असतो मा सद्गमय 

ऋषि प्रार्थना करता है ¬ असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय। हम असत्य से सत्य की ओर जाएं, अंधकार से प्रकाश की ओर जाएं, मृत्यु से अमरता की ओर जाएं। हम असत्य में हैं, अतः हमें सत्य चाहिए, हम अज्ञान-अंधकार में है अतः हमें ज्ञान की रश्मि चाहिए, हम मृत्यु के भय में डुबे हूए हैं अतः हमें अमरता चाहिए। कैसे मिले हमें यह सत्य ? कैसे हमारे जीवन में ज्ञान का आलोक फैले ? कैसे हम मृत्यु के भय से मुक्त हों ? यही है वे प्रश्न, जिनका उत्तर बाबाजी महाराज समय-समय पर अपने श्रीमुख से सरल एवं सुबोध भाषा में दिया करते थे। उन्हीं के श्रीमुख से सुने हुए विचारों को अपनी शैली एवं भाष में आपके समक्ष रखने की चेष्टा कर रहा हूं।

लोग आते हैं और कहते हैं-में इस दुनिया से ऊब चुका हूं। इस जीवन से थक चुका हूं। यह संसार मुझे अच्छा नहीं लगता। कोई नई दुनिया चाहिए, नई सृष्टि चाहिए। वे कहते हैं इस दुनिया में रोग है, बुढ़ापा है, मौत है, दुःख है। इस दुनिया में क्रोध है घृणा है, ईर्ष्या है, आदमी आदमी को मारना चाहता है, आदमी-आदमी को दुत्कारता है, अपमान करता है। यह दुनिया पागलों की दुनियां जैसी लगती है। मुझे ऐसी दुनिया चाहिए जहां ये सारे दोष न हों, जहां आदमी-आदमी के प्रति विश्वस्त हो, आदमी-आदमी से प्यार करता हो। में सोचता हूं इस स्थिति से आप सब सहमत हैं। आपके मन में भी यह कल्पना जागती है कि ऐसी दुनिया में जीने का क्या अर्थ है ? ऐसा सोचना एवं महसूस करना दोनों सही है। कभी भृर्तहरि ने भी यही कहा था-
’भोगे रोग भयं, कुले च्युति भयं,
वित्ते नृपालाद भयं।
शास्त्रे वादि भयं, गुणे खल भयं,
काये कृतान्ताद् भयं।।
माने दैन्य भयं, बले रिपु भयं,
रूपे जराया भयं,
सर्वे वस्तु भयान्वित भुवि नृणां,
वैराग्य मेंवाभयम्।।

इन प्रश्नों का उत्तर बाबाजी महाराज ने दिया है। वे कहते हैं-तुम्हें जैसी सृष्टि चाहिए, वैसी दृष्टि तुम्हारी आंखो के सामने प्रतिपल नाच रही है। दोष बेचारी सृष्टि का नहीं, दोष तुम्हारी दृष्टि का है। दोष तुम्हारा अपना है। उस सृष्टि को देखने वाली आंखें चाहिए। यदि यह आंख तुम्हे उपलब्ध हो जाएं, तो यह सुष्टि इतनी कुरूप नहीं है, यह सृष्टि धक-धक जलने वाली भट्टी नहीं है। प्रश्न किया गया- कौन सी आंख ? बाबाजी ने कहा- आराधना की आंख। दो आंखें होती है-एक है आराधना की आंख और दूसरी है-विराधना की आंख। यदि आराधना की आंख प्राप्त हो जाए तो हमारे सामने एक नए संसार का सृजन होता है। जहां वे सारे दोष नहीं है जिनका प्रहार आदमी को पग-पग पर सहन करना पड़ता है। जिज्ञासु ने पूछा-महाराज, आराधना किसकी ? महाराज ने फरमाया-मृत्यु दर्शन की, अमूर्त के दर्शन का अभ्यास, समर्पण की साधना एवं साधना की आराधना।

प्रकृति का रंगमेंच प्रतिपल परिवर्तित हो रहा है। एक पर्दा गिर रहा है दूसरा पर्दा उठ रहा है। एक क्षण भी ऐसा नहीं जाता जिसमें सारी सृष्टि का नया सर्जन न होता है। प्रतिक्षण एक सृष्टि मरती है, दूसरी सृष्टि पैदा होती है। नई सृष्टि दूर नहीं है। वह हमारे बहुत निकट है। इस परिवर्तनशील संसार में जवानी भी होगी, बुढ़ापा भी होगा, जीवन भी होगा, मृत्यु भी होगी। पर इन सबके बावजूद यदि दृष्टि बदल गई तो बीमारी का संताप होगा न अपमान का खेद होगा और न हानि की चिन्ता होगी। कहीं भय नहीं होगा। भय ही सब रोगों का मूल है। आराधना का अर्थ है भय का विसर्जन, भय का मन से निकल जाना।

