पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म  

परम पूज्य श्रीबाबाजी महाराज की बरसौदी की पूर्व संध्या पर एक ऐसे विषय का निरूपण करने की चेष्टा कर रहा हंू जो उनके ही श्रीमुख से मैंने सुना था। मूल रूप से विचार बाबाजी महाराज के हैं, व्याख्या एवं स्पष्टीकरण की शैली मेरी स्वयं की है।

विषय है- ’पूर्व जन्म एवं पुनर्जन्म’। बाबाजी महाराज से प्रश्न किया गया था-क्या आपका पूर्व जन्म एवं पूनर्जन्म में विश्वास है ? बाबाजी महाराज ने ’हां’ में उत्तर देते हुए अपने पूर्वजन्म की कहानी बताई एवं स्पष्ट किया कि जिसका आत्मतत्त्व में विश्वास है, उसका पूर्व जन्म एवं पुनर्जन्म में भी विश्वास होगा ही। उनका कहना था- समूचा प्राणी जगज दो अवस्थाओं से गुजरता है। वह जन्म लेता है यह पहली अवस्था है। एक दिन वह मरता है यह दूसरी अवस्था है। जन्म हमारे प्रत्यक्ष है और मौत भी हमारे प्रत्यक्ष है। जन्म भी एक घटना है और मौत भी एक घटना है। ये दोनों घटनायें प्रत्यक्ष हैं। हजारों वर्षों से मनुष्य यह जानने के प्रयत्न करता रहा है कि जन्म से पूर्व और मृत्यु के पश्चात् क्या ? यह पूर्व और पश्चात् की जिज्ञासा दर्शन के प्रारम्भिक क्षणों में हो रहीं है। इसका उत्तर उन लोगों ने दिया जो प्रत्यक्ष ज्ञानी थे, जिनका अपना अनुभव और साक्षात्कार था। उन्होंने कहा, ’जन्म के पहले भी जीवन होता है और मृत्यु के बाद भी जीवन होता है। ’यह हमारा वर्तमान का जीवन जो प्रत्यक्ष है, एक मध्यवर्ती विराम है, जो पहले भी है और बाद में भी है पूर्वार्द्ध है तभी उतरार्द्ध हो सकता है। जिसका पूर्व नहीं और पश्चात् नहीं है उसका मध्य कैसे होगा ? यदि मध्य है तो उससे पहले भी कुछ था और बाद में भी कुछ होगा। अनुभव और प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर उन्होनें इसका समाधान किया किन्तु जब अनुभव की बात, साक्षात् ज्ञान की बात, प्रत्यक्ष की बात परोक्ष ज्ञानियों तक पहुंचती है तब उसकी भी मीमांसा प्रारम्भ हो जाती है। कहने वाला प्रत्यक्ष ज्ञानी है, अनुभवयुक्त है और वह अनुभव के आधार पर कह रहा है किन्तु सामने वाला व्यक्ति परोक्ष ज्ञानी है वह प्रत्यक्ष ज्ञानी के अनुभव को नहीं पकड़ पाता, केवल उसके शब्दों को पकड़ पाता है। वह प्रत्येक तथ्य को तर्क की कसौटी पर ही स्वीकार करता है।

अतः इस प्रश्न का उत्तर बुद्धिवादी दार्शनिकों ने अपने ढंग से दिया। जहां तर्क है, वहां खेमे बनते हैं। बुद्धिवादी दार्शनिकों ने तर्क दिया - न पूर्वजन्म है और न पुनर्जन्म है। केवल वर्तमान जीवन ही होता है। दो धाराएं बन गई। एक को आस्तिक कहा गया और दूसरी को नास्तिक कहा गया। एक है आत्मा को मानने वाली धारा और दूसरी है आत्मा को न मानने वाली धारा। नास्तिकों ने चेतना को तो स्वीकार कर लिया पर त्रैकालिक चेतना को अस्वीकृत किया। उन्होंने केवल वर्तमानकालिक चेतना को मंजूर किया। उनका तर्क था- वर्तमान में कुछ ऐसे परमाणुओं का, ऐसे तत्त्वों का योग होता है कि उनके योग से एक विशेष प्रकार की शक्ति उत्पन्न होती है, चेतना उत्पन्न होती है। जब यह शरीर बिखरता है, शरीर की शक्तियां बिखरती है और जब विशिष्ट प्रकार के परमाणुओं की इस संयोजना का विघटन होता है तब चेतना समाप्त हो जाती है। जब तक चेतन तब तक जीवन। जीवन समाप्त, चेतना भी समाप्त। उसके पश्चात् कुछ भी नहीं है। न पहले चेतना और न बाद में चेतना। जो कुछ है वर्तमान है। न अतीत और न भविष्य।

