आज महाशिव रात्रि है। शिव जिसे उपनिषद् का ऋषि ‘ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत् अर्थात् वह शिव इस जग के कण-कण में विद्यध्मान है कहकर वर्णन करता है। जिसे वेद ‘अणोरअणीयान् महतो महीयान’ सूक्ष्म से सूक्ष्म तथा महान् से भी महान् कहकर वर्णित करता है। वह शिव जिसे ऋषि ‘सहस्रशीर्षा: पुरूषः सहस्राक्षः सहस्रपात्’ कहकर नमन करता है। उस महाशिव से रात्रि निकली है, उस रात्रि से यह विराट जगत निकला है। यह पूरा दृश्य जगत उस अदृश्य सत्ता से निकला है जो ज्ञात होते हुए भी अज्ञात है, जो ससीम होते हुए भी असीम है। वह शिव-कर्त्ता, भर्त्ता और हर्त्ता है। ब्रह्मा बनकर वह सृष्टि की रचना करता है, विष्णु बनकर सृष्टि का पालन करता है और रूद्र बनकर सृष्टि का संहार करता है। त्रिनेत्र शिव भूत, वर्तमान और भविष्य के रूप में महाकाल है। वह आदि, मध्य एवं अन्त है। ऐसे शिव का वर्णन करते हुए गोरक्षनाथजी महाराज कहते हैं -
१. कर्मयोग २. भक्तियोग ३. ज्ञानयोग ऋषियों की स्पष्ट चेतावनी है - ‘उद्धरेदात्मनात्मानम्’ अपना उद्वार स्वयं को ही करना है। मार्ग बताया जा सकता है, पर मार्ग पर चलने या न चलने की जिम्मेदारी तो अपनी स्वयं की ही है। कर्मयोग, भक्तियोग एवं ज्ञान योग तीनों मार्ग पुष्ट एंव प्रामाणिक मार्ग हैं पर इन सबमें कर्मयोग ही सबसे सरल एवं युगानुकूल मार्ग है। ज्ञानमार्ग में उत्कट वैराग्य भाव चाहिए तो भक्तिमार्ग में अटूट श्रद्धा, समर्पण एवं विश्वास चाहिए। ये विशेषताएं जन्मजात प्रारब्ध से प्राप्त होती हैं पैदा नहीं की जा सकती। परन्तु कर्म हमारा स्वभाव है। प्राणिमात्र की प्रवृत्ति ऐसी है कि वह क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता। इच्छा से करें, अनिच्छा से कर,ें उससे कर्म होना ही है। कुछ भी करो, कर्म छूटता नहीं। श्वास-प्रश्वास, हृदय की धड़कन, आंखों का खोलना व बंद होना, रक्त परिभ्रमण ये सब शरीर के स्वाभाविक कर्म हैं। इसके अतिरिक्त शरीर का जीर्ण होना, रोगी होना, नीरोग होना, जन्मना एवं मरना आदि कर्म हमारी क्षमता के बाहर के कर्म हैं। कर्म की प्रक्रिया अनवरत चाहे अनचाहे चलती रहती है। ‘गुणा गुणेषु वर्तन्ते’ सिद्धान्त के अनुसार सत् रज और तम अपने अपने गुणों में क्रियाशील है। उनकी क्रिया को रोका नहीं जा सकता है। वाणी को स्तब्ध रखने से हम स्तब्ध नहीं रह सकतें शरीर को निष्क्रिय बनाकर अक्रिय नहीं हो सकते। अन्दर से तो बोलते ही रहते हैं भले ही जीभ को विश्राम दे रखा हो। शरीर को कितना ही अक्रिय रखने की चेष्टा करें, शरीर की क्रियाएं तो चलती ही रहेगी। खुजाल चलेगी, खुजली करेंगे, पैर दर्द करेंगे, पैरों को हिलाएंगे, कभी बैठेंगे, कभी सोचेंगे तो कभी चलेंगे। तो फिर यह विमूढ़ता ही क्यों की जाए ? हमारे शास्त्रों में जैसी पुष्ट एवं प्रामाणिक मीमांसा कर्म की हुई है वैसी मीमांसा अन्यत्र दुर्लभ है। गीता हमारा एक ऐसा शास्त्र है जो कर्मयोग के नाम से कर्म करने की एक परिशुद्ध विधि का निरूपण करता है। गीता का मूल संदेश कुछ सूत्रों में इस प्रकार बंधा हुआ है:-
१. कर्मण्येवाधिकारस्ते - तेरा कर्म करने का ही अधिकार है।
२. योगस्थ कुरू कर्माणि - समता में स्थित हुआ तू कर्मों को कर।
३. योगः कर्मसु कौशलं - कर्म में कौशल ही योग है। कर्म से तात्पर्य ऐसा करने से है जिसमें कर्त्ता का भाव हो। जिसमें करने वाले को यह खयाल है कि मैं कर रहा हंू। मैं कर्त्ता हूं। ‘इगोसेन्ट्रिक’ क्रिया को कर्म कहते हैं। यदि इस भाव से कि ‘मैं संन्यास ले रहा हूं’ संन्यास भी एक कर्म ही है। जब तक शरीर में अहंता और ममता है तब तक शरीर व मन से होने वाली क्रियाएं कर्म है। शरीर में अहंता, ममता रहते हुए हमारी सभी शारीरिक, वाचिक एव मानसिक क्रियाएं कर्म हैं। क्रियाएं हो रही है, क्रियाएं की जा रही है फिर भी ऐसा होना कि कर्म किए ही नहीं है, योग है। अकर्त्ता में प्रतिष्ठित होना योग है। सब कुछ करते हुए भी यह महसूस करना कि मैंने कुछ नहीं किया है, योग है। कर्म के दो हिस्से हैं - कर्ता और क्रिया। कर्मयोग का जोर इस बात पर है कि कर्त्ता न रह जाए, क्रिया तो रहेगी ही। जब तक कर्म अपने लिए या अपनों के लिए होंगे, कर्तापन मिट नहीं सकता। कर्त्तापन मिटाने के लिए कर्म की दिशा ‘स्व’ से ‘पर’ की ओर मोड़नी होगी। कर्म सदा दूसरों के हित के लिए होता है और योग अपने लिए होता है। अपने लिए कर्म करने से अपना सम्बन्ध कर्म तथा कर्मफल के साथ हो जाता है और अपने लिए कर्म न करके दूसरों के लिए कर्म करने से कर्म तथा कर्मफल का सम्बन्ध दूसरों के साथ तथा परमात्मा का सम्बन्ध अपने साथ हो जाता है। स्वहित भाव से अहंकार सघन होता है जबकि परहित भाव से अहंकार पिघलता है। अहंकार ही मेरे व प्रभु के मध्य पर्दा है। ज्यों-ज्यों यह पर्दा हटेगा, मेरा प्रभु से योग हो जाएगा। कर्मयोग का अनुष्ठान किस रीति से करना चाहिए - इसका सम्यक विचार गीता में किया गया है। भगवान कृष्ण ने अर्जुन को उपदेशित किया है। १. ‘त्वं नियतं कर्म कुरू’ तू अपने धर्म के अनुसार अपने लिए निश्चित कर्म को सदैव कर।’ नियत कर्म का आशय दो प्रकार से व्यक्त हो सकता है। एक नियत कर्म वह है जो धर्मशास्त्रों के द्वारा प्रत्येक मनुष्य के लिए निश्चित हो चुका है। धर्मशास्त्र द्वारा नियत कर्म वर्णाश्रम धर्म कहलाता है। सभी वर्ण अपने-अपने वर्ण के कर्मों को करें। परन्तु वर्तमान परिस्थिति एवं युग में वर्णाश्रम व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो चुकी है अतः वर्तमान युग में नियत कर्म का अर्थ है स्वभाव एवं परिस्थिति के अनुसार जो कर्म किया जा रहा है। आप अध्यापक हैं, हो सकता है आप अपनी रूचि से इस पेशे में आए हैं- हो सकता है परिस्थिति से आपको इस पेशे में आना पड़ा है। जब आ ही गए हैं तो गीता कहती है अपने नियत कर्म को एक धार्मिक अनुष्ठान मानकर पूरा कर। प्रत्येक कर्म व पेशे की एक आचार संहिता होती है। कर्मयोगी वह है जो उस आचार संहिता का अधिकतम सीमा तक पालन करे। डॉक्टर बन ही गए तो फिर डॉक्टरी के पेशे की पवित्रता, सेवा व त्याग भाव को समझना जरूरी है। कर्म में भटकाव भ्रांति पैदा करता है। अतः कर्मयोग का पहला सूत्र है- हम अपने-अपने नियत कर्म को करें। कर्मयोगी वह है जो अपने नियत कर्म को करते हुए सदा देने का भाव रखता है लेने का नहीं। कर्मयोगी मानता है व्यष्टि समष्टि के लिए है क्योंकि समष्टि का अंश ही व्यष्टि है। व्यष्टि को अपना मानना और समष्टि को अपना न मानना ही रोग द्वेष आदि द्वन्द्वों का कारण है। जैसे मां का दूध उसके अपने लिए न होकर बच्चे के लिए ही है ऐसे ही मनुष्य के पास जो सामग्री है वह उसके लिए न होकर दूसरों के लिए ही है। २. कर्मयोगी अपने कर्म को यज्ञ मानकर करे। यज्ञ का अर्थ होम आदि ही नहीं है, यज्ञ का अर्थ है जिस कर्म से सभी मनुष्यों की सेवा होती है, जिस कर्म से समाज के संगठन व एकता में सहयोग मिलता है, जिस कर्म से अपनी आत्मा का उत्थान होता है। पूरी सृष्टि में यज्ञ चल रहा है - सूर्य का प्रकाश हवा का आत्म समर्पण, पृथ्वी की सहिष्णुता व उदारता, वृक्षों की दानशीलता, बादलों की आत्माहुति- ये सब कर्म यज्ञ रूप में ही चले रहे हैं। इस जागतिक से अपना अस्तित्व है। अपने अस्तित्व के लिए सम्पूर्ण जगत में कितना त्याग हो रहा है, कितना बड़ा यज्ञ हो रहा है। यदि यह यज्ञ न होगा तो मनुष्यों का जीवित रहना भी असंभव है। सोचना यही है कि पूरी सृष्टि हमारे अस्तित्व के लिए जुटी हुई है तो क्या हमको जगत के लिए कुछ समर्पण नहीं करना चाहिए ? इसी तरह हमारे शरीर में यज्ञ कर्म चल रहा है। शरीर के सब अंग एक दूसरे के लिए त्याग करने में लगे हुए हैं। सिर की रक्षा के लिए हाथ तुरन्त आगे आ जाते हैं, आंख की रक्षा के लिए पुतलियां तुरन्त छाता कर लेती है। जब चतुर्दिक इतना विराट यज्ञ कर्म चल रहा है तो हम तटस्थ या उदासीन कैसे रह रहे हैं ? समस्त सृष्टि में त्याग का अनुष्ठान चल रहा है। यह अनुष्ठान प्रेरित करता है अतः हम भी अपने नियत कर्म को यज्ञ अनुष्ठान मानकर ही पूर्ण करें। गीता में यज्ञ का एक वैज्ञानिक विवेचन प्रस्तुत किया गया है। यह स्पष्ट किया गया है कि जागतिक यज्ञ से प्ररेणा न लेने के कारण ही आज के इस युग में अनावृष्टि, अतिवृष्टि, अकाल, महामारी आदि प्राकृतिक विपदाएं बरस रही हैं। गीता में यज्ञ का एक चक्र है -यज्ञ से मेघ, मेघ से वृष्टि, वृष्टि से अन्न, अन्न से शरीर, शरीर से कर्म और कर्म से यज्ञ। प्रकृति का यह चक्र अनवरत चल रहा है। इस चक्र में यदि जरा सा भी व्यवधान आ जाता है तो चक्र गड़बड़ा जाता है। मेघ छाए रहते हैं पर बरसने नहीं। बरसा होती है पर अन्न पैदा नहीं होता। इस चक्र को भंग करने में हमारा हाथ पूरा है। शरीर के कर्म-करना जरूरी है तथा कर्म से यज्ञ होना ज़रूरी है। हम कर्म तो करते हैं पर यज्ञ नहीं करते। परिणामस्वरूप पूरी प्राकृतिक व्यवस्था ही भंग हो चुकी है। गर्मी ऋतु एवं वर्षा ऋतु में कोई अन्तर नहीं रह गया है। अतः गीता का यह आदेश, कि कर्म को यज्ञ मानकर कर, पूर्ण वैज्ञानिक व प्रामणिक निष्कर्ष है। ३. गीता में कर्मयोग का अब तीसरा सूत्र निर्देशित किया गया है- ‘मा ते संगोऽस्तवकर्मणि’ तेरी कर्म करने में आसक्ति न हो। अपने स्वरूप से विजातीय (जड़) पदार्थों के प्रति आकर्षण को आसक्ति कहते हैं। मैं शरीर हूं शरीर मेरा है ‘यह व्यक्ति मेरा है’ ‘यह धन मेरा है’ ऐसा मानने से शरीरादि नाशवान पदार्थों का महत्त्व अन्तः करण में अंकित हो जाता है। इसी कारण उन पदार्थों में आसक्ति हो जाती है। जब मनुष्य पृथ्वी पर जन्म लेता है तब उसको शरीर, धन, जमीन, मकान आदि सब सामग्रियां मिलती है पर जब यहां से जाता है तब सारी सामग्री यहीं छूट जाती है। इससे यही सिद्ध होता है कि शरीरादि सब सामग्री मिली हुई है, अपनी नहीं है। किसी कार्यालय में काम करते कुर्सी, टेबिल, घड़ी, कागज आदि सामग्री आपको मिलती