निर्माण है। तुम्हारे सभी रंग दूसरों की तुलिका के लगाए हुए हैं और इसी को तुमने अपना होना मान लिया है। अतः गोरख कहते हैं कि ’मरौ वे जोगी मरौ’ यह जो तुम्हारा झूठा रूप है इसे तो मर जाने दो। इसके मरने पर ही तुम्हें अपने सच्चे स्वरूप का अनुभव होगा। यह जो तुम्हारा आवरण है इसे गिर जाने दो। इसके वस्त्रों को भस्मी भूत होने दो, जिससे तुम्हारा मूल स्वरूप प्रकट हो सके। अहंकार न जाए तब तक आत्मा को कोई अनुभव नहीं होता।

अहंकार झूठ है। झूठ सत्य तक नहीं पहुंच सकता। झूठ, और बड़ी झूठ तक ही पहंुचता रहेगा। अहंकार नाटक है, इस नाटक के चलते तुम जो भी करोगे भ्रान्ति की बात होगी। करो व्रत, तप, उपवास, छोड़ो घर द्वार, जाओ जंगल में। कुद भी नहीं होगा। इन सबसे तुम्हारा अहंकार नए-नए आभूषण उपलब्ध कर लेगा और सज जाएगा और संवर जाएगा। अहंकार जब तक मरे नहीं, तब तक आत्मा का कोई अनुभव नहीं। आत्मानुभव के लिए अहंकार गंवाना होता है। गोरख कहते हैं। झूठ मरे तो सत्य का जन्म हो। सत्य भीतर मौजूद है, मगर झूठ की दीवार के भीतर कैद है। झूठ की बदलियों में सत्य का सूरज छिप गया है, मिट नहीं गया। कौन झूठ सत्य को मिटा सकती है ? सत्य खो भी नहीं गया है लेकिन विस्मरण हो गया है। जैसे चेहरे पर किसी ने घूंघट डाल दिया, कोई चेहरा मिट नहीं गया, लेकिन घूंघट के कारण अब दिखाई नहीं पड़ता। हमने अपने अहंकार के घूंघट में ही अपनी आत्मा को छिपा लिया है। परदा परमात्मा पर नहीं है, परदा हमारी आंखों पर है, परदा तुम पर है, परमात्मा तो बिल्कुल बेपरदा है। परमात्मा तो अनावृत खड़ा है चारों तरफ, पर तुम्हारे पास देखने वाली आंख चाहिए।

इस सूत्र में गोरख ने बताया है- यह मीठा मरण कैसे घटे ? इसकी क्या प्रक्रिया होगी ? तिस मरणी मरो...। मरते तो सभी हैं मगर मरने-मरने में भेद है। तुम केवल देह से मरोगे और अपने अहंकार को बचाकर ले जाओेगे। तुभ भी मरोगे, बुद्ध भी मरे थे, लेकिन तुम्हारे मरने में और बुद्ध के मरने में भेद है। तुम तो मरोगे पर तुम्हारा मन न मरेगा और जब तक मन न मरा तब तक कुछ बदलता नहीं है। आवरण बदलते हैं, घर बदलते हैं पर यात्रा वही है पुरानी कोल्हू के बैल जैसी वर्तुलाकार घूमती रहती है। बहुत बार तुम मरे हो और बहुत बार तुम फिर जन्म गए हो। इधर मरे और उधर जन्में। देह तो गोरख की भी छूटी थी पर देह छूटने से पहले उन्होंने अहंकार से मुक्ति पा ली थी। वे मरने से पहले मर गए थे अतः उन्हें महाजीवन प्राप्त हुआ। शरीर में दोबारा आने की आवश्यकता ही नहीं रही।

आत्मा का न कोई जन्म है, न कोई मृत्यु। अहंकार ही जन्मता है, अहंकार ही मरता है। जो अहंकार से छूट गया, वह शाश्वत है। उसका न जन्म है, न मृत्यु फिर एक जीवन है - नित्य समयातीत। फिर तुम आकाश जैसे बडे़ हो। वही तुम्हारा स्वरूप है।

अहंकार में जीने का सूत्र क्या है ? यदि यह खूब समझ में आ जाए तो मरने की कला भी आ सकती है। अहंकार अति में जीता है। अति अहंकार का प्राण है। और... और... और। यह अहंकार के जीने का ढ़ग है। दस हजार हैं तो मांग होती है लाख की, लाख हैं तो मांग होती है करोड़ की। यह अति किसी भी चीज की हो - धन की हो सकती है, ज्ञान की हो सकती है, पद की हो सकती है, यश की हो सकती है। अहंकार अति में जीता है।