तीसरे चरण में इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयत्न किया वैज्ञानिकों ने। उन्होंने प्रयोग की कसौटी पर इस प्रश्न को कसना प्रारम्भ किया। लगभग पचास वर्षों से इस दिशा में विभिन्न प्रयोग हुए हैं और आज भी अनेक वैज्ञानिक इस ओर प्रयत्नशील हैं। इसकी खोज के लिए विज्ञान ने एक शाखा स्थापित की। उसे परामनोवैज्ञानिक कहा गया। मनोवैज्ञानिकों ने आत्मा के अस्तित्व को स्पष्ट करने के लिए पूर्व जन्म और पुनर्जन्म को जानने के लिए प्रयत्न किए। परामनोविज्ञान की चार मान्यताएं हैं-
1. विचारों का संप्रेषण होता है। एक व्यक्ति अपने विचारों को, बिना किसी माध्यम के दूसरों तक पहुंचा सकता है।
2. प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। एक व्यक्ति बिना किसी माध्यम के घटनाओं एवं दृश्यों को दूर बैठ देख सकता है।
3. पूर्वाभास होता है। भविष्य में घटने वाली घटना का पहले ही आभास हो जाता है।
4. अतीत का ज्ञान होता है। जैसे भविष्य का ज्ञान होता है वैसे ही अतीत का ज्ञान हो सकता है।

परामनोविज्ञान के द्वारा मान्य इन चार तथ्यों के आधार पर यह सोचने के लिए बाध्य होना पड़ता है कि ऐसा भी तत्त्व है जो भौतिक नहीं है, पौद्गलिक नहीं है। इस संसार का मूल प्रश्न है कि क्या इस दुनिया में मात्र भौतिक तत्त्व ही है या भौतिक से भिन्न भी कुछ है। यदि यह स्वीकार हो जाता है कि इस जगत में केवल भौतिक तत्त्व ही नहीं है, अभौतिक तत्त्व भी है तो पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को स्वीकृति दी जा सकती है। प्रश्न है आत्मा का, प्रश्न है अभौतिक तत्त्व का, अपौद्गलिक तत्त्व का। विज्ञान ने तथा अनात्मवादियों ने यही माना कि हम जिस जगत में जी रहे हैं, वह भौतिक है। केवल पदार्थ ही पदार्थ। पदार्थ की सीमा में विचरण करने वाला व्यक्ति आत्मा तक नहीं पहुंच पाता। हमारे ज्ञान की शक्ति बहुत स्थूल है। हमारे जानने का पहला साधन है-इन्द्रियंा। इन्द्रियां केवल स्थूल पदार्थों को जान सकती हैं। दूसरा साधन है-मन। उसकी क्षमता भी बहुत सीमित है। तीसरा साधन हैं-बुद्धि। बुद्धि का व्यापार भी सीमित ही हैं। इन्द्रियों के द्वारा जो प्राप्त होता है उसका ज्ञान मन को होता है और जो मन को प्राप्त होता है उसका विवेक और निर्णय करना बुद्धि का काम है। तीनों की बहुत छोटी दुनिया है।

फिर प्रश्न उठता है- हम कैसे सिद्ध करें - पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म के विश्वास को। इसे सिद्ध करने के लिए हमारे पास कुछ आधार हैं। इन आधारों में पहला सशक्त प्रमाण है- स्मृति। स्मृति यानि जन्म की स्मृति। जन्म लेने वाल बच्चे को अपने पहले जन्म ही स्मृति होती है। उसे पता चलता है कि इससे पहले भी वह था। डॉ. स्टीवन्स आदि परामनोवैज्ञानिकों ने पूर्व जन्म एवं पुनर्जन्म की घटनाओं के अनेक आंकडे़ एकत्र किए। उनका विश्लेषण किया और नए नए तथ्य प्रकट किए। ऐसे उदाहरण मिले हैं कि बच्चों ने अपने पूर्वजन्म की घटनाओं का वर्णन किया। अपने पूर्वजन्म के माता-पिता, घर आदि को पहिचाना, अपनी मृत्यु का विवरण दिया। समाचार पत्रों में यदा कदा ऐसी घटनाएं पढ़ने को मिल जाती है। थोड़ी उत्सुकता जगाती है। पर अनुसंधान वृति के अभाव मंे हममें से कुछ इन घटनाओं को सही मान लेने हैं और कुछ झूँठ, कपाल कल्पित। इनमें से सभी घटनाएं सही होती है ऐसा तो मैं नहीं मानता, पर कुछेक घटनाएं बिल्कुल सही होती हैं। तो फिर प्रश्न यह उठता है कि ऐसी स्मृति सब बच्चों को क्यों नहीं होती ? इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-