है पर कार्यालय की सामग्री है, आपकी नहीं। ऐसे ही मनुष्य को शरीरादि सब सामग्री संसार की सेवा के लिए मिली है, अपनी मानने के लिए नहीं। हम किसी चीज को जोर से पकड़ें तो रेखा छूटती है चित्त पर, किसी चीज को जोर से छोड़ते हैं तो भी रेखा छूटती है चित्त पर , लेकिन न हम पकडें़ और न हम छोडें़, तब हम दर्पण की भांति हो जाते हैं, कोई रेखा नहीं छूटती। जिसने सब स्वीकार किया जैसा है वैसे के लिए राजी हो गया, ऐसे व्यक्ति के चित्त पर किसी चीज की कोई रेखा नहीं छूटती। चित्त रेखांकित न हो, चित्त पर कोई रेखा न छूटे, ऐसे चित्त का नाम अनासक्त है। अनासक्ति हमारा स्वभाव है। हमने अनासक्ति खोई नहीं है, विस्मृत की है। कोई कहे ‘मैं ईश्वर को खोजना चाहता हूं’ यह पागलपन ही है। प्रश्न किया जा सकता है ‘ईश्वर को तुमने खोया कब था ? जिसको खोया ही नहीं, उसको क्या खोजा जायेगा। जो हमारा स्वभाव है, उसे ही पाया जा सकता है। जो हमारा स्वभाव नहीं है उसे हम कभी भी पा न सकेंगे। सिर्फ हम नहीं पा सकते हैं जो बहुत गहरे में हम हैं ही। एक बीज फूल बन जाता है क्योंकि गहरे में वह फूल है ही। एक पत्थर फूल नहीं बन जाता क्योंकि वह फूल नहीं है। अनासक्ति हमारा स्वभाव है जहां भी चेतना है, चेतना सदा अनासक्त है। मनुष्य को सांसारिक वस्तुओं में प्रीति, तृप्ति एवं संतुष्टि की केवल प्रतीति होती है, वास्तव में होती नहीं, अगर होती तो पुनः अरति, अतृप्ति एवं असंतुष्टि नहीं होती। स्वरूप से प्रीति, तृप्ति एवं संतुष्टि स्वतः सिद्ध है। स्वरूप सत् है। सत् में कभी कोई अभाव नहीं होता। ’ना भावों विद्यते सतः’ और अभाव के बिना कोई कामना पैदा नहीं होता। अभावों की पूर्ति में बारम्बार लगकर जीवन भौतिक एवं जड़ पदार्थों के प्रति आसक्त होता है। जिस वस्तु एवं व्यक्ति के प्रति हम जितने ज्यादा आसक्त होते हैं वह उतना ही दूर हमसे हो जाता है। पत्नी एवं बेटों में आसक्त हुआ व्यक्ति बुढ़ापे में इस तथ्य को भली भांति महसूस करने लगता है कि मेरा यहां कोई नहीं है, पर मकड़ी की तरह अपने ही जाले में आबद्ध जीव विवश होकर उनसे चिपके रहने का व्यर्थ प्रयास करता है। कर्म बंधन नहीं, कर्म में आसक्ति बंधन है। आसक्ति हमारा स्वभाव नहीं है, हमारा स्वभाव अनासक्ति है। गीता कहती है ‘अनासक्त होकर कर्म करो।’ अनासक्त व्यक्ति प्रेम भी करेगा ऐसे ही जैसे पानी पर लकीर खींची जाती है। वह लड़ेगा भी ऐसे ही जैसे पानी पर लकीर खींची जाती है। ऐसे व्यक्ति की स्थिति अभिनय की हो जाएगी। ऐसा व्यक्ति अब कर्ता नहीं, अभिनेता हो जाएगा। अभिनेता जो है, उसे न तो आंसू बांधते हैं, न उसे मुस्कुराहट बांधती है। जब वह रोता है तब भी रोता नहीं, जब वह हंसता है तब भी हंसता नहीं, जब प्रेम करता है तब भी प्रेम करता नहीं, जब लड़ता है तब भी लड़ता नहीं, उसकी मित्रता मित्रता नहीं, उसकी शत्रुता शत्रुता नहीं। ऐसा व्यक्ति करते हुए भी नहीं करता है तथा नहीं करते हुए भी करता रहता है। प्राणिमात्र द्वारा किए हुए प्रत्येक कर्म का आरम्भ और अन्त होता है। कोई भी कर्म निरन्तर नहीं रहता। अतः किसी का भी कर्तव्य निरन्तर नहीं रहता, प्रत्युत्त कर्म का अन्त होने के साथ ही कर्तव्य का भी अन्त हो जाता है। परन्तु भूल यही होती है कि जब मनुष्य कोई क्रिया करता तब उस क्रिया का अपने को कर्त्ता मानता ही है, पर जब उस क्रिया को नहीं करता तब भी अपने को वैसा ही कर्त्ता मानता रहता है। इस प्रकार निरन्तर अपने को कर्त्ता मानते रहने से उसका कर्त्तापन का अभिमान मिटता नहीं, प्रत्युत दृढ़ होता चला जाता हैं कोर्ट में जज बनकर बैठने वाला व्यक्ति यदि चौबीस घन्टे जज ही बना रहता है तो स्वयं का एंव अपने सम्पर्क में आने वालों का जीवन दूभर कर देता है। अतः गीता कहती है कर्म तो कर, पर अनासक्त होकर कर। अनासक्ति तेरा स्वभाव है। अभिनय भाव से कर्म कर, कर्त्ताभाव से कर्म न कर। अनासक्ति भीतर उतरने से उपलब्ध होती है और भीतर उतरना साक्षीभाव से संभव होता है। इसलिए जीवन के किसी भी कोण से साक्षी होना शुरू हो जाए तो आप भीतर पंहुच जाएंगे। जिस दिन आप भीतर पहुंच जाएंगे, उस दिन आप अनासक्त हो जाते हैं। ४. ‘मा फलेषु कदाचन’ तेरा कर्म करने का अधिकार है, फल की आकांक्षा मत कर ऐसा नहीं कहा गया है कि फल तेरे हाथ में नहीं हैं। जो हम करते हैं उन कर्मों में नब्बे प्रतिशत कर्म अपनी कामनानुसार फल प्रदान करते हैं। शिवरात्रि पर यहां आने का आपने संकल्प किया, आप यहां पहंुच गए हैं। सुबह से शाम तक सैंकड़ों कर्म आप संपादित करते हैं और वे पूरे भी होते हैं। पर 10 प्रतिशत कर्म ऐसे हैं जो पूरे नहीं होते। यहीं आदमी निराश होता है, तनावग्रस्त होता है एवं हीन होकर अपनी शक्ति का क्षय कर बैठता है। गीता यही चेतावनी दे रही है कि कर्म करना तेरा धर्म है, तेरा अधिकार है पर फल की कामना मत कर। कर्म से मुक्त होने के लिए नहीं कहा जा रहा है, फलासक्ति से मुक्त होने के लिए कहा जा रहा