मध्य में बीच में, खड़ा होना अहंकार को आता ही नहीं। जो मध्य में खड़ा हुआ, उसका अहंकार विगलित हो गया। बुद्ध ने अपने मार्ग को ’मज्झिमनिकाय’ ? कहा है- यानी बीच का मार्ग, मध्य का रास्ता। जैसे ही कोई मध्य में आया कि अहंकार मर जाता है। गोरख कहते हैं ’इस संसार में ऐसे रहो जैसे संसार में नहीं हो, न संसार तुम पर हावी हो जाए और न ही जरूरत है संसार को छोड़कर भागने की। न धन के पीछे दौडो और न धन छोड़कर भागो। तुम बीच में रूक जाओ, ठीक मध्य में। जहां अति होती ही नहीं। अतः गोरख आगे बताते हैं कि जीते जी मरने का सूत्र क्या है ? वे कहते हैः- हबकि न बोलिबा, ठबकि न चालिबा, धीरे धरिवा पावम्। हबकि न बोलिबा - अर्थात् फट से नहीं बोल देना चाहिए। कोई कुछ कहे, एकदम से जवाब नहीं देना चाहिए, सोच-विचार कर जवाब देना चाहिए। यह तो इस सूत्र का भाषायी अर्थ है लेकिन इसका साधनापरक अर्थ दूसरा हैं। सोच-विचार कर उत्तर देने का अर्थ है। उत्तर सहज नहीं होगा, विचारा-सोचा होगा। गोरख इसे दूसरी पंक्ति में पूरा स्पष्ट कर देते हैं-’गरब न करिबा, सहजै रहिबा भणत गोरखरावम्’ गोरख यहां ’सहजै रहिबा’ पर जोर देते हैं। सोचा-विचारा उत्तर सहज नहीं हो सकता। सहज उत्तर, सहज बोलना कुछ और ही बात है। तुम जब भी सेाचोगे, विचारोगे, तुम्हारा उत्तर असहज हो जाएगा। जो वक्तव्य गणित बैठाकर दिया जाता है वह झूठा होता है, नकली होता है। सहज वक्तव्य तो निर्विचार से आएगा। ’सहजै रहिबा’ का अर्थ है निर्विचार से बोलना, जागरूकता से बोलना। जो उत्तर भीतर के होश से आता है, वही सही एवं सहज होता है। भीतर का होश निर्विचार स्थिति में ही जागृत होता है।

विचार में तो गणित है, होशियारी है, चालाकी है। गोरख का आशय है निर्विचार, शान्त, मौन भाव से बोलना। मौन-भाव से बोलोगे वह सम्यक् होगा क्योंकि वह शान्ति से जन्मेंगा। निर्विचार स्थिति ही अहंकार को मार सकती है। अहंकार मरने का अर्थ है- मन का पूर्णतः शून्य और खाली हो जाना। अपनी प्रतिदिन की आकांक्षाओं, सुख और दुःखांे से खाली। अहंकार की मौत का अर्थ है-जीवन का रूपान्तरण, जीवन का नवीनीकरण, जहां विचार का अस्तित्व नहीं होता, क्योंकि विचार पुराना है। जहां मृत्यु है वहीं कुछ नया जन्म लेता है। ज्ञान से मुक्ति ही मृत्यु है। अतः गोरख कहते हैं-हबकि न बोलिबा...। ज्ञान से मुक्ति तभी संभव है, जब आप हर दिन ज्ञान के प्रति, अपने सभी अनुभवों के प्रति, दूसरों से निन्दा और स्तुति के प्रति आपने जो स्वयं प्रतिमाएं निर्मित की हैं, उन सबके प्रति आप मरते चले जाएं।

जो लोग बहुत अधिक सोचने-विचारने का काम करते हैं वे उतने ही पदार्थ वादी होते हैं- क्योंकि विचार पदार्थ है। विचार पदार्थ उतना है जितना कि आपके कमरे का फर्नीचर। ऊर्जा जब एक ढ़ांचे के भीतर कार्य करता है तो पदार्थ बन जाती है। इस तरह जगत में ऊर्जा का भी अस्तित्व है और पदार्थ का भी। पूरा जीवन यानी यह पूरी सृष्टि इन्हीं दोनों का खेल है। तो जहां भी ऊर्जा है वहां पदार्थ हो सकता है। इन दोनों के बीच जितना ही सामेंज्यस्य और तालमेंल होगा, उतना ही संतुलन पैदा होगा। यह संतुलन मध्य में है। तराजू में बीच का बिन्दु ही निर्णायक होता है। उसी प्रकार किसी अनुभव के भाव को साफ एवं स्पष्ट रूप से देखने के लिए बीच में ठहरना जरूरी है। दोनों अतियों से बचना होगा। सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों अतियों से बचना होगा। यह कार्य निर्विचार स्थिति में ही सम्भव है। निर्विचार स्थिति में ही द्रष्टा, विचारकर्ता एवं भीतर के केन्द्र ’मैं’ का अन्त हो जाता है। में का अन्त ही अहंकार का अन्त है।

