मानव जीवन दुर्लभ है। मानव इसलिए मानव कहलाता है कि उसमें मानवता का समावेश है। यदि मानव जीवन पाकर भी मानवता का विकास नहीं हुआ तो वह मानव नहीं पशु ही है। आहार, निद्रा, भय एवं मेंथुन वृत्तियां तो पशु में भी है। यदि इन वृत्तियों से मनुष्य ऊपर नहीं उठ पाया तो उसका मनुष्य जीवन ही व्यर्थ है। हजारों वर्षों के विकास-क्रम में मनुष्य ने इन आदिम वृत्तियों के अतिरिक्त भी बहुत सारी अन्य वृत्तियां विकसित की हैं। यथा - प्रेम, त्याग, सेवा, अभय, शुचिता आदि इन वृत्तियों को देवी-वृत्तियां (Divine Virtues) कह सकते हैं। इन देवी गुणों में प्रेम या करूणा सर्वोपरि है। यदि प्रेम आ गया तो सब कुछ आ गया, ऐसा मानना चाहिए।
झुकी-झुकी बुढिया चली जा रही थी। चंचल युवक ने पूछा ‘अम्मा क्या खोज रही हो ? बुढिया ने उत्तर दिया ‘गतं तारूण्य मौक्तिकम्!‘ आज की मानवता झुकी-झुकी चल रही है। उसका उत्तर भी इसी तर्ज पर ‘गतं मनुष्यता मौक्तकम्!‘ मनुष्यता का पर्याय है प्रेम प्रत्येक व्यक्ति कुछ खोज रहा है। यह भी स्पष्ट नहीं हैं कि किसे खोज रहा है? कभी हम उसे सत्य की खोज कहते हैं, कभी हम उसे परमात्मा की खोज कहते हैं। पर सत्य को कभी जाना ही नहीं तो खो कैसे दिया? परमात्मा से कभी मिलन हुआ नहीं तो परमात्मा से बिछुडे भी कैसे? जगह-जगह भटक रहे हो, कभी मन्दिर जाते हो कभी आश्रम जाते हो, कभी तीर्थों का चक्कर लगाते हो और खोज रहे हो किसी खोई हुई चीज को। तुम कहते हो - मुझे शान्ति चाहिए, मुझे विश्रान्ति चाहिए। भांति-भांति के स्वांग भरते हो - कभी बाबा बनते हो, कभी जन सेवक बनते हो, कभी व्यवसायी बनते हो। कभी कर्म द्वारा खोई वस्तु को पाना चाहते हो, कभी ज्ञान द्वारा प्राप्त करना चाहते हो। अपने सम्बन्धियों से पाना चाहते हो, अपने स्त्री-पुत्रों आदि से पाना चाहते हो, पर चारों ओर से निराशा ही हाथ लगती है। सब ढोंग है, सब दुकानदारी है।
सच्चाई तो यह है कि तुम्हें बीमारी का ही मालूम नहीं है। तुम्हें यह भी मालूम नहीं है कि दर्द पेट में है अथवा सिर में ? वैद्य भी तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता। नानक बीमार पडे। वैद्य को बुलाया गया । नानक हंसने लगे। उन्होंने कहा ‘बीमारी नाड़ी में नहीं है बीमारी तो दिल की है।‘
नानक को वैद्य नहीं गुरू चाहिए था। आप लोगों ने भी खोज की थी या खोजने का बहाना किया था - कोई गुरूजी भी मिले थे। किन्ही गुरूवर्य का नाम भी लेते हो। फिर यह भटकाव किस बात का है ? सोचिए, जरा गंभीरता से सोचिए- क्या आपको वास्तव में गुरू मिले थे ? क्या वास्तव में उस गुरू ने आपको अपना प्रेम दिया था? क्या आपने उस प्रेम रूपी प्रसाद को जी भर कर ग्रहण किया था ?