भय का मूल कारण है परिस्थितियों के साथ मन की संयुति का होना। रोग से कष्ट नहीं होता। कष्ट होता है रोग के संवेदन से। रोगी तड़फता है चिल्लाता है पर एक मर्फिया का इंजेक्शन देते ही उसका सारा कष्ट मिट जाता है। उसका चिल्लाना, कराहना सब बन्द हो जाता है। क्या दर्द नष्ट हो गया ? नहीं, दर्द नष्ट नहीं हुआ है। दर्द जहां था वहीं है। कोई अन्तर नहीं आया। किन्तु मादक द्रव्य के प्रयोग से उसका संवेदन केन्द्र शून्य कर दिया गया। दर्द संवेदन से होता है। संवेदन केन्द्र निष्क्रिय होते ही कष्ट महसूस नहीं होता। जब मन संवेदन केन्द्र के साथ जुड़ता है तब तीव्र वेदना का अनुभव होता है और जब मन अन्य किसी में लगा होता है तो वेदना की अनुभूति नहीं होती। आराधना से मन का केन्द्र बदल जाता है। मन के दो केन्द्र हैं- एक है शरीर, दूसरा है चेतना। मन का चैतन्य केन्द्रित होना- नई सृष्टि का निर्माण है तथा मन का शरीर केन्द्रित होना यह हमारी दूसरी दुनिया है जिसमें हम जी रहे हैं। हम जिस नई सृष्टि की कल्पना करते हैं, वह चैतन्य केन्द्रित सृष्टि है जब दृष्टि बदल जाती है, मन का केन्द्र बदल जाता है तब सारी बातें बदल जाती है।

जब दृष्टि बदलती है तो सृष्टि सचमुच बदल जाती है। सुुकरात विष का प्याला पी रहा था। मित्रों ने पूछा-कैसा लग रहा है ? क्या सोच रहे हो ? सुकरात बोला- कुछ भी नहीं लग रहा है। पूछा गया- क्या मौत का भय नहीं है ? सुकरात ने कहा ’-मेंरे सामने दो दर्शन हैं, एक है आस्तिक दर्शन और दूसरा है नास्तिक दर्शन। नास्तिक कहते हैं आत्मा का अस्तित्व ही नहीं है। आत्मा ही नहीं है तो मौन का भय कैसा ? मर जाऊँगा तो मुझे भय ही क्या है ? आस्तिक कहते हैं आत्मा अमर है। में मर जाऊँगा तो किस बात का भय। आत्मा तो मरेगी नहीं फिर डर कैसा ? मुझे कोई भय नहीं है।

हम दुःखों से डरते हैं, पर कुन्ती प्रभु से मांगती ही दुःख है। मुझे दुःख चाहिए, मुझे आपत्ति चाहिए क्योंकि दुनिया के सभी सुख उन्माद पैदा करते हैं, अहंकार पैदा करते हैं। दुःख ही जीवन का सजग प्रहरी है। आपसे संयोग का, दुःख ही सेतु है। सुख-दुःख है। स्पंदनों के साथ यदि मन का योग नहीं होता है तो न सुख का अनुभव होता है। प्रिय स्पंदनों के साथ मन का योग होता है तो सुख का अनुभव होता है और अप्रिय स्पंदनों के साथ मन का योग होता है तो दुःख महसूस होता है। सुख-दुःख की जो कल्पना है वह मन के योग के साथ होती है। मन को न जोडे़। स्पंदन होते रहें कोई बात नहीं है। न सुख होगा और न दुःख।

दृष्टि परिवर्तन के लिए आराधना की परम आवश्यकता है। आराधना का पहला मुख्य सूत्र है- मृत्यु का दर्शन। जीवन की असफलता का कारण है- अहंकार और अहंकार विलय का सबसे बड़ा सूत्र है- मृत्यु का दर्शन। हम जीवन को बहुत जानते हैं मृत्यु को नहीं जानते । हम जीवन से बहुत प्यार करते हैं, मृत्यु से प्यार नहीं करते। मृत्यु से प्यार करने में घबराते हैं। जीवन और मृत्यु- ये दोनों एक साथ चलने वाली दो धाराएं हैं। जब से जीवन प्रारम्भ होता है तब से ही मृत्यु भी प्रारम्भ हो जाती है। जिस क्षण हमने जीना प्रारम्भ किया था उसी क्षण मरना भी प्रारम्भ हो गया था। यदि जीना शुरू हो और मरना शुरू न हो तो वह अमर हो जायेगा। फिर वह कभी नहीं मर सकता। जन्म के साथ मृत्यु आती है। निर्माण के साथ ध्वंस आता है। हम जन्म को देखते हैं। किन्तु जीवन के साथ-साथ सामानान्तर रेखा में चल रही मृत्यु को नहीं देखते।