विचार की स्थिति में हमारा व्यक्तित्व द्रष्टा एवं दृश्य दो खण्डों में विभाजित रहता है। द्रष्टा पेड़ के उस पत्ते के समान है जिसका आधा भाग हरा है और आधा पीला पड़ चुका है अर्थात् द्रष्टा में जीवन और मृत्यु दोनांे मौजूद हैं। इन्हीं के सहारे वह स्थिति को देखता है। द्रष्टा, जो स्वयं भी एक प्रतिमा है, अपने आस-पास दर्जनों दूसरी प्रतिमाएं देखता है और कहता है- मुझे यह प्रतिमा अच्छी लगती है, में इसे सम्हाल कर रखूंगा। या मुझे यह प्रतिमा एकदम अच्छी नहीं लगती, इसलिए मैें इससे छुटकारा पाना चाहता हूं। लेकिन प्रतिमाओं के प्रति व्यक्त ये प्रतिक्रियाएं स्वयं एक प्रतिमा बन जाती हैं और ऐसी ही प्रतिमाओं का जोड़ दृष्टा है। यही द्रष्टा अनुभवकर्त्ता, मूल्यांकनकर्त्ता एवं निर्णायक है। यही द्रष्टा कुछ प्रतिमाओं को सुरक्षित रखना चाहता है जबकि कुछ प्रतिमाओं को नष्ट करना चाहता है। यथार्थ यह है कि सभी प्रतिमाएं द्रष्टा के मतों, निर्णयों और निष्कर्षों के फल हैं और द्रष्टा स्वयं उन सभी प्रतिमाओं का फल है-इसलिए द्रष्टा ही दृश्य है।

चित्रकार बगिया ही बन गया। बगिया एवमृ उसके बीच कोई अन्तर या अंतराल नहीं रहा अर्थात् दृष्टा दृश्य में लय हो गया। वहां कोई अनुभवकर्ता नहीं बचा जो बगिया के सौन्दर्य, सौरभ एवं रंगो का अनुभव करता, क्योंकि कलाकार तो समग्रतः बगिया ही हो गया था। इसी दशा में जन्म लिया जीवन्त चित्रकला ने। वहां द्रष्टा ही दृश्य हो गया था। वह अपने मूल स्वरूप में ठहर गया। आइन्स्टीन का ’सापेक्षता का सिद्धान्त’ इसका सुन्दर उदाहरण है। विचार सदैव अतीत से जुड़ा हुआ है जबकि क्रिया साक्षात् वर्तमान है अर्थात् जीना वर्तमान में होता है। अतः गोरख का कथन है ’हबकि न बोलिबा’...। एक अन्य स्थल पर गोरख ने कहा है ’भरयां ते थोरं झल झलंति आधा। सिद्धे सिद्धे मिल्या रे अवधू बोल्या अस लाधा।’

जो पात्र जल से भरा हुआ है, वह स्थिर होता है, छलछलाता नहीं। वह जो आधा भरा होता है वही छलछलाता है। भरी मटकी आवाज़ नहीं करती, आधी मटकी आवाज करती है। तुम जितनी आवाज करते हो, जितने पैर पटक कर चलते हो, उतनी खबर देते हो कि तुम थोथे हो। जितने बैंड बाजे बजाकर चलते हो, जितने झंडे ऊंचे उठाकर चलते हो, उतनी ही खबर देते हो कि तुम आधे हो। अपूर्ण हो, थोथे हो। जो जानता हो, जिसे जीवन का अनुभव होता है। वह गंभीर होता है, गहन होता है। वह आवाज नहीं करता। उसके आस-पास सन्नाटा होता है, एक नीरव संगीत होता है।