जन्म एक दुःख है और मरण भी दुःख है। प्राणी जब जन्म लेता है तब भी बहुत दुःख का अनुभव करता है और जब मरता है तब भी बहुत दुःख का अनुभव करता है। जन्म से पूर्व बच्चे में पूर्वजन्म की स्मृति होती है किन्तु जन्म के समय इतनी भयंकर यातना से गुजरना पड़ता है कि उसकी सारी स्मृति नष्ट हो जाती है। जैसे किसी व्यक्ति को गहरा आघात लगता है तो उसकी स्मृति नष्ट हो जाती है। या तो वह बेहोश हो जाता है या पागल। जन्म की घटना यातनापूर्ण घटना है। अतः इस स्मृति को भूलना सहज ही है। पूर्व जन्म की स्मृति की बात न कर यदि इस जन्म की स्मृति की बात करें तो आश्चर्य होगा कि हम 90 प्रतिशत बातें सहज ही भूल जाते हैं। धरती पर आने के आद 5-6 वर्ष भी विस्मृति में ही है। यह निश्चित है कि हम 5-6 वर्ष पहले ही धरती पर आ चुके थे पर स्मृति नहीं रहती। यदि पूर्व जन्म की सभी स्मृतियां बनी रहें तो निश्चित ही आदमी पागल हो जाएगा। में तो कहता हूं कि यदि इस जन्म की सभी स्मृतियां बनी रहे तो हम पागल हो जाएंगे। प्रकृति ने हमारे अस्तित्व की रक्षा के लिए विस्मृति का विधान किया है। भयंकर शारीरिक पीड़ा या अत्यन्त भय की स्थिति में आदमी मूर्च्छित हो जाता है। यह मूर्च्छा हमारे जिन्दा रहने का आधार है। प्रकृति का नियम है स्मृति उतनी ही रहती है जितनी से काम चल सके।

फिर प्रश्न होता है कि कुछेक लोगों को पूर्व जन्म की स्मृति कैसे रहती है ? ऐसा होना अपवाद है। प्रायः ऐसी स्मृतियां ऐसे प्राणियों में जिन्दा रहती है जो ऐसी स्मृतियों के बोझ से बोझिल नहीं हो सकते। सिद्ध महापुरूष ऐसी स्मृतियों को सहज ही संजोकर रख सकते हैं। रामकृष्ण परमहंस एवं विवेकानन्द का स्पष्ट उदाहरण हमारे सामने हैं। बाबाजी महाराज का पूर्व जन्म का वृतान्त एकदम प्रामाणिक है। वे खुद भी पूर्व जन्म की अल्प स्मृति को संजोए हुए थे। उनके माथे का लाल वैष्णवी टीका प्रत्यक्ष प्रमाण है। उनकी सुचितापूर्व वैष्णव जीवन शैली प्रमाणित करती हैं कि निश्चय ही वे वैष्णव संन्यासी थे। इसी तरह बहुत सारे प्रकरण महापुरूषों के जीवन से जुडे़ हुए हैं।

कुछ ऐसे सामान्य आदमी भी मिल रहे हैं जिन्हे अपने पूर्वजन्म की स्मृति है। विशेषकर बचपन में ऐसी स्मृतियां प्रबल होती है। किसी को बड़ा भयंकर आघात लगा, किसी के साथ किसी ने अपना बनकर भयंकर विश्वासघात किया, आत्महत्या द्वारा मरा, दुर्घटना में मरा या किसी हत्यारे ने जल्लादी तरीके से किसी को मारा। ऐसी स्थितियों में जब आदमी मरता है तो वह संस्कार इतना प्रगाढ़ हो जाता है कि भारी कष्ट होने पर भी वह लुप्त नहीं होता और निमित्त पाकर उभर आता है। ऐसे व्यक्तियों को पूर्वजन्म की स्मृति रह जाती है।

दूसरी बात यह है कि वर्तमान में प्रेत जीवन पर अनेक अनुसंधान हुए है। प्रेतात्मा है या नहीं- इस प्रश्न पर अनेक खोजें हुई हैं। इसके अन्तर्गत पहला प्रयोग किया गया-प्लेन्चेट का। इसमें मृतात्माओं का आह्वान किया जाता है और उनके साथ सम्पर्क स्थापित किया जाता है। उनको आह्वान कर कुछ प्रश्न पूछे जाते हैं और वे उन प्रश्नों का उत्तर देते हैं। इस प्रयोग में भी कुछ घटनाएं ऐसी घटित होती है जिन्हे नकारा नहीं जा सकता। जो उत्तर मृतात्माओं द्वारा मिलते हैं वे इतने यथार्थ इतने प्रामाणिक और सही होते हैं कि प्लेन्चेट का प्रयोग करने वाले कभी आत्मा को अस्वीकार नहीं कर सकते। उन्हीं आत्माओं का आह्वान किया जा सकता है जिनका मृत्यु के बाद अभी दूसरा जन्म नहीं हुआ है, वे जन्म के इन्तजार में है या फिर उन आत्माओ का आह्वान किया जाता है जो अधम कर्माें पर अतिशय आसक्ति के कारण प्रेतयोनि भोग रहे हैं। महान आत्मएं प्लेन्चेट से बात नहीं करती।