है। लेकिन कर्म करना और फल की कामना न करना मुश्किल है। कामना ही तो कर्म करने के लिए प्रेरित करती है। हम दो तरह के कर्म करते हैं- एक कर्म तो वह है जो हम अभी करते हैं कल कुछ पाने की आशा में। ऐसे कर्म भविष्य द्वारा खींचे जाते हैं। भविष्य खींच रहा है लगाम की तरह से। ‘यह मिलेगा’ ‘वह मिलेगा’ इसलिए हम कर रहे हैं। मिलेगा भविष्य में लेकिन कर अभी रहे हैं। मिलेगा अथवा नहीं मिलेगा कोई पक्का नहीं है। इस तरह से कर्म कर रहे हैं वर्तमान में, फल की आशा लगाए बैठे हैं भविष्य की। हमारे अधिकांश कर्म भविष्य केन्द्रित कर्म हैं। भविष्य आता है, वांछित फल प्राप्त नहीं होता। एक निराशा एवं हीनता का भाव चित्त पर छा जाता है। बारबार इसकी पुनरावृत्ति होने से हमारी कार्य क्षमता चूक जाती है। एक ऐसा भी कर्म है जो प्रवहमान है और झरने की तरह हमारे भीतर से फूटता है। जो हम हैं उससे निकलता है। जो हम होंगे, उससे नहीं। रास्ते पर जा रहे हैं, किसी का बटुआ गिर गया। आपने बटुआ उसके मालिक को सौंप दिया। आप चलते बने। आपको आनंदमय एक क्षण मिला। यह कार्य वर्तमान का है, इसका फल भी वर्तमान में निहित है। यदि आपने धन्यवाद की अपेक्षा की ओर बटुए के स्वामी ने आपको धन्यवाद नहीं दिया तो फिर शान्ति के स्थान अशान्ति तथा आनंद के स्थान पर दुःख हो जायेगा। गीता कहती है ‘वर्तमान में जीओ, वर्तमान में कर्म करों’। वर्तमान को भविष्य से मत बांधो। पूरी शक्ति से वर्तमान के कर्म को करो। कर्म से बाहर और कोई मांग न रखो। कर्म ही फल है। कर्म के अतिरक्ति अन्य किसी फल की आकांक्षा न करो। ऐसा कर्म पूर्ण कर्म कहलाता है। फलाकांक्षा में उलझे हुए लोग कर्म करने से चूक जाते हैं। क्योंकि कर्म का क्षण है वर्तमान और फल का क्षण है भविष्य। आंखे यदि भविष्य पर, कल पर और फल पर गड़ी हैं तो कर्म बेमानी हो जाएगा। इससे तात्पर्य इतना ही है कि जो हम कर रहे हैं वह हमारे आनंद से सृजित हो, वह हमारे भीतर से झरने की तरह फूटे किसी भविष्य के लिए नहीं। कल सदा आता रहा है लेकिन कल को सदैव नया बनाएं। वर्तमान में ताजगी, कल को भी ताजा बनाएगी। कामना पूरी होने पर अस्थायी तृप्ति एवं संतुष्टि हमें मिलती है उसका कारण भी निष्कामता ही है। कामना करने के बाद जब वह वस्तु मिलती है जो आदमी सोचता है, ‘लो मिल गया जो चाह रहे थे।’ यह वह क्षण है जहां एक कामना पूर हो चुकी है तथा दूसरी कामना अभी जगी नहीं है। यह जो बीच के मध्यान्तर का विराम है, वह निष्कामता की स्थिति है। थोड़ा समय बीतते-बीतते फिर दूसरी कामना पैदा हो जाती है फिर वह बैचेनी, अशान्ति, तड़फन, व्यग्रता प्रारम्भ हो जाती है। भूल हम यही करते हैं- विराम की स्थिति में जो सुख मिलता है, हम उस सुख को भूल से सांसारिक वस्तु की प्रीति से उत्पन्न हुआ सुख मान लेते हैं तथा इस सुख को ही प्रीति, तृप्ति और संतुष्टि के नाम से पुकारते हैं, जबकि वह सुख वस्तुतः निष्कामता से मिलता है। अगर वस्तु की प्राप्ति से वह सुख प्राप्त होता है तो उसके मिलने के बाद उस वस्तु के रहते हुए सदा सुख रहता, दुःख कभी न होता और पुनः वस्तु की कामना उत्पन्न न होती। निष्कर्ष रूप में निष्कामता सिद्ध है और निष्कामता में आनंद, शान्ति एवं शक्ति सिद्ध है। ५. निर्ममः ‘ममत्व छोड़ दो’ यह पांचवां सूत्र है। ‘मेरा’ है ऐसा न कहो। कोई अपना नहीं है। जिसको मेरा या अपना कहा जाता है वह सचमुच अपना नहीं है। मनुष्य को जो दुःख होता है वह ‘ममत्व’ बुद्धि के कारण ही है। ग्राम में किसी का लड़का मर गया तो उसके सम्बन्धियों को छोड़कर शेष व्यक्ति नहीं रोते। जो ममत्व छोड़ देता है वह तत्काल दुःख से मुक्त हो जाता है। जीवन में १५ प्रतिशत विपदाएं या दुःख आता है उसका कारण ये अपने लोग ही हैं। महाभारत के ‘शान्ति पर्व’ में एक श्लोक है - ‘ममेति च भवेत् मृत्युर्न ममेति च शाश्वतम्। दो अक्षरों का ‘मम’ (यह मेरा है, ऐसा भाव) मृत्यु है और तीन अक्षरों का ‘न मम’ (यह मेरा नहीं है, ऐसा भाव) अमृत-सनातन ब्रहम् है। ६. ‘सर्वाणि कर्माणि मपि संन्यस्थ’ सब कर्मों का मुझमें समर्पण कर दो’। परमेश्वर के लिए सब कर्म समर्पित करने का अर्थ है कि सब कर्म परमेश्वर के लिए करना। जो मनुष्य अपने लिए कर्म करता है वह अपने भोग बढ़ाने के लिए कर्म करता है। कर्मों के भोग के फलस्वरूप प्राप्त भले या बुरे परिणाम भी उसे ही भोगने पड़ते हैं। परमेश्वर के लिए कर्म करने से बुरे भले फलों की जिम्मेदारी भी परमेश्वर पर आ जाती है। परमेश्वर के निमित्त कर्मोें में कामना न होने के कारण कर्मों में पवित्रता होती है। सेवा भाव होता है, त्याग होता है। सब कुछ प्रभु द्वारा प्रदत्त है तो उसके निमित्त कर्म करने में आपत्ति भी क्या हो सकती है ? व्यर्थ का बोझ ही क्यों लिया जाए। बाबाजी महाराज के शब्दों में-
‘न शून्य रूपं न विशून्य रूपं,
न शुद्ध रूपं न विशुद्ध रूपं।
रूपं न विरूपं न भवामि किञिचत,
स्वरूप रूपं परमार्थ तत्वं।।’