जिस चीज की खोज चल रही है, जिसे आप पाना चाहते हैं, वह चीज है - प्रेमें हर बच्चा प्रेम लेकर पैदा होता है, इसीलिए तो बड़ा होकर आदमी प्रेम खोजता है। खोज के पहले खोना जरूरी है। लेकिन बडे होने की प्रक्रिया में प्रेम कहीं खो जाता है। उस प्रेम के खोने के कारण ही तुम्हारे हृदय में रिक्तता है। एक अभाव है, एक बैचेनी है। तुम उसी प्रेम को खोज रहे हो। तुम्हारी खोज का विषय परमात्मा नहीं है, प्रेम है। यदि प्रेम मिल गया तो परमात्मा के मिलन का द्वार मिल गया। सत्य तो सब तरफ मौजूद है। उसे खोजने के लिए आंखे चाहिए। वह आंख है प्रेमें प्रेम का अर्थ है - अनुभव करने की क्षमता, संवेदनशीलता। प्रेम का अर्थ है - हृदय के दरवाजे खोलना। लेकिन दरवाजे खोलने का अर्थ यह नहीं है कि उसमें कूड़ा कचरा सब कुछ आने दिया जाए।
प्रत्येक बच्चा प्रेम लेकर पैदा होता है, अतः प्रत्येक बच्चा सुन्दर होता है। प्रेम ही सौन्दर्य है। ज्यों-ज्यों बच्चा बडा होता है, उसके प्रेम का स्त्रोंत सूखने लगता है। हम बच्चे को सिखाते हैं-संदेह करना, अविश्वास करना। इस दुनिया में संदेह की जरूरत है नहीं तो लोग लूट लेंगे। यहां इस दुनिया में धोखा धडी है, बेईमानी है, प्रपंच है, अतः इनसे बचने के लिए संदेह सिखाया जाता है। चारों तरफ लुटेरे हैं। लुटेरों से रक्षा तभी हो सकती है जब बच्चा शंका करना सीख जाए, अविश्वास करना सीख जाए। अविश्वास और प्रेम का क्या सम्बन्ध है ?
प्रेम का अर्थ है - भरोसा। प्रेम का अर्थ है - श्रद्धा। प्रेम का अर्थ है - स्वीकरण। संदेह का अर्थ है - होश रखो, सावधान रहो, कोई लूट न ले। आक्रमण होने से पूर्व ही आक्रमण कर दो। ज्यों-ज्यों बच्चा प्रौढ़ होता है उसकी प्रेम करने की क्षमता पूरी हो जाती है। उसे चारों ओर शत्रु ही शत्रु दिखाई पड़ने लग जाते हैं, मित्र कोई भी दिखाई नहीं पड़ता। यहां तक कि बेटा, बाप पर भी संदेह करने लगता है, शिष्य गुरू पर भी अविश्वास करने लगता है। धोखा देने में होशियार हो जाता है। धोखा देने से प्रेम खा जाता है। आदमी निष्ठुर व संवेदनहीन हो जाता है। जिसे आप सुरक्षा कहते हैं वह प्रेम की कब्र है।
एक राजा ने एक महल बनवाया। महल का एक ही दरवाजा रखा गया। महल पूर्ण सुरक्षित था। महल दूसरे राजा को भी पसंद आया। एक भिखारी ने राय दी इस एक दरवाजे को भी बंद कर दीजिए .......................
जितनी हम सुरक्षा करते हैं इतनी ही कब्र बनने लगती है। यह असुरक्षा का भाव आदमी को जीवन के प्रति निराश, शुष्क एवं हीन कर देता है। सिंह जैसा बलशाली जीव कितना भयभीत है - गाय जैसा कमजोर जीव कितना निर्भय है ?
मृत्यु प्रेम का स्वरूप है। प्रेम महामृत्यु है। जिसने मृत्यु को न समझा, वह प्रेम को नहीं समझ सकता। जिसने प्रेम को न समझा, उसकी समझ में मृत्यु नहीं आ सकती। स्वेच्छा से मरना प्रेम सिखाता है। प्रेम में मिटना होता है। मिटे बिना कोई प्रेम को उपलब्ध नहीं हो सकता। जीसस की कहानी का यही सार है। जीसस ने मृत्यु में ही प्रेम को प्राप्त किया तथा प्रेम में ही मृत्यु को प्राप्त हुए। ईसा का कथन है - प्रेम ही ईश्वर है। प्रेम की आखिरी गहराई मृत्यु है, क्रॉस है, सूली है। मेंसूर का बलिदान प्रेम की सर्वाेच्च स्थिति है। उसका विश्व प्रेम ही मृत्यु का द्वार बना। जो प्रेम में मरने को राजी हैं उसे परमात्मा अमर कर देता है।
कवि गुप्त की पंक्तियां - ‘दोनों ओर प्रेम पलता है।‘
कबीर का कथन है - प्रेम गली अति सांकरी ..........