तीसरा प्रयोग है- माध्यम का। कुछ व्यक्ति मृत आत्माओं के अवतरण के सहज माध्यम होते हैं। उनके माध्यम से दूसरे व्यक्ति अपने सम्बन्धी मृत आत्माओं से बातचीत करते हैं। अपने यहां कई व्यक्तियों में पित्तरादि का अवतरण सुनते हैं। ऐसी कहानियों में शत-प्रतिशत सच्चाई तो नहीं होती पर 20 प्रतिशत बाते इनमें भी सही होती हैं।

चौथा प्रयोग है-सूक्ष्म शरीर के फोटो का। वैज्ञानिक किरलियान दम्पति ने एक विशेष प्रकार की फोटो पद्धति का आविष्कार किया। उसके द्वारा सूक्ष्म शरीर के फोटो लिए गये। प्रत्येक प्राणी और वनस्पति के आभा मंडल के फोटो लिए गए। मरते हुए व्यक्ति के फोटो लेने पर यह स्पष्ट दिखाई दिया कि इस शरीर की कोई ऐसी ही आकृति शरीर से निकल कर बाहर जा रही है। सूक्ष्म शरीर के फोटो से सचमुच एक क्रान्ति ला दी सारे आध्यात्मिक क्षेत्र में। जीवित अवस्था में भी हमारा सूक्ष्म शरीर बाहर निकलता है। उसका प्रक्षेपण बाहर होता है। उसके भी फोटो लिए गए। एक व्यक्ति ने अपने अनुभव में लिखा, ’मेरा बड़ा ;डंरवतद्ध ऑपरेशन होने वाला था। निर्धारित दिन में ऑपरेशन कक्ष में गया। सूंघनी से मुझे मूर्च्छित किया गया। ऑपरेशन प्रारम्भ हुआ। मेरा सूक्ष्म शरीर ऊपर चला गया। ऑपरेशन की सारी प्रक्रिया मैं ऊपर से देखता रहा। जैसे ही कहीं डॉक्टर से गलती हुई, मैनें तत्काल उसे टोका। ऑपरेशन पूरा होने पर मैं अपने स्थूल शरीर में आ गया।’ सूक्ष्म शरीर इस स्थूल शरीर को छोड़कर बाहर यात्रा करता है और कहीं दूर की घटनाओं को देख आता है। इस तरह के अनुसंधान से हमारे यहां योग में जो परकाया-प्रवेश का वर्णन मिलता है, वह सिद्ध होने जा रहा है। आदि शंकराचार्य के परकाया-प्रवेश का उदाहरण तो आप लोग जानते ही है। आज यह सिद्ध होने जो रहा है कि स्थूल शरीर ही अन्तिम सच्चाई नहीं है। इसके भीतर बहुत बड़ा सूक्ष्म जगत है। जिस रूस को नास्तिक लोगों का देश कहा जाता है उसी देश के वैज्ञानिक आज इन सूक्ष्म सत्यों को उजागर करने में लगे हुए हैं। ऐसा लग रहा है, यदि यही गति चलती रही तो रूस दुनिया का सबसे बड़ा आस्तिक देश हो जायेगा।

सूक्ष्म शरीर अत्यन्त सूक्ष्म परमाणुओं से बने होते हैं। शास्त्रीय भाषा में वे चतुःस्पर्शी परमाणुओं से बने होते हैं। मनोविज्ञान की भाषा में , वे न्यू किलोन कण से बने होते हैं। वे कण ऐसे हैं जिनमें भार नहीं। उन कणों में विद्युत आवेग नहीं है। उन कणों में प्रस्फुटन नहीं है। वे कण अभौतिक हैं। वे कण आरपार जा सकते हैं। मृत्यु के समय यह सूक्ष्म शरीर बाहर निकलता है। उसका ही फोटो संभव है। तेजस् शरीर का फोटो प्लेट पर आता है, आत्मा का नहीं। आत्मा का कोई फोटो नहीं हो सकता।

प्राचीन काल में मृत्यु की घटना को श्वास के साथ जोड़ा जाता था। आज मृत्यु का सम्बन्ध आभा मंडल की क्षीणता या अक्षीणता के साथ जोड़ा जाता है। यदि आभा-मण्डल पूर्णरूप से समाप्त हो गया है तो प्राणी की मृत्यु घटित हो जाती है। यदि आभा मण्डल अवशेष है तो प्राणी जीवित है, अभी मरा नहीं है। हृदय का बंद होना, मस्तिष्क का फेल होना मृत्यु के पूर्व संकेत नहीं है। ये अधूरे संकेत है। आभा मण्डल यदि पूरा विसर्जित हो गया है तो मृत्यु समझनी चाहिए।