मृत्यु हमारे जीवन का निषेधात्मक पक्ष है। यह बचाता है मनुष्य को। मौत नहीं होती तो अहंकार का साम्राज्य छा जाता। यही वह चोट है जिससे अहंकारी घबराता है। यहां सब कुछ नश्वर है सब कुछ चला जाने वाला है। यहां तन, धन, यौवन, सत्ता, यश, परिजन सब जाने वाले हैं। सिकन्दर महान का अन्तिम संदेश था कि जिस तरह में खालनी हाथ आया था, इतने सब करने के पश्चात भी आज खाली हाथ ही जा रहा हूं। उसी तरह ए दुनिया के लोगों तुम भी बंद मुट्ठी आए थे और खुले हाथ जाओगे फिर कैसा लगाव। यहां की सारी वस्तुएं यहीं रह जायेगी। और व्यक्ति तो अकेला ही जायेगा। अतः इस जगत की नश्वरता को समझो और किसी को दुःखी मत करो। किसी को अपने अधीन बनाने का प्रयास मत करो अपितु जगत को प्रेम से जीतने का यत्न करो।

जिन्होंने मृत्यु का दर्शन किया, उन्होंने अपनी शुद्धताओं का भी दर्शन कर लिया। जिन्होंने अपनी शुद्धताओं का दर्शन कर लिया, वह मृत्यु दर्शन के द्वार पर खड़ा हो गया। जिसने अपनी नौ क्षुद्रताओं का अनुभव कर लिया उसने मृत्यु का भी दर्शन कर लिया। क्षुद्रताओं में इस प्रकार हैः-
1. अपने साथियों एवं अपने से कमजोर व्यक्तियों पर रोब जमाने का प्रयत्न करना।
2. अपने कर्त्तव्य मार्ग को त्यागकर सस्ते एवं सुविधाजनक तरीके से पैसा कमाना।
3. अपराध एवं अनुचित कार्य कर प्रायश्चित न करना।
4. मन की आवाज को आत्मा की आवाज समझना।
5. यश, कीर्ति एवं प्रतिष्ठा की संसार से अपेक्षा करना।
6. प्रशंसा से प्रसन्न होना और निन्दा से दुःखी होना।
7. दूसरो के गुण-दोषों को देखना। स्वयं के साथ आंख मिचौनी।
8. विपत्ति आने पर आत्म विश्वास खो देना।
9. कृतज्ञता को भुला देना।

क्षुद्रता के अनुभव का मतलब है- स्वयं की आलोचना। दूसरों की अलोचना करना आसान है, अपनी आलोचना करना बड़ा कठिन है। अपनी आलोचना का अर्थ है- अपने आपको देखना। जब हम अपने आपके सामने खड़े होकर अपने दर्शन करेंगे तो जीवन भी दिखाई देगा, मृत्यु भी दिखाई देगी। फिर जीवन इतना प्रिय नहीं लगेगा तथा मृत्यु भी दिखाई देगी। फिर जीवन इतना प्रियं नही लगेगा तथा मृत्यु इतनी भयावनी नहीं लगेगी। यही वह स्थिति है जहां सत्य शोधकांे ने अपने प्राणों का मोह त्यागकर सत्य की रक्षा की। सूफी फकीर शम्सतबरेज की सत्य घोषणा अटल रही भले ही उसके प्राण ले लिए गए। उसकी घोषण थी-
’तुझ में खुदा, मुझे में खुदा,
इसमें खुदा उसमें खुदा
उसके अलावा और क्या ?
ऊपर खुदा नीचे खुदा
दाएं खुदा बाएं खुदा
उसके अलावा और क्या ?

ऐसी अभय की स्थिति मृत्यु-दर्शन से ही संभव है।

आराधना का दूसरा सुत्र है- अमूर्त के प्रति प्रियता। जब तक अमूर्त सौन्दर्य और रमणीयता के प्रति अनुराग नहीं जागता तब तक मूर्त सौन्दर्य और रमणीयता को त्यागा नहीं जा सकता। आदमी का सहज स्वाभाव है मधुरता के प्रति आसक्त होना। जब अधिक सौन्दर्य सामने आता है तब कम सौन्दर्य व्यर्थ बन जाता है। अधिक मीठी चीज सामने आती है तो कम मिठास वाली चीज अपने आप छूट जाती है। उसे छोड़ा नहीं जाता, वह छूट जाती है। छोड़ना कठिन होता है। छूटना कठिन नहीं होता। एक के प्रति अनुराग का अर्थ है दूसरे के प्रति विराग। एक के प्रति विराग का अर्थ है दूसरे के प्रति अनुराग। जिसका शब्द, रूप, रस, गंध एवं स्पर्श के प्रति अनुराग है उसका चैतन्य के प्रति विराग अपने आप हो जायेगा। जिसके मन में इन्द्रिय-विषयों के प्रति विराग हो जाता है। दोनों के प्रति अनुराग या विराग एक साथ नहीं हो सकता। दो दिशाओं में एक साथ नही जाया जा सकता।

