पिछले पांच हजार वर्षों में भारत के धर्माकाश में कुछ महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हुए हैं यथा-कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य, गोरखनाथ, कबीर, नानक, मीरा, रामकृष्ण परमहंस आदि। इनमें कृष्ण, जिस प्रकार श्रृंखला की पहली कड़ी है उसी प्रकार गोरखनाथ भी एक श्रृंखला की पहली कड़ी हैं। उनके द्वारा एक नए धर्म का आविर्भाव हुआ, प्रारम्भ हुआ। गोरख के बिना न तो कबीर हो सकते हैं, न नानक। न दादू व वाजिद, न फरीद और न मीरा। गोरख के बिना ये कोई भी नहीं हो सकते। इन सबके मौलिक आधार गोरख हैं। गोरख नींव प्रस्तर हैं। शिखरों की पूजा होती है, बुनियाद के पत्थर को तो लोग भूल ही जाते हैं। ऐसे ही लोग गोरख को भूल गए हैं। लेकिन भारत की सारी संत परम्परा गोरख की ऋणी है। जैसे पंतजलि के बिना भारत में योग की कोई संभावना नहीं रह जाएगी, जैसे बुद्ध के बिना ध्यान की आधार शिला उखड़ जाएगी जैसे कृष्ण के बिना प्रेम की अभिव्यक्ति को मार्ग न मिलेगा, ऐसे ही गोरख के बिना उस परम सत्य को पाने के लिए विधियों की जो तलाश हुई, साधना की जो व्यवस्था बनी, वह न बन पाएगी। गोरख ने जितना आविष्कार किया, मनुष्य के अन्तर को खोजने के लिए, उतना शायद ही किसी ने किया होगा। रूपान्तरण के लिए उन्होेने इतनी विधियां दी हैं कि गोरख आध्यत्मिक जगत के एक बहुत बड़े आविष्कार हैं। अन्दर जाने के लिए उन्होंने बहुत सारे दररवाजे तोडे़ हैं। साधना की विधियों की जो बहुलता गोरख में विद्यमान है उसे देखकर आज भी हम ’गोरख धंधा’ शब्द का प्रयोग करते हैं। उन्होंने इतनी विधियां दी कि लोग उलझ गए। कौनसी विधि ठीक है ? कौनसी नहीं ? कौनी सी विधि साधें और कौनसी छोड़ें ?
गोरख के वचन सुनकर आप चौकेंगे। गोरख के शब्द अनगढ़ हैं। पर प्रहार बहुत गहरा है। वस्तुतः गोरख ही नहीं, गोरख परम्परा के अधिकांश संतो के शब्द अनगढ़ ही हैं पर मौलिकता एवं प्रभाव शीलता दर्शनीय है। ऐसी ही कुछ पंक्तियों का विश्लेषण करने की चेष्टा कर रहा हूं।
’मरौ वै जोगी मरौ, मरौ मरण है मीठा’। एक मृत्यु है जिससे हम परिचित हैं, जिसमें देह मरती है मगर हमारा अहंकार और हमारा मन जीवित रह जाता है। वही अहंकार नये गर्भ में चला जाता है, वही अहंकार नई वासनाओं से पीड़ित हुआ फिर यात्रा पर निकल जाता है। एक देह छूटी नहीं कि दूसरी देह को पकड़ लेता है। यह मृत्यु तो वास्तविक मृत्यु नहीं है। गोरख कहते हैं वास्तविक मृत्यु को प्राप्त हो। गोरख का अहंकार मरा गोरख नहीं मरे। द्वैत मरा अद्वैत बच गया। बूंद मरी तो सागर हो गई। यह भौतिक जीवन तो गया पर एक महा जीवन प्राप्त हुआ। हम अहंकार के अतिरिक्त और हैं ही क्या ? अहंकार ही जाता है। जितने गलोगे, उतने बड़े हो जाओगे। गल कर यदि भाप बन गए तो सारा आकाश तुम्हारा है। जिसे मरने की कला आ गई, उसे जीने की कला आ गई। मृत्यु की कला ही महाजीवन को पाने की कला है। जिसने महाजीवन प्राप्त किया उसकी अनुभूति क्या है ? उसकी अभिव्यक्ति क्या है ? इसी का विवेचन करते हुए गोरख कहते हैं:
’बसती न सून्यं, सून्यं न बसती,
अगम अगोचर ऐसा।
गगन सिखर मांहि बालक बौले
तांका नांव धरोगे कैसा।