यह भी शिव है, वह भी शिव है, जो दृश्य है वह भी शिव है, जो अदृश्य है वह भी शिव है। जो ज्ञात है वह भी शिव है, जो अज्ञात है वह भी शिव है। वह अज्ञेय है, अचिन्त्य है। अतः उसे ‘नेति नेति’ कहकर वर्णित किया गया है। वह रात्रि में साक्षी बनकर स्थित है तथा दिन में स्वयंभू बनकर स्थित है। ‘उस शिव की महिमा में उपनिषद् गाते हैं - ‘सूक्ष्मातिसूक्ष्म’।
ऐसे शिव को जानकर ही शान्ति मिल सकती है। ऐसे शिव को कैसे जाना जाए ? उस शिव को प्राप्त करने का रास्ता क्या है ? यही है प्रश्न जिसका उत्तर आज हमें इस पर्व पर खोजना है। इस संबंध में हमारे ऋषि मुनियों ने शास्त्र प्रमाण एवं स्वानुभूति द्वारा कुछ प्रमुख मार्ग बताए हैं जिनमें तीन मार्ग विशेष हैंः-न शुद्ध रूपं न विशुद्ध रूपं।
रूपं न विरूपं न भवामि किञिचत,
स्वरूप रूपं परमार्थ तत्वं।।’
१. कर्मयोग २. भक्तियोग ३. ज्ञानयोग ऋषियों की स्पष्ट चेतावनी है - ‘उद्धरेदात्मनात्मानम्’ अपना उद्वार स्वयं को ही करना है। मार्ग बताया जा सकता है, पर मार्ग पर चलने या न चलने की जिम्मेदारी तो अपनी स्वयं की ही है। कर्मयोग, भक्तियोग एवं ज्ञान योग तीनों मार्ग पुष्ट एंव प्रामाणिक मार्ग हैं पर इन सबमें कर्मयोग ही सबसे सरल एवं युगानुकूल मार्ग है। ज्ञानमार्ग में उत्कट वैराग्य भाव चाहिए तो भक्तिमार्ग में अटूट श्रद्धा, समर्पण एवं विश्वास चाहिए। ये विशेषताएं जन्मजात प्रारब्ध से प्राप्त होती हैं पैदा नहीं की जा सकती। परन्तु कर्म हमारा स्वभाव है। प्राणिमात्र की प्रवृत्ति ऐसी है कि वह क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता। इच्छा से करें, अनिच्छा से कर,ें उससे कर्म होना ही है। कुछ भी करो, कर्म छूटता नहीं। श्वास-प्रश्वास, हृदय की धड़कन, आंखों का खोलना व बंद होना, रक्त परिभ्रमण ये सब शरीर के स्वाभाविक कर्म हैं। इसके अतिरिक्त शरीर का जीर्ण होना, रोगी होना, नीरोग होना, जन्मना एवं मरना आदि कर्म हमारी क्षमता के बाहर के कर्म हैं। कर्म की प्रक्रिया अनवरत चाहे अनचाहे चलती रहती है। ‘गुणा गुणेषु वर्तन्ते’ सिद्धान्त के अनुसार सत् रज और तम अपने अपने गुणों में क्रियाशील है। उनकी क्रिया को रोका नहीं जा सकता है। वाणी को स्तब्ध रखने से हम स्तब्ध नहीं रह सकतें शरीर को निष्क्रिय बनाकर अक्रिय नहीं हो सकते। अन्दर से तो बोलते ही रहते हैं भले ही जीभ को विश्राम दे रखा हो। शरीर को कितना ही अक्रिय रखने की चेष्टा करें, शरीर की क्रियाएं तो चलती ही रहेगी। खुजाल चलेगी, खुजली करेंगे, पैर दर्द करेंगे, पैरों को हिलाएंगे, कभी बैठेंगे, कभी सोचेंगे तो कभी चलेंगे। तो फिर यह विमूढ़ता ही क्यों की जाए ? हमारे शास्त्रों में जैसी पुष्ट एवं प्रामाणिक मीमांसा कर्म की हुई है वैसी मीमांसा अन्यत्र दुर्लभ है। गीता हमारा एक ऐसा शास्त्र है जो कर्मयोग के नाम से कर्म करने की एक परिशुद्ध विधि का निरूपण करता है। गीता का मूल संदेश कुछ सूत्रों में इस प्रकार बंधा हुआ है:-
१. कर्मण्येवाधिकारस्ते - तेरा कर्म करने का ही अधिकार है।
२. योगस्थ कुरू कर्माणि - समता में स्थित हुआ तू कर्मों को कर।
३. योगः कर्मसु कौशलं - कर्म में कौशल ही योग है। कर्म से तात्पर्य ऐसा करने से है जिसमें कर्त्ता का भाव हो। जिसमें करने वाले को यह खयाल है कि मैं कर रहा हंू। मैं कर्त्ता हूं। ‘इगोसेन्ट्रिक’ क्रिया को कर्म कहते हैं। यदि इस भाव से कि ‘मैं संन्यास ले रहा हूं’ संन्यास भी एक कर्म ही है। जब तक शरीर में अहंता और ममता है तब तक शरीर व मन से होने वाली क्रियाएं कर्म है। शरीर में अहंता, ममता रहते हुए हमारी सभी शारीरिक, वाचिक एव मानसिक क्रियाएं कर्म हैं। क्रियाएं हो रही है, क्रियाएं की जा रही है फिर भी ऐसा होना कि कर्म किए ही नहीं है, योग है। अकर्त्ता में प्रतिष्ठित होना योग है। सब कुछ करते हुए भी यह महसूस करना कि मैंने कुछ नहीं किया है, योग है। कर्म के दो हिस्से हैं - कर्ता और क्रिया। कर्मयोग का जोर इस बात पर है कि कर्त्ता न रह जाए, क्रिया तो रहेगी ही। जब तक कर्म अपने लिए या अपनों के लिए होंगे, कर्तापन मिट नहीं सकता। कर्त्तापन मिटाने के लिए कर्म की दिशा ‘स्व’ से ‘पर’ की ओर मोड़नी होगी। कर्म सदा दूसरों के हित के लिए होता है और योग अपने लिए होता है। अपने लिए कर्म करने से अपना सम्बन्ध कर्म तथा कर्मफल के साथ हो जाता है और अपने लिए कर्म न करके दूसरों के लिए कर्म करने से कर्म तथा कर्मफल का सम्बन्ध दूसरों के साथ तथा परमात्मा का सम्बन्ध अपने साथ हो जाता है। स्वहित भाव से अहंकार सघन होता है जबकि परहित भाव से अहंकार पिघलता है। अहंकार ही मेरे व प्रभु के मध्य पर्दा है। ज्यों-ज्यों यह पर्दा हटेगा, मेरा प्रभु से योग हो जाएगा। कर्मयोग का अनुष्ठान किस रीति से करना चाहिए - इसका सम्यक विचार गीता में किया गया है। भगवान कृष्ण ने अर्जुन को उपदेशित किया है। १. ‘त्वं नियतं कर्म कुरू’ तू अपने धर्म के अनुसार अपने लिए निश्चित कर्म को सदैव कर।’ नियत कर्म का आशय दो प्रकार से व्यक्त हो सकता है। एक नियत कर्म वह है जो धर्मशास्त्रों के द्वारा प्रत्येक मनुष्य के लिए निश्चित हो चुका है। धर्मशास्त्र द्वारा नियत कर्म वर्णाश्रम धर्म कहलाता है। सभी वर्ण अपने-अपने वर्ण के कर्मों को करें। परन्तु वर्तमान परिस्थिति एवं युग में वर्णाश्रम व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो चुकी है अतः वर्तमान युग में नियत कर्म का अर्थ है स्वभाव एवं परिस्थिति के अनुसार जो कर्म किया जा रहा है। आप अध्यापक हैं, हो सकता है आप अपनी रूचि से इस पेशे में आए हैं- हो सकता है परिस्थिति से आपको इस पेशे में आना पड़ा है। जब आ ही गए हैं तो गीता कहती है अपने नियत कर्म को एक धार्मिक अनुष्ठान मानकर पूरा कर। प्रत्येक कर्म व पेशे की एक आचार संहिता होती है। कर्मयोगी वह है जो उस आचार संहिता का अधिकतम सीमा तक पालन करे। डॉक्टर बन ही गए तो फिर डॉक्टरी के पेशे की पवित्रता, सेवा व त्याग भाव को समझना जरूरी है। कर्म में भटकाव भ्रांति पैदा करता है। अतः कर्मयोग का पहला सूत्र है- हम अपने-अपने नियत कर्म को करें। कर्मयोगी वह है जो अपने नियत कर्म को करते हुए सदा देने का भाव रखता है लेने का नहीं। कर्मयोगी मानता है व्यष्टि समष्टि के लिए है क्योंकि समष्टि का अंश ही व्यष्टि है। व्यष्टि को अपना मानना और समष्टि को अपना न मानना ही रोग द्वेष आदि द्वन्द्वों का कारण है। जैसे मां का दूध उसके अपने लिए न होकर बच्चे के लिए ही है ऐसे ही मनुष्य के पास जो सामग्री है वह उसके लिए न होकर दूसरों के लिए ही है। २. कर्मयोगी अपने कर्म को यज्ञ मानकर करे। यज्ञ का अर्थ होम आदि ही नहीं है, यज्ञ का अर्थ है जिस कर्म से सभी मनुष्यों की सेवा होती है, जिस कर्म से समाज के संगठन व एकता में सहयोग मिलता है, जिस कर्म से अपनी आत्मा का उत्थान होता है। पूरी सृष्टि में यज्ञ चल रहा है - सूर्य का प्रकाश हवा का आत्म समर्पण, पृथ्वी की सहिष्णुता व उदारता, वृक्षों की दानशीलता, बादलों की आत्माहुति- ये सब कर्म यज्ञ रूप में ही चले रहे हैं। इस जागतिक से अपना अस्तित्व है। अपने अस्तित्व के लिए सम्पूर्ण जगत में कितना त्याग हो रहा है, कितना बड़ा यज्ञ हो रहा है। यदि यह यज्ञ न होगा तो मनुष्यों का जीवित रहना भी असंभव है। सोचना यही है कि पूरी सृष्टि हमारे अस्तित्व के लिए जुटी हुई है तो क्या हमको जगत के लिए कुछ समर्पण नहीं करना चाहिए ? इसी तरह हमारे शरीर में यज्ञ कर्म चल रहा है। शरीर के सब अंग एक दूसरे के लिए त्याग करने में लगे हुए हैं। सिर की रक्षा के लिए हाथ तुरन्त आगे आ जाते हैं, आंख की रक्षा के लिए पुतलियां तुरन्त छाता कर लेती है। जब चतुर्दिक इतना विराट यज्ञ कर्म चल रहा है तो हम तटस्थ या उदासीन कैसे रह रहे हैं ? समस्त सृष्टि में त्याग का अनुष्ठान चल रहा है। यह अनुष्ठान प्रेरित करता है अतः हम भी अपने नियत कर्म को यज्ञ अनुष्ठान मानकर ही पूर्ण करें। गीता में यज्ञ का एक वैज्ञानिक विवेचन प्रस्तुत किया गया है। यह स्पष्ट किया गया है कि जागतिक यज्ञ से प्ररेणा न लेने के कारण ही आज के इस युग में अनावृष्टि, अतिवृष्टि, अकाल, महामारी आदि प्राकृतिक विपदाएं बरस रही हैं। गीता में यज्ञ का एक चक्र है -यज्ञ से मेघ, मेघ से वृष्टि, वृष्टि से अन्न, अन्न से शरीर, शरीर से कर्म और कर्म से यज्ञ। प्रकृति का यह चक्र अनवरत चल रहा है। इस चक्र में यदि जरा सा भी व्यवधान आ जाता है तो चक्र गड़बड़ा जाता है। मेघ छाए रहते हैं पर बरसने नहीं। बरसा होती है पर अन्न पैदा नहीं होता। इस चक्र को भंग करने में हमारा हाथ पूरा है। शरीर के कर्म-करना जरूरी है तथा कर्म से यज्ञ होना ज़रूरी है। हम कर्म तो करते हैं पर यज्ञ नहीं करते। परिणामस्वरूप पूरी प्राकृतिक व्यवस्था ही भंग हो चुकी है। गर्मी ऋतु एवं वर्षा ऋतु में कोई अन्तर नहीं रह गया है। अतः गीता का यह आदेश, कि कर्म को यज्ञ मानकर कर, पूर्ण वैज्ञानिक व प्रामणिक निष्कर्ष है। ३. गीता में कर्मयोग का अब तीसरा सूत्र निर्देशित किया गया है- ‘मा ते संगोऽस्तवकर्मणि’ तेरी कर्म करने में आसक्ति न हो। अपने स्वरूप से विजातीय (जड़) पदार्थों के प्रति आकर्षण को आसक्ति कहते हैं। मैं शरीर हूं शरीर मेरा है ‘यह व्यक्ति मेरा है’ ‘यह धन मेरा है’ ऐसा मानने से शरीरादि नाशवान पदार्थों का महत्त्व अन्तः करण में अंकित हो जाता है। इसी कारण उन पदार्थों में आसक्ति हो जाती है। जब मनुष्य पृथ्वी पर जन्म लेता है तब उसको शरीर, धन, जमीन, मकान आदि सब सामग्रियां मिलती है पर जब यहां से जाता है तब सारी सामग्री यहीं छूट जाती है। इससे यही सिद्ध होता है कि शरीरादि सब सामग्री मिली हुई है, अपनी नहीं है। किसी कार्यालय में काम करते कुर्सी, टेबिल, घड़ी, कागज आदि सामग्री आपको मिलती है पर कार्यालय की सामग्री है, आपकी नहीं। ऐसे ही मनुष्य को शरीरादि सब सामग्री संसार की सेवा के लिए मिली