मूर्त के प्रति होने वाली प्रियता को समाप्त करने का एक सूत्र है-अमूर्त के प्रति प्रियता को पैदा करना। शिव सुन्दरी अमूर्त है। अमूर्त के प्रति प्रियता उत्पन्न करना सरल नहीं ैे, कठिन है। पर अभ्यास एवं बारम्बार से ऐसा संभव है। जब अमूर्त के साथ मीरा का लय जुड़ गया, तब महाराजा के प्रति कोई लगाव नहीं रहा। मीरा पागल बन गई अमूर्त के प्रति। उसने मूर्त को त्याग दिया। जो सामने उपस्थित था उसके प्रति मन में कोई आकर्षण नहीं रहा।

आराधना का तीसरा सूत्र है- शरण समर्पण। शरण लेना बहुत कठिन बात है। प्रत्येक व्यक्ति सोचता है कि दूसरों को शरण दूं किन्तु वह दुसरों की शरण में जाना नहीं चाहता। दूसरों की शरण में जाना बहुत बड़ी बात है। जब तक अहंकार का विलय नहीं होता, कोई व्यक्ति किसी की शरण में नहीं जा सकता। जो व्यक्ति दूसरों की शरण में जाने के लिए तैयार हो जाता है उसका सारा व्यक्तित्व बदल जाता है। शेष कुछ नहीं बचता। अरब के बाजारों में गुलामों की बिक्री हो रही थी। बोलियां लग रही थी। महात्मा ने देखा लोग गुलामों को खरीद कर ले जा रहे हैं। महात्मा ने एक गुलाम से पूछा,
’तुम बिक गए ? हां, महाराज।
कहां जा रहे हो ? जहां मालिक ले जाएगा।
क्या काम करोगे ? जो मालिक कहेगा।
क्या खाओगा ? जो मालिक खिलायेगा। कहां रहोगे ? जहां मालिक रखेगा।

महात्मा ने सुना, अवाक् रह गए। आंखों से आंसू बह चले। उन्होंने कहा, ’एक गुलाम कितना समर्पित है अपने मालिक के प्रति। में अपने मालिक के प्रति इतना समर्पित नहीं हूँ। जो घटित होना था, वह हो गया। महात्मा अब प्रभु से अभिन्न हो गए थे।

समर्पण करना, शरण में जाना बहुत ही कठिन कार्य है। जो व्यक्ति अपने गुरू की या प्रभु की शरण में चला जाता है वह सारी चिंताओं से मुक्त हो जाता है। उसके लिए चिन्ता शेष नहीं रहती। चिन्ता करने वाला करे, वह निश्चिन्त हो जाता है। बच्चा मां के प्रति जब तक पूर्णतया समर्पित है वह पूर्ण रूपेण सुरक्षित है। वह पूर्णतया निश्चिन्त है। ज्यों ही समर्पण का भाव कम होता है, अहंकार का भाव जागता है। वही बच्चा असुरक्षा तथा नीरसता के आगोश में चला जाता है। पौराणिक इतिहास में हनुमान का चरित्र पूर्ण समर्पण का जीता जागता उदाहरण है। समर्णण की पराकाष्ठा है हनुमान के जीवन में। पर महानता की भी पराकाष्ठा है हनुमान की। हनुमान जैसा तो हनुमान ही हुआ है। महाभारत काल में अर्जुन का कृष्ण के प्रति समर्पण अद्वितीय है। विवेकानन्द का अपने गुरू रामकृष्ण परमहंस के प्रति समर्पण अनुकरणीय है। समर्पण का भाव कबीर के शब्दों मेंः-
’जब में था तब हरि नहीं, जब हरि है में नाहीं।
प्रेम गली अति सांकरी, तां में दो समाय।।

सूफी फकीर मेंसूर कहता है-
’आता है तुफान आने दे, किश्ती का खुदा खुद हाफिज है।
मुमकिन है लहरों पे बहता हुआ कोई साहिल आ जाए।’