जो मृत्यु को नजदीकी से समझ रहें हैं त्यों-त्यों पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म की गुत्थी सुलझती चली जा रही है। पूर्व जन्म का एक सशस्त प्रमाण हमारे ये सगे-संबंधी, मित्रगण आदि हैं। आप कितने ही व्यक्तियों से संबंध जोड़ते हैं, पर देखते हैं, शनै-शनै सब छूटता चला जा रहा है। आपके साथ केवल वही व्यक्ति ही अन्तिम श्वांस तक रह जाते हैं जिनका आपके साथ पूर्वजन्मों का सम्बन्ध है। जननी तो सभी के होती है पर मां किसी विरले को ही मिलती है। मां कौन ? जो अपने बच्चे को अपना हृदय लुटाते हुए मानवता की सर्वोच्च ऊचाँइयों पर पहुंचाती है। ऐसी जननी पूर्वजन्म के सम्बन्धों से ही प्राप्त होती है। पत्नी सभी के होती है पर अर्द्धांगिनी किसी विरले पुरूष को ही प्राप्त होती है। पुत्र-पुत्रियां तो सभी के हैं पर ये आपकी फोटो स्टेट कॉपिया ही हैं, आपका मूल स्वरूप नहीं है। गुरू शिष्य सम्बन्ध तो चले आ ही रहे हैं इस जगत में। पर ऐसे गुरू-शिष्य पूर्वजन्म के सम्बन्धों से ही सम्भव है जो एक दूसरे को बिना भाषा के ही पूरा-पूरा जानते हैं। आप इस दुनिया में संबंध जोड़ते है, सम्बन्ध टूटते हैं। आप हाय-हाय करते हैं, धोखा हो गया है। आप भूल जाते हैं-
’अरे मेरे दिल रूबा,
जो तेरा न था उसको अपना क्यों कहा ?

विश्वास कीजिए इस बात पर कि आपके होकर वही लोग अन्तिम समय तक आपके साथ रहेंगे जिनका आपके साथ पूर्वजन्मों का सम्बन्ध है बाकी तो सब परिचयात्मक सम्बन्ध मात्र ही हैं जैसे किसी गाड़ी में यात्रा करते वक्त सहयात्री से सम्बन्ध हो जाते हैं।

इस विवेचन के पश्चात् अब शास्त्रीय चर्चा भी कर ली जाए कि पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म के संबंध में हमारे शास्त्र क्या बोल रहे हैं। हमारे यहां शास्त्रों में दो प्रकार की योनियां मानी गई हैं। 1. योनिक 2. अयोनिक। प्रलय के बाद सृष्टि के आरम्भ में जो देह निर्मित हाती हैं वे सब अयोनिक होती है। इस प्रकार की देह सृष्टिकर्ता के संकल्पवश परमाणु पंुज के संघटक से उत्पन्न होती है। हमारे पुराणों में ऐसी बहुत सारी घटनाएं चर्चित हैं जब किसी व्यक्ति का जन्म अयोनिक पद्धति से हुआ है। दृष्टिपात से, स्पर्श से, संकल्प से वचन से योनियां प्रकट हुई हैं। गोरखनाथजी महाराज द्वारा गुगल के प्रयोग से गोगा का जन्म हुआ, वर्णित है। आज का विज्ञान इस दिशा में ’टेस्टट्यूब’ बेबी से इसी दिशा में बढ़ रहा है।