तुम तो व्यर्थ ही शोरगुल मचाते हो। तुम्हारे बोलने में और क्या है ? जितना ज्यादा बोल रहे हो, यह इस बात का प्रमाण है कि तुम कुछ भी नहीं जानते। तुम्हारे कान में दूसरे लोग कचरा डाल देते है।, तुम दूसरों के कान में कचरा डाल देते हो, इस तरह कचरे पर कचरा इकट्ठा होता जाता है। तुम जरा गौर करना दिन भर में जितनी बातें बोलते हो उनमें से नब्बे प्रतिशत बातें तो बिल्कुल व्यर्थ हैं। उन बातों के बिना भी काम चल सकता है। लेकिन ’झलझलंति आधा’ जो आधा भरा है, वह झलझलाए न तो क्या करे ? खूब शोरगुल चल रहा है। लोग दिनभर बातचीत में लगे हैं। सारी पृथ्वी शोरगुल से भरी है। अकारण व्यर्थ की बातचीत।

गोरख कहते है ’सिधे सिद्ध मिला’ जो जानते हैं वे तो उन्हीं से बोलते हैं जिनमें जानने की आतुरता है। सिद्ध उनसे बोलते है, जो संभावी सिद्ध हैं, हर किसी से नहीं बोलते। सद्गुरू उनसे बोलते हैं, जो संभावी सिद्ध हैं, हर किसी से नहीं बोलते। सद्गुरू उनसे बोलते हैं जो सद् शिष्य हैं। अतः गोरख कहते हैं, ’हबकि न बोलिबा’ एकदम से मत बोलो। दूसरी पंक्ति में कहा गया है-
’गरब न करबिा सहजै रहिबा भणत गोरखा रावम्।’

अहंकार न करना और सहज भाव से जीना। एक छोटी सी शिक्षा लगती है लेकिन वास्तव में बहुत बड़ी शिक्षा है। क्या अर्थ है सहज रहने का ? हिसाब-किताब से मत रहना, निर्दोष भाव से रहना। वृक्ष सहज हैं, पशु-पक्षी सहज है, सिर्फ आदमी असहज है। असहजता कहां से आ रही है ? जो नहीं हूं वैसा लोगों को दिखलादूं। जो नहीं हूं वैसा सिद्ध कर दूं। उससे असहजता पैदा होती है। हूं गरीब लेकिन लोगों पर धाक जमा दूं अमीर होने की। हूं अज्ञानी लेकिन लोगों को खबर रहे कि ज्ञानी हूं। वह अहंकार तभी तो मर सकता है। तो तुम जो नहीं हो, वैसा लोगों को बतला रहे हो। भीतर कुछ, बाहर कुछ। इसी धोखे से असहजता हो गई है।

सहज तुम तभी हो सकोगे जब तुम यह अहंकार की यात्रा छोड़ दो। तुम कहो जैसा हूं, हूं। बुरा तो बुरा, भला तो भला। जैसा हूं परमात्मा का बनाया हुआ हूं। जैसे हम भीतर है, यदि उसका दर्शन हमने सहजता से कर लिया है, सुधार निश्चित है, परिमार्जन निश्चित है।

आगे गोरख कहते है, ’हठ न करिबा पड़या न रहिबा यूं बोल्या गोरख रावम्। ’हठ न करिबा’ अतिरिक्त श्रम मत करना, अन्यथा थक जाओगे और टूट जाओगे किन्तु उल्टी बात भी न कर लेना। ’पड़या न रहिबा’ आलस मत कर लेना। पडे़ ही मत रहना। तो फिर क्या करना है ? दोनों के मध्य कर्म करना, अकर्म की भांति। करना भी और कर्ता न बनना। कर्ता तो वही रहे, तुम केवल उपकरण-निमित्त बनकर कर्म करो। जैसा कि कृष्ण ने कहा है- कर्ता तो परमात्मा है, तू उसके हाथ की प्रत्यंचा हो जा। न तुझे अति सक्रिय होना है और न अति निष्क्रिय होना है। ऐसा भी मत हो जाना-अजगर करै न चाकरी पंछी करै न काम...। आलसी लोगों ने इस सूत्र की अच्छी व्याख्या निकाल ली है। उन्होंने कहा-ठीक है तो पड़े रहो मस्त जैसे अजगर पड़ा रहता है। दाता सबको देता है, हमें भी देंगे। रह जाओ भाग्य के भरोसे। दोनों बीमारियां एक साथ चलती रही हैं आज दुनिया में। पश्चिम पागल हुआ जा रहा है अति सक्रियता के कारण और पूरब दीन-दरिद्र हो गया अति निष्क्रियता के कारण। यदि गोरख की बात को समझें तो न अति सक्रियता से पागल होता है और न अति निष्क्रियता से मूढ़ होता है। गोरख बीच की बात कहते हैं। करो काम लेकिन निष्काम भाव से करो। कर्म में उतरो लेकिन शान्त, मौन कि कर्म तुम्हें उद्विग्न न कर पाए। कर्म में उतरो मगर विक्षिप्ति मत बनो।