ज्यों व्यक्ति इतने समर्पण में चला जाए, इतनी तन्मयता साध ले, उसके लिए जागने की काई जरूरत नहीं। जागने वाला स्वयं जागे। चिन्ता करने वाला स्वयं चिन्ता करे। समर्पण सत्य के प्रति हो सकता है। समर्पण आत्म-दर्शन के प्रति हो सकता है। समर्पण चैतन्य के प्रति हो सकता है। समर्पण गुरू के प्रति हो सकता है। गुरू के प्रति समर्पण इसीलिए हो सकता है कि गुरू कोई व्यक्ति नहीं होता। वह आत्मदर्शन और चैतन्य की महायात्रा का सहयात्री होता है, सहयोगी होता है। गुरू के प्रति समर्पण, सत्य के प्रति समर्पण या चैतन्य के प्रति समर्पण- ये सब पर्यायवाची हैं। शरण में जाने का अर्थ है- तन्मय हो जाना। शरण में जाने का अर्थ है- तद्रूप हो जाना। शरण में जाने का अर्थ है- द्वैत से अद्वैत साध लेना। शरण में जाने का अर्थ है-अभिन्न हो जाना, भेद को समाप्त कर अभेद साध लेना। शरण लेने वाले और शरण देने वाले में कोई अन्तर नहीं होता। शरण में जाने वाला वही हो जाता है जिसकी शरण में गया है। प्रज्ञा की शरण में जाने वाला स्वयं प्रज्ञा बन जाता है। गुरू की शरण में जाने वाला गुरू बन जाता है। प्रभु की शरण में जाने वाला प्रभु बन जाता है। विनोबा से एक भाई ने पूछा, ’आपकी भक्ति का स्वरूप क्या है ? विनोबा ने उत्तर दिया-मेंरी भक्ति का स्वरूप है-प्रभु। में तुम्हारा अतीत हूं और तुम मेंरे भविष्य हो। वर्तमान में में तुम्हारा अनुभव करूं, यही मेंरी भक्ति है।’ अनागत में होना है, अतीत को छोड़ना है। और वर्तमान में वैसा रहना है।

समर्पण का एक क्रम है - पहले श्रद्धा, तत्पश्चात् समर्पण उसके बाद पराक्रमें सबसे पहला तथ्य है- श्रद्धा। दुनिया में आज तक कोई भी व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हुआ जिसमें श्रद्धा का अभाव रहा हो। भ्रान्तिवश लोग श्रद्धा और अंधविश्वास को एक मानते हैं। यह भ्रांत मान्यता है। श्रद्धा और अंधविश्वास कोई मेंल ही नहीं है। श्रद्धा का अर्थ है- सच्चाई को जान लेने के पश्चात् उसके प्रति घनीभूत आस्था का प्रकट होना। जानने के बाद श्रद्धा होती है। अंध विश्वास में जानने, न जानने का प्रश्न नहीं होता है।। वहां अंधानुकरण होता है, वहां भेड़ चाल होती है। जब तक सच्चाई के प्रति घनीभूत आस्था नहीं होती, वह सच्चाई जीवन में कभी फलित नहीं होती। श्रद्धा में घनीभूत प्रेम होता है। श्रद्धा होने के बाद खण्डित नहीं होती, अंधविश्वास तो टूटता - जुड़ता ही रहता हैं।

श्रद्धा के बाद होता है- समर्पण। जब श्रद्धा होती है तब हम उस ध्येय के प्रति सर्वात्मना समर्पित हो जाते है। पूरा समर्पण होता है। समर्पण वह होता है जो सर्वथा शर्त या प्रतिबद्धता से मुक्त हो। उसमें फिर जो भी आए, उस स्थिति को देखते जाओ, झेलते जाओ किन्तु समर्पण पर कोई आंच न आने पाए। समर्पित साधक का स्वर होता है-
’अवगुण मेंरे बापजी, बख्शो गरीब नवाज।
हों तो पूत कपूत हंू, तऊ पिता को लाज।।

श्रद्धा और समर्पण के बाद आता है - पराक्रमें कोई भी गुरू यही नहीं कहता कि तुम श्रद्धा और समर्पण करने बैठ जाओ। सब कुछ घटित हो जायेगा। गुरू गति देगा। गुरू चलायेगा। गुरू कहेगा- पराक्रम करो, पुरूषार्थ करो। बैठो मत, चलो, चलते ही रहो। यह नास्तिक विचारधारा है कि समर्पित व्यक्ति कायर होता है, कामचोर होता है, प्रमादी होता है, भाग्यवादी होता है। ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिलता मानव के इतिहास में, जहां श्रद्धा एवं समर्पण ने व्यक्ति को कायर, प्रमादी या भाग्यवादी बनाया हो।