योनियां चार तरह की मानी गई है-उद्भिज, स्वेदज, अण्डज, एवं जरायुज। इनमें उद्भिज, स्वेदज एवं अण्डज इन तीनों योनियों में चौरासी लाख जन्म माने गये है। चौरासी लाख जन्मों के बाद जरायुज स्थिति प्राप्त होती है। फिर जरायुज श्रेणी की उर्ध्वतम सीमा पर पहुंचकर दुर्लभ मनुष्य देह मिलती है। एक-एक श्रेणी में नाना प्रकार की क्रमोत्कृष्ट देह की प्राप्ति होती है। जीव बीज रूप से प्रकृति के गर्भ में आविर्भूत होकर क्रमशः ऊंचा उठता रहता है एवं क्रमंशः उत्कृष्टतर देह प्राप्त करता रहता है। पर ध्यान रखिए यह कृत-कर्म का फल नहीं है। प्राकृतिक स्त्रोत स्वाभाविक परिणाम का ही फल है अहंभाव की स्फूर्ति न होने तक जीव का कर्माधिकार नहीं होता है। मनुष्य देह प्राप्ति से पूर्व तक जीव पाप-पुण्य से परे होता है। सिंह जीव को मारकर खाता है, उसे कोई पाप नहीं लगता है। अतः एवं मनुष्य देह के पूर्व तक चौरासी लाख देहों में संचरण केवल प्राकृतिक व्यापार ही है। उसके मूल में व्यक्तिगत इच्छा या कर्म-प्रेरणा नहीं है। परन्तु मनुष्य देह के साथ संसर्ग होते ही कतृर्व्य अभिमान पैदा हो जाता है एवं इसीलिए कर्माधिकार की उत्पत्ति एवं फलभोग आवश्यक हो जाता है। यहां से आपके कर्माें का कम्प्यूटर सक्रिय हो जाता है जो कई जन्मों के बाद प्रारब्ध कर्म बन जाता है। मनुष्य देह में निर्णय, संकल्प, विवेक, स्वविवेक पर आश्रित होते हैं। यहां ’जैसी मती वैसी गति’ हो जाती है। अपने जीवन को सार्थक ढंग से चलाने के लिए सभी आवश्यक उपकरण हमें मुहैया कराये जाते हैं। मनुष्य देह में आने के बाद प्राकृतिक स्त्रोत का प्रभाव नहीं रहता। जीव स्वकृत कर्मों से उर्ध्व या अधोगति प्राप्त करता है। अब तक की गति सरल एवं उर्ध्वमुखी थी पर मनुष्य देह की प्राप्ति के पश्चात् कर्म की गति वक्र चक्राकर एवं अनन्त वैचित्रयमयी हो जाती है। मनुष्य देह के साथ ही देहाभिमान एवं ममकार जाग्रत हो उठते हैं। यहां हम जो-जो करते हैं, उसका फल सुनिश्चित है। मनुष्य देही में हमें पांचो कोश प्राप्त हो जाते हैं, यथा-अन्नमय $ कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश एवं आनन्दमय कोश। अन्य प्राणियों में केवल दो कोश ही, अन्नमय एवं प्राणमय, विकसित होते हैं। मनुष्य यदि प्रयत्न एवं पुरूषार्थ करे तो, ’अन्तिमकोश’ की पहुंच भी उसके लिए संभव है।

मनुष्य देह की प्राप्ति के बाद जन्म मरण का चक्र चालू हो जाता है। मृत्यु के बाद जब स्थूल देह को त्यागकर जीवात्मा बाहर आती है तो अपने साथ सूक्ष्म शरीर को लेकर चलता है। सूक्ष्म शरीर में मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार होते हैं। पूर्वजन्मों के कर्माें की एक रील इस सूक्ष्म शरीर के साथ चलती है। मृत्यु के समय जो संस्कार या भाव प्रबल हो जाते हैं, वे पूर्व संचित दूसरें भावों को उद्बुद्ध करके अपने में मिला लेते हैं एवं पिण्डीभूत होकर प्रारब्ध कर्मों की सृष्टि करते हैं। हमारे यहां कहावत है- अन्त मता सो गता। पर अन्त का मता वही होता है जो जीवन भर का मता होता है। ’जनम जनम मुनि जतन कराहीं, अन्त काल प्रभु आवत नाहीं,।’ अन्तिम विचार या चिंतन वही होगा जो आपने जीवन भर पाल पोष कर पुष्ट कर रखा है। दयालु के प्राण करूणा जनित भावों के साथ ही छूटेंगे। हिंसक के प्राण हिंसा भाव के साथ छूटेंगे। जीवनभर की साधना एवं अभ्यास अन्तिम क्षणों का निचोड़ होता है। जीव प्रारब्ध कर्मांे के अनुसार गति प्राप्त करता है। जो जीवन भर कृष्ण मय रहा वही व्यक्ति अन्तिम समय कृष्णमय रह सकता है। इस नियम के कुछ व्यक्ति ही अपवाद होते हैं उसके भी कुछ सूक्ष्म कारण होते हैं। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है-
’यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजन्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।

अर्थात् मनुष्य जिस भाव का स्मरण करता हुआ अन्तकाल में देह त्याग करता है उसी भाव को प्राप्त होता है।’

राजा भरत मृत्युकाल में हरिण के बच्चे की भावना करते हुए देहत्याग करने के कारण हरिण योनि को प्राप्त हुए थे, यह कथा पुराणों में प्रसिद्ध है। अतः सभी देशों में आस्तिक लोग मरते हुए व्यक्ति में सात्विक भाव जगाने के लिए विविध सद् आयोजन करते हैं। गीता भागवत सुनाना, साधु-संन्यासियांे का सत्संग करना, महापुरूषों के चित्र दिखाना आदि। हमारे यहां मृत्यु-विज्ञान पर बहुत जोर दिया गया है। एक कहावत प्रचलित है-जपतप में क्या धरा है, मरना सीखों।’ गोरखनाथजी महाराज तो आह्वान करते हैं-
’मरो वे जोगी मरो मरण है मीठा
तिस मरणि मरो रे जोगी जिस
मरणि मरि गोरख दीठा।