हेरत हेरत हे सखि रहया कबीरा हेराई।
बूंद समानी समेंद में सो कत हेरी जाई।।
जब प्रेमी प्रेमास्पद में मिल जाता है, एकाकार हो जाता है, तदाकार हो जाता है वह प्रेमास्पद ही हो जाता है। बंूद समुद्र ही हो गई। और समुद्र प्रेम के वशीभूत होकर इतना छोटा हो गया कि जितनी छोटी बूंद।
हम अपने से प्रेम करते हैं और किसी से नहीं, यह सच्चाई है। अपने से प्रेम करने का अर्थ है - अपने अहंकार से प्रेम करना। प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व से मोह होता है। अपने व्यक्तित्व की सुरक्षा के लिए ही वह दूसरों का बलिदान चाहता है। दूसरे भी यही अपेक्षा करते हैं। इस तरह अहंकार अहंकार से टकरा रहे हैं। पति शिकायत करता है मेंरी पत्नी मुझे प्रेम नहीं देती। पत्नी का असंतोष है - मेरा पति मुझे सूखी निगाहों से देखता है। दोनों एक दूसरे से मांग रहे हैं, देने को दोनों ही तैयार नहीं है। दोनों के अहंकारों की टकराहट जीवन भर चलती रहती है। प्रेम का अर्थ है - समर्पण। समपर्ण दूसरे के प्रति होता है, अपने प्रति नहीं। अहंकार देना नहीं जानता। केवल लेना जानता है।
सांसारिक भाषा में, जिसे हम प्रेम कहते हैं, वह केवल एक सम्बन्ध है पिता-पुत्र का, पति-पत्नि का, भाई-भाई का आदि-आदि। प्रेम अलग स्थिति है। वहां रिश्ता अपनी जगह रहता है पर प्रेम, रिश्ते या सम्बन्ध तक सीमित नहीं रहता। वहां ‘में‘ तुमसे प्रेम करता हूं‘ भाव नहीं रहता। वहां ‘में‘ प्रेम हूं का भाव व्याप्त हो जाता है। उस स्थिति में प्रेमी जन्म के भाई को ही भाई नहीं मानता, सभी व्यक्तियों में भाई का सम्बन्ध स्वीकार करता है। उस प्रेम की स्थिति में वासना पूर्णतया समाप्त हो जाती है। अतः ऐसा प्रेम अकलुष होता है। मांसल प्रेम संकीर्ण होता है। उसकी चार दीवारी होती है। सच्चा प्रेम सबके लिए होता है। जिस प्रकार सूर्य की किरणें सबके लिए होती हैं। सच्चा प्रेम मानव-जगत तक सीमित नहीं रहता, वह पशु-पक्षी व वृक्षों तक को प्यार करता है। यह ब्रहमाण्ड हमारा है। यह हमारा घर है। हम अनाथ नहीं हैं। यह धरती हमारी मां एवं आकाश हमारा पिता है। हमारे और अवशेष अस्तित्व के माध्य कोई विभाजन नहीं है। हम एक ही वाद्य-यंत्र के कल पुर्जे हैं। यह भाव सच्चे प्रेम में समा जाता है।
प्रेम के दो ही बाधक तत्व हैं: - आसक्ति एवं ईर्ष्या। आदमी अपने अकेलेपन को मिटाने के लिए आसक्ति करता है। वह एक या कुछेक से दृढता से बंधने की चेष्टा करता है जिससे कि वह अकेला न रह जाए। वह अपनी सुरक्षा के लिए धन, द्रव्य आदि निर्जीव वस्तुओं में भी आसक्त हो जाता है, क्योंकि इन चीजों से भी उसे एकाकीपन में कमी महसूस होती है। पर दुर्भाग्य तो तब प्रगट होता है जब एक-एक कर सभी अपने छोडने लगते हैं। जिन्हंे वह सजातीय मान रहा था, वे सब विजातीय सिद्ध होने लगते हैं। बुढ़ापा आते-आते उसके दुःखों व बेचैनी की सीमा नहीं रहती। एकाकीपन मिटाने के लिए जो उद्यम या प्रयास किया था, वह खोखला साबित होता है। वह पूर्णतया अकेला महसूस करता है। यही कारण है कि बूढत्रा चाहते हुए भी अपने संबंधियों से विलग नहीं हो सकता। घरवाले धक्का देकर बाहर निकालना चाहते हैं, वह पुनः पुनः अपमानित होकर भी उनसे चिपके रहना चाहता है। पूरा जीवन ताश का महल बनकर रह जाता है।