पूर्ण समर्पण के बाद एक महान शक्ति का आन्तरिक विस्फोट होता है और वह शक्ति व्यक्ति को पराक्रमपूर्ण कर्म की ओर प्रेरित करती है। भले ही आत्मा शोधर्थी हो, भले ही समाज सुधारक हो, भले ही मानवतावादी हो, भले ही राष्ट्रवादी हो। जहां उद्देश्य के प्रति समर्पण हुआ, वहां प्रचण्ड पराक्रम का तुफान चल पड़ता है। वह अकेला ही लाखों के बराबर शाक्तिशाली हो जाता है। भाग्य उसकी मुट्ठी में आ जाता है। प्रकृति का चप्पा-चप्पा उसके साथ हो लेता है। अतः इस भ्रान्ति को अपने दिमाग से निकाल देना चाहिए कि श्रद्धालु व्यक्ति कायर और प्रमादी व्यक्ति होता है। जब अंशी और अंश एक हो जाते है तब अंश अंशी ही हो जाता है। जब भगवान और भक्त एक हो जाते हैं तो भक्त भगवान ही हो जाता है। भक्त की शक्ति एवं पराक्रम असीम हो जाते है। समर्पित व्यक्ति ही पूर्ण अभय को प्राप्त होता है। अकबर के समय की बात है। एकबार तानसेन से अकबर ने उसके गुरू से संगीत सुनने की इच्छा जाहिर की। तानसेन ने कहा- ’असंभव है यह। आप बुलायंगे तो भी वे नहीं आयेंगे क्योंकि उनको आपसे लेना देना ही क्या है ?’ वेश बदलकर दोनों वृन्दावन पहंुचे। तानवसेन भीतर गया। उसने गाना शुरू किया। जानबूझकर गलत राग गाने लागा। गुरू ने तत्काल टोका और स्वयं ने गाना शुरू किया। अकबर सुनकर मुग्ध हो गया। और तानसेन से कहा, तानसेन! तुम्हारा गाना मुझे अब फीका सा लगता है। उसमें कोई रस नहीं आता। तानसेन ने कहा, ’हुजूर! में गाता हूं दिल्ली के बादशाह को राजी रखने के लिए, प्रसन्न करने के लिए। मेरा गुरू गाता है परमात्मा को राजी रखने के लिए।’ बड़ी उपलब्धि के लिए बड़े के प्रति सपर्पित होना जरूरी है।

आराधना का चौथा सूत्र है- अपने आपको देखना। स्वयं के द्वारा स्वयं को देखना। आत्मा के द्वारा आत्मा को देखना। ज्ञात बहुत थोड़ा है, अज्ञात बहुत अधिक है। हम बहुत कम जानते है, जानना अवशेष बहुत है। चेतना की गहराई में ही अज्ञात की जानकारी हो सकती हैं। चेतना के सतह पर तो काम, क्रोध एवं वासनाएं है। अपने आपको देखने का अर्थ है चेतना की गहराई में प्रवेश करो, अन्तस्थल में गोते लगाओ और भीतर जो कुछ छिपा पड़ा है उसे अनावृत करो, बाहर लाओ और उपयोग करो। महानता अन्तःस्थल में छिपी रहती है। क्षुद्रता सतह पर तैरती है। प्रत्येक व्यक्ति में महानता होती है। पर वह सदा छिपी रहती है। जो चेतना की गहराई में गोता नहीं लगाता वह महानता को उपलब्ध नही कर सकता। महान् व्यक्तित्व उसी को उपलब्ध होता है जो निरन्तर अपने आपको देखता है और अपनी गहराईयों में डूबकियां लगाता है।

लोगों का सामान्य विश्वास यही है कि आंख खुली रहने पर रंग दिखाई देता है, प्रकाश दिखाई देता है। आंख बंद करने पर न रंग दिखाई देता है और न प्रकाश दिखाई देता है। आश्चर्य की बात यह है कि साधनाकाल में आंख बंद होने पर भी रंग दिखाई देता है, प्रकाश दिखाई देता हैं। यह यथार्थ अनुभव है। जो व्यक्ति चेतना के सागर में प्रवेश करता है, उसे अज्ञात सत्य ज्ञात होने लग जाता है। जो व्यक्ति अपने आपको नहीं देखता वह दूसरों को देखता है। दूसरों को देखना महानता की अनुभूति की सबसे बड़ी बाधा है। क्रोध, अहंकार, लोभ, ईर्ष्या, कलह, निंदा, ये सब महानता के बाधक तत्व है। ये सब तत्त्व दूसरो को देखने से फलित होते है। क्रोध दूसरों को देखने से आता है। क्रोध दूसरे से सम्बन्ध रखता है। क्रोध आने में दो चाहिए। इसी प्रकार अहंकार भी दूसरो को देखने से आता है। अहंकार छोटों पर आता है। जब व्यक्ति दूसरे को अपने से छोटा देखता है तब अहंकार पैदा होता है। वह अनुभव करता है- इसके पास कुछ भी नहीं है। इसके पास कहां हैं ज्ञान, इसके पास कहां है वैभव एवं सत्ता। मेंरी जाति कितनी महान है। यह तो छोटी जाति का है। जब व्यक्ति अपने से छोटों को अहंकार जागता है। जब व्यक्ति अपने से बड़ों को देखता हे तो हीन भाव जागता है। दोनों अहंकार के ही रूप है। जो व्यक्ति अपने आपको देखना नहीं जानता वह या तो अहंकार से भर जायेगा या हीन भावना से भर जायेगा। निंदा भी दूसरों को देखने का परिणाम ही है। दूसरों पर आरोप लागने के परिणाम भयंकर होते है। यह महपतन का एक भयंकर तरीका है। दूसरों पर आरोप लगाने वाला, दूसरों पर आरोप लगाने से पूर्व स्वयं आरोपित हो जाता है। इन सब बुराइयों का समाप्त करने का एक मात्र उपाय है- आत्मा दर्शन, एवं दर्शन की भावना को विकसित करना।