है, अपनी मानने के लिए नहीं। हम किसी चीज को जोर से पकड़ें तो रेखा छूटती है चित्त पर, किसी चीज को जोर से छोड़ते हैं तो भी रेखा छूटती है चित्त पर , लेकिन न हम पकडें़ और न हम छोडें़, तब हम दर्पण की भांति हो जाते हैं, कोई रेखा नहीं छूटती। जिसने सब स्वीकार किया जैसा है वैसे के लिए राजी हो गया, ऐसे व्यक्ति के चित्त पर किसी चीज की कोई रेखा नहीं छूटती। चित्त रेखांकित न हो, चित्त पर कोई रेखा न छूटे, ऐसे चित्त का नाम अनासक्त है। अनासक्ति हमारा स्वभाव है। हमने अनासक्ति खोई नहीं है, विस्मृत की है। कोई कहे ‘मैं ईश्वर को खोजना चाहता हूं’ यह पागलपन ही है। प्रश्न किया जा सकता है ‘ईश्वर को तुमने खोया कब था ? जिसको खोया ही नहीं, उसको क्या खोजा जायेगा। जो हमारा स्वभाव है, उसे ही पाया जा सकता है। जो हमारा स्वभाव नहीं है उसे हम कभी भी पा न सकेंगे। सिर्फ हम नहीं पा सकते हैं जो बहुत गहरे में हम हैं ही। एक बीज फूल बन जाता है क्योंकि गहरे में वह फूल है ही। एक पत्थर फूल नहीं बन जाता क्योंकि वह फूल नहीं है। अनासक्ति हमारा स्वभाव है जहां भी चेतना है, चेतना सदा अनासक्त है। मनुष्य को सांसारिक वस्तुओं में प्रीति, तृप्ति एवं संतुष्टि की केवल प्रतीति होती है, वास्तव में होती नहीं, अगर होती तो पुनः अरति, अतृप्ति एवं असंतुष्टि नहीं होती। स्वरूप से प्रीति, तृप्ति एवं संतुष्टि स्वतः सिद्ध है। स्वरूप सत् है। सत् में कभी कोई अभाव नहीं होता। ’ना भावों विद्यते सतः’ और अभाव के बिना कोई कामना पैदा नहीं होता। अभावों की पूर्ति में बारम्बार लगकर जीवन भौतिक एवं जड़ पदार्थों के प्रति आसक्त होता है। जिस वस्तु एवं व्यक्ति के प्रति हम जितने ज्यादा आसक्त होते हैं वह उतना ही दूर हमसे हो जाता है। पत्नी एवं बेटों में आसक्त हुआ व्यक्ति बुढ़ापे में इस तथ्य को भली भांति महसूस करने लगता है कि मेरा यहां कोई नहीं है, पर मकड़ी की तरह अपने ही जाले में आबद्ध जीव विवश होकर उनसे चिपके रहने का व्यर्थ प्रयास करता है। कर्म बंधन नहीं, कर्म में आसक्ति बंधन है। आसक्ति हमारा स्वभाव नहीं है, हमारा स्वभाव अनासक्ति है। गीता कहती है ‘अनासक्त होकर कर्म करो।’ अनासक्त व्यक्ति प्रेम भी करेगा ऐसे ही जैसे पानी पर लकीर खींची जाती है। वह लड़ेगा भी ऐसे ही जैसे पानी पर लकीर खींची जाती है। ऐसे व्यक्ति की स्थिति अभिनय की हो जाएगी। ऐसा व्यक्ति अब कर्ता नहीं, अभिनेता हो जाएगा। अभिनेता जो है, उसे न तो आंसू बांधते हैं, न उसे मुस्कुराहट बांधती है। जब वह रोता है तब भी रोता नहीं, जब वह हंसता है तब भी हंसता नहीं, जब प्रेम करता है तब भी प्रेम करता नहीं, जब लड़ता है तब भी लड़ता नहीं, उसकी मित्रता मित्रता नहीं, उसकी शत्रुता शत्रुता नहीं। ऐसा व्यक्ति करते हुए भी नहीं करता है तथा नहीं करते हुए भी करता रहता है। प्राणिमात्र द्वारा किए हुए प्रत्येक कर्म का आरम्भ और अन्त होता है। कोई भी कर्म निरन्तर नहीं रहता। अतः किसी का भी कर्तव्य निरन्तर नहीं रहता, प्रत्युत्त कर्म का अन्त होने के साथ ही कर्तव्य का भी अन्त हो जाता है। परन्तु भूल यही होती है कि जब मनुष्य कोई क्रिया करता तब उस क्रिया का अपने को कर्त्ता मानता ही है, पर जब उस क्रिया को नहीं करता तब भी अपने को वैसा ही कर्त्ता मानता रहता है। इस प्रकार निरन्तर अपने को कर्त्ता मानते रहने से उसका कर्त्तापन का अभिमान मिटता नहीं, प्रत्युत दृढ़ होता चला जाता हैं कोर्ट में जज बनकर बैठने वाला व्यक्ति यदि चौबीस घन्टे जज ही बना रहता है तो स्वयं का एंव अपने सम्पर्क में आने वालों का जीवन दूभर कर देता है। अतः गीता कहती है कर्म तो कर, पर अनासक्त होकर कर। अनासक्ति तेरा स्वभाव है। अभिनय भाव से कर्म कर, कर्त्ताभाव से कर्म न कर। अनासक्ति भीतर उतरने से उपलब्ध होती है और भीतर उतरना साक्षीभाव से संभव होता है। इसलिए जीवन के किसी भी कोण से साक्षी होना शुरू हो जाए तो आप भीतर पंहुच जाएंगे। जिस दिन आप भीतर पहुंच जाएंगे, उस दिन आप अनासक्त हो जाते हैं। ४. ‘मा फलेषु कदाचन’ तेरा कर्म करने का अधिकार है, फल की आकांक्षा मत कर ऐसा नहीं कहा गया है कि फल तेरे हाथ में नहीं हैं। जो हम करते हैं उन कर्मों में नब्बे प्रतिशत कर्म अपनी कामनानुसार फल प्रदान करते हैं। शिवरात्रि पर यहां आने का आपने संकल्प किया, आप यहां पहंुच गए हैं। सुबह से शाम तक सैंकड़ों कर्म आप संपादित करते हैं और वे पूरे भी होते हैं। पर 10 प्रतिशत कर्म ऐसे हैं जो पूरे नहीं होते। यहीं आदमी निराश होता है, तनावग्रस्त होता है एवं हीन होकर अपनी शक्ति का क्षय कर बैठता है। गीता यही चेतावनी दे रही है कि कर्म करना तेरा धर्म है, तेरा अधिकार है पर फल की कामना मत कर। कर्म से मुक्त होने के लिए नहीं कहा जा रहा है, फलासक्ति से मुक्त होने के लिए कहा जा रहा है। लेकिन कर्म करना और फल की कामना न करना मुश्किल है। कामना ही तो कर्म करने के लिए प्रेरित करती है। हम दो