छोटा सा सूत्र है- अहंकार छोड़ दो, सरलता से जीओ, अति न करो, मध्य में आ जाओ, सहज स्थिति में रहो।

इस अहंकार मुक्ति के लिए, इस सहज जीवन की प्राप्ति के लिए गोरख ने एक सूत्र और दिया है-
सुनि गुणवंता सुनि बुधिवंता
अंनत सिद्धां की वाणी।
सीस नवावत सतगुरू मिलिया,
जागत रैणि बिहाणी।।

सुनने वालो सुनो, समझ सकते हो तो समझो। थोड़ा बोध हो तो पकड़ो। ’अंनत सिद्धां की वाणी’ यह जो में कह रहा हूं, में ही नहीं कह रहा असंख्य सिद्ध पुरूषों ने भी यही कहा है ’सीस नवावत’ बस शीश झुकाना आ जाए तो गुरू मिल जाए। इधर शीश झुका कि उधर मिला गुरू। गुरू तो सदा मौजूद है, तुम झुको तो गुरू मिल जाए। पुरानी मिस्री कहावत है कि जब शिष्य तैयार होता है तो गुरू प्रकट हो जाता है। (Whenever the diciple is ready the master appears) एक क्षण भी देर नहीं होती। इधर शिष्य झुका, उधर गुरू आया।

हमारे जीवन का मूलभूत उद्देश्य है इस अद्भुत मन को समझाना। जिसमें आवणिक पनडुब्बी और जेट वायुवान के निर्माण की सामर्थ्य है, जो आश्चर्यजनक काव्य और गद्य की रचना कर सकता है, जिसमें विश्व को सौन्दर्य मण्डित करने की या उसे ध्वंस करने की महती शक्ति विद्यमान है। ऐसे शक्तिशाली मन द्वारा सत्य की या परमात्मा की खोज संभव है। निस्सन्देह मानवीय मन, जिसमें इतनी अदभुत शक्ति है, यदि सत्य की, परमात्मा की खोज नहीं करता तो इस शक्तिशाली मन द्वारा किया गया प्रत्येक कार्य विनाश और पीड़ा का कारण बन जाएगा। सुद्देश्य विहीन मन केवल उपद्रव ही पैदा करेगा। मन के इन उपद्रवों को नियंत्रित करने के लिए मानव को बहुतेरे नैतिक एवं सामाजिक अनुशासन इस (मन) पर थोपने होते हैं। इन अनुशासनों के खिलाफ मन फिर विद्रोह करता रहता है। इस दुष्चक्र को समाप्त करने के लिए मन की सहजता बहुत जरूरी है। मन अतियों पर जीता है। सजीव को पकड़ता है तो बड़ी मजबूती से पकड़ता है निर्जीव को पकड़ता है तो बड़ी मजबूती से पकड़ता है। पैसा, मकान इसे सुख पहंुचाते हैं अतः इन चीजों की रक्षा भी बड़ी दृढ़ता एवं लगन से करता है। जिन भौतिक साधनों से इसे सुख मिलता है, वे भौतिक साधन ही प्रमुख हो जाते हैं। उनसे प्राप्त होने वाला सुख एवं सौन्दर्य गौण हो जाता है। इस प्रकार सुख एंव सौन्दर्य का साधन ही स्वयं सुख की जगह ग्रहण कर लेता है। वस्तुओं एवं संबंधियों का मूल स्वरूप तो तब अनुभव होता है, जब हम उनसे दूरी बनाकर उनका अवलोकन करें। और यह दूरी तटस्थता के बिना संभव नहीं है। अतः गोरख कहते हैं ’गरब न करिबा सहजै रहिबा’ मध्यम मार्ग को पकड़ो। दाईं और बाईं दोनांे अतियों को छोड़ो। इस मध्यम मार्ग के लिए अहं-मुक्ति परमावश्यक है। छोटा-सा सूत्र है- ’अहंकार छोड़ दो।’

महाशिवरात्रि - 28 फरवरी, 1992 की पूर्व संध्या पर दिया गया प्रवचन।

 

फोटोगैलेरी

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