हमारी चेतना मुख्यतः दो केन्द्रों में विचरण करती है। एक है नाभि के नीचे का केन्द्र और दूसरा है नाभि के ऊपर का केन्द्र हृदय से मस्तिष्क तक का केन्द्र। जब-जब चेतना अधोगामी होती है तब तब लालच, क्रोध, भय, स्वार्थ आदि वृत्तियां जागती है। जब चेतना ऊर्ध्वगामी होती है तब अभय, अहिंसा, प्रेम, परमार्थ की भावना जागती है। अन्तःदर्शन में शरीर के ऊपरी अंगो का मन की आंखो से दर्शन करने का अभ्यास करना होता है, विशेषकर नासाग्र या भ्रकुटी या ललाट मध्य क्षेत्र।

अपने आप को देखने का सबसे सरल प्रभावशाली तरीका है- श्वास-दर्शन। हम श्वास से जी रहे हैं इसलिए सबसे पहले हमारी सत्य की खोज श्वास से ही प्रारम्भ होनी चाहिए। हमारे दर्शन के चार आयाम है- पहला आयाम है शरीर, दूसरा है श्वास, तीसरा है मन और चौथा आयाम है शुद्ध चेतना अथवा आत्मा। ये सारे आयाम सत्य की खोज के आयाम है। इन सब में श्वास का आयाम स्थूल भी है तथा सूक्ष्म भी है तथा सूक्ष्म भी है। श्वास बड़ा सत्य है। श्वास भीतर जाता है उसके साथ अनेक द्रव्य भीतर जाते हैं। प्राण तत्त्व भी भीतर जाता है। जिस किसी ने प्राण की साधना की है, वह जानता है कि श्वास के साथ प्राण की ऊर्जा किस रूप में भीतर जाती है। उसके कितने आकार बनते हें और वे आकार निरन्तर आंख के सामने घुमते रहते है। आंख खुली होती है तब भी दिखाई देते हैं और आंख बंद होती हे तब भी दिखाई देते है। जब व्यक्ति प्राण की साधना में चलता है तब आकाश मण्डल में व्याप्त प्राण के परमाणु आकार लेना प्रारम्भ कर देते हैं। आकार बदलते रहते हैं। बदलते बदलते जो अन्तिम आकार होता है वह ओंकार की प्रतिकृति होता है। इसीलिए ओंकार को शिवस्वरूप माना गया है।

प्राण शक्ति का बड़ा स्रोत है-श्वास। श्वास के साथ केवल रासायनिक द्रव्य ही नहीं जाते, प्राण धारा भी जाती हे, प्राण शक्ति जाती है। संकल्प जितना पुष्ट होता है प्राण शक्ति का प्रवाह भी उतना ही अधिक हो जाता है। जब हम श्वास दर्शन करते हैं तब प्राणशक्ति और अधिक बढ़ जाती है। श्वास बाहर और भीतर का सेतु है। श्वास के साथ प्राण शक्ति चलती है। प्राण शक्ति अर्थात् चैतन्य। पर श्वास की चैतन्य स्थिति निम्न स्तर की है। इस निम्न स्तर की चैतन्य शक्ति के सम्बल से ही उच्चतम चैतन्य शक्ति तक पहुंचा जा सकता है।

चेतना का मूल स्वाभाव है- जानना और देखना। अर्थात् ज्ञाताभाव और दृष्टाभाव। जानना और देखना - ये दो क्रियाएं नहीं है - एक ही क्रिया की दो स्थितियां है। एक क्रिया है- साक्षीभाव। श्वास को भी केवल जानना है, देखना है। श्वास दर्शन साधना का पहला कदम है। सही दिशा में उठाया गया पहला कदम मेंजिल तक पहुंचने वाले असंख्य कदमों की श्रृंखला का एक अंश होता है। वही मेंजिल का आदि कदम है। श्वास को देखना आत्म साक्षात्कार की मेंजिल तक पहुंचने का पहला कदम है। श्वास दर्शन में सोचना छूट जाता है, केवल देखना शेष रह गया है। देखना शुरू करते ही विचारों पर, विकल्पों पर प्रहार होने लग जाता है। वे बेचारे टृटने लग जाते हैं। विकल्पों से हटकर अविकल्पों पर और चिन्तन से हटकर अचिन्तन पर कदम बढ़ने लगते है।