तरह के कर्म करते हैं- एक कर्म तो वह है जो हम अभी करते हैं कल कुछ पाने की आशा में। ऐसे कर्म भविष्य द्वारा खींचे जाते हैं। भविष्य खींच रहा है लगाम की तरह से। ‘यह मिलेगा’ ‘वह मिलेगा’ इसलिए हम कर रहे हैं। मिलेगा भविष्य में लेकिन कर अभी रहे हैं। मिलेगा अथवा नहीं मिलेगा कोई पक्का नहीं है। इस तरह से कर्म कर रहे हैं वर्तमान में, फल की आशा लगाए बैठे हैं भविष्य की। हमारे अधिकांश कर्म भविष्य केन्द्रित कर्म हैं। भविष्य आता है, वांछित फल प्राप्त नहीं होता। एक निराशा एवं हीनता का भाव चित्त पर छा जाता है। बारबार इसकी पुनरावृत्ति होने से हमारी कार्य क्षमता चूक जाती है। एक ऐसा भी कर्म है जो प्रवहमान है और झरने की तरह हमारे भीतर से फूटता है। जो हम हैं उससे निकलता है। जो हम होंगे, उससे नहीं। रास्ते पर जा रहे हैं, किसी का बटुआ गिर गया। आपने बटुआ उसके मालिक को सौंप दिया। आप चलते बने। आपको आनंदमय एक क्षण मिला। यह कार्य वर्तमान का है, इसका फल भी वर्तमान में निहित है। यदि आपने धन्यवाद की अपेक्षा की ओर बटुए के स्वामी ने आपको धन्यवाद नहीं दिया तो फिर शान्ति के स्थान अशान्ति तथा आनंद के स्थान पर दुःख हो जायेगा। गीता कहती है ‘वर्तमान में जीओ, वर्तमान में कर्म करों’। वर्तमान को भविष्य से मत बांधो। पूरी शक्ति से वर्तमान के कर्म को करो। कर्म से बाहर और कोई मांग न रखो। कर्म ही फल है। कर्म के अतिरक्ति अन्य किसी फल की आकांक्षा न करो। ऐसा कर्म पूर्ण कर्म कहलाता है। फलाकांक्षा में उलझे हुए लोग कर्म करने से चूक जाते हैं। क्योंकि कर्म का क्षण है वर्तमान और फल का क्षण है भविष्य। आंखे यदि भविष्य पर, कल पर और फल पर गड़ी हैं तो कर्म बेमानी हो जाएगा। इससे तात्पर्य इतना ही है कि जो हम कर रहे हैं वह हमारे आनंद से सृजित हो, वह हमारे भीतर से झरने की तरह फूटे किसी भविष्य के लिए नहीं। कल सदा आता रहा है लेकिन कल को सदैव नया बनाएं। वर्तमान में ताजगी, कल को भी ताजा बनाएगी। कामना पूरी होने पर अस्थायी तृप्ति एवं संतुष्टि हमें मिलती है उसका कारण भी निष्कामता ही है। कामना करने के बाद जब वह वस्तु मिलती है जो आदमी सोचता है, ‘लो मिल गया जो चाह रहे थे।’ यह वह क्षण है जहां एक कामना पूर हो चुकी है तथा दूसरी कामना अभी जगी नहीं है। यह जो बीच के मध्यान्तर का विराम है, वह निष्कामता की स्थिति है। थोड़ा समय बीतते-बीतते फिर दूसरी कामना पैदा हो जाती है फिर वह बैचेनी, अशान्ति, तड़फन, व्यग्रता प्रारम्भ हो जाती है। भूल हम यही करते हैं- विराम की स्थिति में जो सुख मिलता है, हम उस सुख को भूल से सांसारिक वस्तु की प्रीति से उत्पन्न हुआ सुख मान लेते हैं तथा इस सुख को ही प्रीति, तृप्ति और संतुष्टि के नाम से पुकारते हैं, जबकि वह सुख वस्तुतः निष्कामता से मिलता है। अगर वस्तु की प्राप्ति से वह सुख प्राप्त होता है तो उसके मिलने के बाद उस वस्तु के रहते हुए सदा सुख रहता, दुःख कभी न होता और पुनः वस्तु की कामना उत्पन्न न होती। निष्कर्ष रूप में निष्कामता सिद्ध है और निष्कामता में आनंद, शान्ति एवं शक्ति सिद्ध है। ५. निर्ममः ‘ममत्व छोड़ दो’ यह पांचवां सूत्र है। ‘मेरा’ है ऐसा न कहो। कोई अपना नहीं है। जिसको मेरा या अपना कहा जाता है वह सचमुच अपना नहीं है। मनुष्य को जो दुःख होता है वह ‘ममत्व’ बुद्धि के कारण ही है। ग्राम में किसी का लड़का मर गया तो उसके सम्बन्धियों को छोड़कर शेष व्यक्ति नहीं रोते। जो ममत्व छोड़ देता है वह तत्काल दुःख से मुक्त हो जाता है। जीवन में १५ प्रतिशत विपदाएं या दुःख आता है उसका कारण ये अपने लोग ही हैं। महाभारत के ‘शान्ति पर्व’ में एक श्लोक है - ‘ममेति च भवेत् मृत्युर्न ममेति च शाश्वतम्। दो अक्षरों का ‘मम’ (यह मेरा है, ऐसा भाव) मृत्यु है और तीन अक्षरों का ‘न मम’ (यह मेरा नहीं है, ऐसा भाव) अमृत-सनातन ब्रहम् है। ६. ‘सर्वाणि कर्माणि मपि संन्यस्थ’ सब कर्मों का मुझमें समर्पण कर दो’। परमेश्वर के लिए सब कर्म समर्पित करने का अर्थ है कि सब कर्म परमेश्वर के लिए करना। जो मनुष्य अपने लिए कर्म करता है वह अपने भोग बढ़ाने के लिए कर्म करता है। कर्मों के भोग के फलस्वरूप प्राप्त भले या बुरे परिणाम भी उसे ही भोगने पड़ते हैं। परमेश्वर के लिए कर्म करने से बुरे भले फलों की जिम्मेदारी भी परमेश्वर पर आ जाती है। परमेश्वर के निमित्त कर्मोें में कामना न होने के कारण कर्मों में पवित्रता होती है। सेवा भाव होता है, त्याग होता है। सब कुछ प्रभु द्वारा प्रदत्त है तो उसके निमित्त कर्म करने में आपत्ति भी क्या हो सकती है ? व्यर्थ का बोझ ही क्यों लिया जाए। बाबाजी महाराज के शब्दों में-
कर्त्ता कर्त्ता क्यों करता है, यहां कर्त्ता नही कोय।
कर्त्ता है सो कर रहा, तू जनि बोझा ढ़ोय।।
कर्त्ता है सो कर रहा, तू जनि बोझा ढ़ोय।।
त्वदीयं वस्तु गोविन्दं, तुभ्यमेव समर्पये’ महाशिवरात्रि 16 फरवरी 1988
श्री बैजनाथजी महाराज के उद्बोधन