बाबाजी महराज का उपदेश था-’मौत बड़ी सुहावनी-
जो जीते जी मर गया वह मृत्यु से नहीं डरता। जो मृत्यु को जीत गया उसने जीवन के रहस्य को समझ लिया। जो निर्भय होकर प्राण त्यागता है वह अगले जन्म के पर्दे के आरपार भी झांक सकता है। ज्ञानी वही है जो अभय को प्राप्त हो गया। भगवान बुद्ध संन्यास दीक्षा से पूर्व मृत्यु-शिक्षा देते थे।

गति मृत्यु के अन्तिम भाव पर निर्भर करती है। साधारणतः परा और अपरा भेद से गति दो प्रकार की है। जिस गति से पुनर्जन्म नहीं, वह परा गति है। जिस गति में उर्ध्व अथवा अधः लोको में जाकर कर्मफल भोगने के पश्चात् पुनः मृत्युलोक में जन्म ग्रहण करना पड़ता है, वह अपरा गति है। देवता, मनुष्य, प्रेत, तिर्यक, आदि योनियों के भेद से गति भेद हुआ करता है। अर्थात् कर्मवश कोई देवलोक को जाता है और देव देह प्राप्त कर नाना प्रकार के दिव्य भोगों का आस्वादन करता है। कोई यातना-देह पाकर नरक-यंत्रणा भोगता है। कर्मक्षय होने पर पुनः मनुष्य देह प्राप्त करता है। इस जगत में तीन तरह के नर -देही उपलब्ध है। 1.सुर या देव वृति के आदमी, 2.असुर या पाशविकवृति के आदमी, 3.मनुष्यवृत्ति के आदमी।

प्रथम पंक्ति के आदमी ’परोपकाराय सतां विभूतयः’ होते हैं। ऐसे व्यक्ति जन-कल्याण हेतु ही जन्मते हैं या इच्छा जन्म लेते है। ऐसे लोगों की पूर्व स्मृतियों सम्यक् रूप से बनी रहती है। उनका लक्ष्य जगत कल्याण में लगा रहता है तथा इस उद्देश्य के साथ-साथ अपनी आध्यत्मिक साधना द्वारा अपने जीवन को भी वे उत्कृष्टतम श्रेणी तक ले जाते हैं। इन महापुरूषों में से कई तो जीवन मुक्त हो जाते हैं। ऐसे लोगों का देह-विसर्जन के बाद पुनर्जन्म नहीं होता। ऐसे व्यक्ति पूर्ण निष्काम होकर शरीर को त्यागते हैं। जो पुरूष जीवनकाल में ही भावातीत हो गए हैं, जो सचमुच जीवनमुक्त है, उसकी कोई गति नहीं है। वासना शून्य होने पर गति नहीं रहती। वे ब्रह्ममय हो जाते हैं। वे ब्रह्माण्डीय परम चेतना से अभिन्न हो जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों के लिए गीता कहती है-
’अन्तकाले च मामेव स्मरन् मुक्तवा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्रभदावं यति नास्त्यत्र संशयः

अर्थात अन्तकाल में भगवत भाव का स्मरण करते हुए देह त्याग कर सकने पर भगवान का सायुज्य-लाभ प्राप्त किया जा सकता है, इसमें काई संदेह नहीं है।

कुछ महापुरूष जगत-कल्याण की सूक्ष्म वासना से बंधे रह जाते हैं। ऐसे महापुरूषों का अस्तित्व हजारों वर्षों तक सूक्ष्म देह में बना रह सकता है। परोक्ष रूप से जगत-कल्याण में लगे हुए अहर्निश निजानंद में लीन रहते हैं। ऐसे महापुरूष उस क्षीण जगत-कल्याण की वासना का क्षय होते ही ब्रह्मलीन हो जाते हैं। कबीर के शब्दों में
’जल में कुंभ, कुंभ में जल है,
बाहर भीतर पानी’
फूटा कुंभ जल-जल ही समाना,
यह तथ कथ्यो गियानी।’

ऐसा भी सम्भव है प्रबल जगत-कल्याण की भावना से भावित होकर मनुष्य देही में अवतरित हो जाते हैं। कालान्तर में वे भी केवल्य पद में पहुंच जाते हैं। कुछ महापुरूष देवलोक के अधिकारी बनकर जगत-कल्याण में निरत रहते हैं। ऐसे महापुरूषों का भी कालान्तर में जन्म अवश्य होता है।