प्रेम की आसक्ति नहीं होती। यदि आसक्ति है तो वहां प्रेम नहीं। निरंतर एवं लम्बे साहचर्य से आसक्ति होती है। आसक्ति चाहे सजीव से हो या निर्जीव से हो दोनों ही दुःखदायी हैं। संसार नाम क्षण भंगुरता का है। जिसमें भी हम आसक्त हैं वह क्षण भंगुर है। उससे विछोह सुनिश्चित है। या तो अगला हमें छोडेगा या हम उसे छोड़ेंगे। मरकर भी पृथक होते हैं, जीते जी भी पृथक हो सकते हैं। पर वियोग सुनिश्चित है। पर प्रेम में वियोग का संयोग नहीं होता। आसक्ति में हम उपेक्षा करते हैं। अपेक्षा जहां है वहां दुःख की संभावना है। प्रेम निरपेक्ष होता है। जीसस को सूली लगाई जा रही थी। जीसस ने सिर ऊपर उठाया और कहा कि हे प्रभो! क्या तूने मुझे छोड़ दिया ? क्या तुम भी धोखा दे रहे हो ? यह तू मुझे क्या दिखा रहा है ?
एक अपेक्षा की जीसस ने परमात्मा से। लेकिन दूसरे ही क्षण जीसस को बोध हुआ कि तू तो अपराध कर रहा है। उन्होंने प्रार्थना की ‘तेरी आकांक्षा पूरी हो। तेरी मर्जी पूरी हो। तेरा राज्य पृथ्वी पर उतरे और तेरी मर्जी के फूल खिल जाएं। बस, इसी क्षण जीसस बुद्ध हुए। सूली पर लटके-लटके बुद्ध हुए। अपेक्षा रहेगी, अपेक्षा हाथ लगेगी। आशा रखोगे, निराशा हाथ लगेगी। सुख मांगोगे, दुःख पाओगे। जैसे ही अपेक्षा छूटी, सब अपेक्षाएं पूरी हो जाती है। प्रेम में अपेक्षा वर्जित है।
प्रेम के मार्ग में दूसरा बाधक तत्व है - ईर्ष्या। बिना कारण के बैर पालता है - ईर्ष्यालु व्यक्ति। मोह और ईर्ष्या का मेंल है। मोह अधिपत्य चाहता है, ज्यों ही आधिपत्य का अतिक्रमण होता है ईर्ष्या प्रारम्भ हो जाती है।
ईर्ष्यालु व्यक्ति कभी प्रेमी नहीं हो सकता। भाई-भाई में ईर्ष्या हो जाती है, यदि दोनों के सामाजिक व आर्थिक स्तरों में कोई अंतर आ जाए तो। मेंने पति-पत्नि में भी ईर्ष्या का भाव देखा है। पति प्रवक्ता पत्नी आर.ए.एस.। बस चालू हो जाती है ईर्ष्या। जो दूसरे के सुख व ऐश्वर्य से सुखी होता है तथा दूसरे के दुःख से दुःखी होकर उसके त्राण के लिए दौडकर उसकी सहायता के लिए पहंुचता है वही प्रेमी हो सकता है। पर सुख से आनन्द एवं पर दुःख से करूणा का भाव जिस हृदय में होता है वही प्रेमी हो सकता है। जो दूसरों को सुखी देखने के लिए अपने जीवन तक का बलिदान दे देता है, वही प्रेमी है।
प्रेम की कसौटी है - कबीर का कथन है - प्रेम गली अति सांकरी ..........
हेरत हेरत हे सखि रहया कबीरा हेराई।
बूंद समानी समेंद में सो कत हेरी जाई।।
मिटा दे अपनी हस्ती को, जलादे खुद खुदाई को।
बीज जब मिट्टी में मिलता है गुले गुलजार होता है।
कसौटी को अपने ऊपर लागू कर देखिए कि आप वास्तव में प्रेमी हैं ?
बीज जब मिट्टी में मिलता है गुले गुलजार होता है।
बाबाजी महाराज की निर्वाण तिथि की पूर्व संख्या पर प्रवचन 23 जुलाई 1993
श्री बैजनाथजी महाराज के उद्बोधन