देखने का स्रोत है- आंख। आंख बंद कर दी। बंद आंखो से कल्पना के द्वारा श्वास को देखना है। केवल देखना है। देखना है, वहां विचारना नहीं है और विचारना है, वहां देखना नहीं हे। विचारना नहीं है, केवल देखना है। देखने का अभ्यास के बिना जागरण फलित नहीं होता, अप्रमाद फलित नहीं होता। जागृति हमारी विवेक चेतना को स्पष्ट करती है। विवेक ही आत्मा की आंख है। विवेक की आंख से ही प्रभु को देखा जा सकता है। प्रभु दर्शन ही, आत्मा दर्शन ही हमारे जीवन का लक्ष्य है। देखते-देखते ही वह बिन्दु आ जाएगा जहां देखना शेष नहीं है। चरम आ जाएगा। वहां केवल जानना एवं देखना ही अवशेष रहेंगे। यह यात्रा का अन्तिम बिन्दु है।

श्वास-दर्शन के साथ नाम स्मरण भी चलते रहना चाहिए। स्मरण में अपने-अपने इष्ट के नाम का जप हितकर होता हैं। जप भी बहुत शक्तिशाली साधन है। मन को दर्शन एवं स्मरण में लगाए रखने से मन की गति भी धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है। जप का अर्थ केवल शब्द का उच्चारण मात्र नहीं है। जप को अर्थ होता है-शब्द के उच्चारण के माध्यम से किसी परम शक्ति की सन्निधि को प्राप्त कर लेना।

सुख और दुःख मन के धर्म है। आत्मा न सुखी है, न दुःखी। आत्मा परमात्मा का अंश है। परमात्मा आनंद स्वरूप है तो आत्मा भी आनंद स्वरूप ही है। आनंद हमारा सहज स्वरूप है। शीतलता जिस प्रकार पानी का सहज स्वभाव है। उसी प्रकार आनंद भी हमारा सहज स्वभाव है। सुख भी टिकता नहीं और दुःख भी टिकता नहीं। सुख और दुःख दोनों भूल है। आनंद आने के बाद कभी जाता नहीं। संसार के विषय आनंद नहीं देते, सुख या दुःख देते है। जो सुख देता है वही दुःख भी देता है। संसार के पदार्थ तो जड़ हैं। जड़ पदार्थ में आनंद संभव नहीं हो सकता। जड़ पदार्थों में जीव को जो कुछ भी आनंद का भास होता है वह अन्दर के चैतन्य के स्पर्श से ही होता है। जब मन जड़ पदार्थो में तदात्मकार होता है तब एकाग्रता के कारण चित्त में आत्मा का प्रतिबिम्ब पड़ता है और उसके कारण आनंद का आभास होता है। यह सब मन के अन्तर्मुखी होने से होता है। पर ज्यों ही मन बहिर्मुखी होता है उसे व्यग्रता, बैचेनी, अशान्ति पुनः घेर लेते है। नींद में आपको शान्ति मिलती है। क्यों मिलती है ? इसलिए कि मन उसे समय पूर्णतः अनतर्मुखी होकर सो जाता है। नींद में जम जगत को भूल जाता है आनंद जगत में नही जगत को भूलने में है। मन में जब तक संसार है, तब तक मन भी जलता रहता है, परन्तु मन में संसार न रहे तो मन शान्त हो जाता है। संसार को छोड़कर तो कहीं जा सकते नही। अतः संसार को मन से ही निकालना होगा। मन में से संसार यों निकलाता नहीं। किसी सम्यक एवं सघन साधना द्वारा ही यह संभव हैं। साधना भी एक तप है। परिश्रम करना होता है, समय लगाना होता हे। आप सब नाथजी महाराज के सेवक है, आप को इस दिशा में गंभीरता से सोचना चाहिए एवं तद्नुकूल साधना में लगना चाहिए। सच्चे एवं खरे आदमियों की जितनी आवश्यकता आज है उतनी पहले नहीं रही। साहस जुटाइए और डट जाइए इस साधना पथ पर। गुरू महाराज आपका कल्याण करेंगे।

बाबाजी महाराज की निर्वाण तिथि की पूर्व संध्या पर दिया गया प्रवचन - 7 अगस्त 1585

 

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