मध्य-पंक्ति में मनुष्य देह आती है। मनुष्यवृति के व्यक्तियों के हाथों पाप एवं पुण्य दोनों अर्जित होते हैं। इस वृति के लाग सद् एवं असत् दोनों प्रकार की वृत्तियों में रमतें हैं तथा अपने-अपने कर्मफल के अनुसार दुःख सुख इस मृत्युलोक में ही भोगते रहते है। इनके लिए दानों दिशाएं खुली रहती हैं- नीचे जाएं या ऊपर उठें। यह मध्य का अस्तित्व जिम्मेदारी का अस्तित्व है। यहां बहुत कुछ स्व पुरूषार्थ से करना पड़ता है। ऊपर वाले तो पूर्ण जाग्रत अवस्था में हैं अतः उनकी गति तो उर्ध्वगामी ही होती है। नीचे वाले पूरी नींद में है अतः उनकी गति अधोगामि ही होती है। कोई विशेष कृपा ही ऐसे लोगों को बचा सकती है। हां, मध्य-पंक्ति के व्यक्तियों के लिए यह जगत ही खेल का प्रांगण है। यहां ही वे उठते हैं, यहां ही वे गिरते हैं। बार-बार मनुष्य देही में जन्मते हैं तथा कर्मफल के अनुसार सुख दुःख भोगते रहते हैं।

निम्न पंक्ति में असुर वृति के आदमी आते हैं जो होते तो नर-देही में हैं, पर उनके कर्म राक्षसों व पिशाचों जैसे होते हैं। ऐसे व्यक्ति ’पापाय पर पीड़नम्’ में अहर्निश लगे रहते हैं। ऐसी अधम वृति के आदमी दूसरों को सताने, मारने, दुःखी करने में आनंद लेते हैं। जहां भी इनका निवास होता है वहां हिंसा, द्वेष, अशान्ति, अत्याचार, अपवित्रता का अखाड़ा रहता है। ऐसे व्यक्तियों का जन्म सत्कर्म क्षय होने के कारण अधम से अधम परिवारों में होता रहता है। मृत्यु के बाद ऐसे लोग एक सीमा पर पिशाच योनि में जन्म लेने हैं। अपने पापों का फल भोग करते हैं। और भी यदि कर्म गिरे हुए हैं तो एसे लोग मनुष्य देही से भी वंचित होकर पशु योनियों में सरक जाते हैं। वहां से उद्धार प्रकृति एवं महाकाल के निश्चित विकास का ही परिणाम हो सकता है।

जो कहा गया है वह उतना ही यथार्थ है जितना यथार्थ यह वर्तमान जीवन है। यदि वर्तमान कालिक चेतना है तो अवर्तमान कालिक चेतना का भी अस्तित्व है। यदि वर्तमान है तो भूत एवं भविष्य भी है। यदि यह चेतना स्वीकार्य है तो वह चेतना भी स्वीकार्य है जो वर्तमान को लांघकर अतीत और भविष्य में संक्रान्त होने वाली भी है।

हमारे ज्ञान की क्षमता बहुत कम है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक आगस्टीन ने ठीक ही कहा है, ’हम कभी यह दावा नहीं कर सकते की हमारा ज्ञान निरपेक्ष है।’ हमारा ज्ञान सीमित व सापेक्ष है। आज तक भी इस दुनिया में किसी बडे़ सत्य का उद्घाटन जिन लोगो ने किया है, उन्होंनें तर्क या बुद्धि के क्षेत्र में नहीं किया । जो जैसा भी ज्ञान, भौतिक या आध्यात्मिक, इस जगत में उतरा है वह शून्य या निर्विकल्प स्थिति में उतरा है। विशिष्ट ज्ञान विशिष्ट स्थिति मंे उतरता है।

हर क्षण याद रखें- करन्ता सो भोगन्ता, जैसी मति वैसी गति, अन्त मता सो गता। हम सदैव गुरू - चरणों में रत रहते हुए अपने जीवन को उर्ध्वगामी बनाएं। हम आदमी से देवता बनें, देवता से ईश्वर बनें, यह प्रार्थना श्रीनाथजी महाराज से करता हूं। जो कहा गया है वह बाबाजी महाराज के वचनों का ही प्रसाद है, अतः अक्षरशः सत्य है। मैं व्यक्तिगत रूप से पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म में ऐसे ही विश्वास करता हूं जैसा कि इस वर्तमान जीवन में विश्वास करता हूं।
¬असतो मा सद्गमयः
तमसो मा ज्योतिर्गमयः
मृत्योर्मा अमृतं गमयः ¬ शान्ति! शान्ति! शान्ति!

बाजाजी महाराज की तृतीय निर्वाण तिथि की पूर्व संध्या पर प्रवचन - 18 अगस्त 1988

 

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