न तो हम कह सकते हैं परमात्मा है, और न यह कह सकते हैं कि वह नहीं है। परमात्मा ’है’ और नहीं दोनों का जोड़ है, अतः दोनों के पार है। आस्तिक कहता है ’है’, नास्तिक कहता है ’परमात्मा नहीं है।’ दोनों ने आधा-आधा चुना है। उसके होने का ढंग, नहीं होने का ढंग है। उसकी पूर्णता शून्य की पूर्णता है, उसकी उपस्थिति अनुपस्थिति जैसी है। परमात्मा में सारे विरोध और सारे विरोधात्मक समाहित होते हैं। अतः कहा गया है- इस परमात्मा का अस्तित्व शून्य में नहीं है। अर्थात उसका अस्तित्व पूर्णता में है। पर पूर्णता शून्य की पूर्णता है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वह जड़ शून्य है, वह तो चेतन शून्य है। जड़ एवं चेतन दोनों समाहित हैं उसके अस्तित्व में।
भौतिक जगत में आप कदम-कदम पर यह चमत्कार देखते रहते हैं। चीजें हैं, पर काल परिपाक से चीजें चली जाती हैं। प्रश्न उठता है-चीजें जाती हैं तो कहां जाती हैं ? नहीं होकर भी तो कहीं होती होगी। नहीं होकर भी कहीं बनी रहती होगी। एक बड़ा वृक्ष है। उस पर एक बीज लगा है। वृक्ष मर जाएगा, तब तुम बीज को बो दो, फिर वृक्ष हो जाएगा। बीज का क्या था ? वृक्ष का नहीं होना था। बीज को तोड़कर तुम वृक्ष को नहीं खोज सकते। पर किसी न किसी अर्थ में बीज में वृक्ष छिपा है। ज्यों ही बीज वृक्ष बनेगा, बीज खो जाएगा। दोनों साथ नहीं हो सकते। वृक्ष खोता है, बीज हो जाता है, बीज खोता है वृक्ष हो जाता है।
सृष्टि भी परमात्मा का रूप है, प्रलय भी परमात्मा का रूप है। उसका एक रूप है अभिव्यक्ति और एक रूप है अनाभिव्यक्ति। जब तुम तार छेड़ देते हो, वीणा में संगीत जग जाता है। अभी-अभी कहां था ? क्षण भर पहले कहां था ? शून्य में था। था तो जरूर। न होता तो पैदा नहीं हो सकता था। छिपा पड़ा था। ब्रहमाण्ड के शून्य में। संगीतज्ञ स्वर पैदा नहीं करता, सिर्फ जगता है, सोए को जगाता है। इस जगत में न तो कोई चीज बनाई जा सकती है और न मिटाई जा सकती है। अब तो विज्ञान भी इस बात से सहमत है। तुम रेत के एक छोटे से कण को भी मिटा नहीं सकते हो और न बचा सकते हों। न तो कुछ बनाया जा सकता है न कुछ घटाया जा सकता है। जगत उतना ही है, जितना है लेकिन फिर भी चीजें बनती और मिटती हैं। यह सब ऐसे ही हो रहा है जैसे नाटक के पात्र परदे के पीछे चले जाते हैं और फिर पर्दे के बाहर प्रकट हो जाते हैं। परदा उठा और परदा गिरा। जब एक व्यक्ति मरता है तो उसका है रूप ’नहीं’ हो जाता है। अभी था और अब नहीं है। पर यह ’नहीं’ स्वरूप ही फिर है स्वरूप हो जाएगा। इस ’नहीं’ में ही ’है’ समाहित है और इस ’है’ में ही नहीं समाहित है बाबाजी महाराज का वचनअगम अगोचर ऐसा।
गगन सिखर मांहि बालक बौले
तांका नांव धरोगे कैसा।
’है’ कहंू तो कोई न पतीजै ’न’ कहूं तो झूठा।
’है’ की जगह ’है’ स्थित है। है’ ही ’न’ न बींधा।
ईश्वर के दोनों रूप हैं। साकार भी वही है, निराकार भी वही है। सगुण भी वही है निर्गुण भी वही है। न तो यह कह सकते हैं कि वह ’है’, न यह कह सकते हैं कि वह ’नहीं’ है। न वह शून्य है और न वह पूर्ण है। अगम अगोचर ऐसा... ऐसा अगम है। हमारा कोई शब्द उसको माप नहीं सकता। हमारे शब्द छोटी-छोटी चाय की चम्मचों जैसे हैं, वह सागर जैसा है। हमारे सब माप बहुत छोटे हैं। हमारी सामर्थ्य बहुत छोटी है। उसका विस्तार अनन्त है, वह असीम है।
’है’ की जगह ’है’ स्थित है। है’ ही ’न’ न बींधा।
रहिमन बात अगम्य की कहनि सुननी की नांहि।
जे जानति ते कहति नहीं, कहत ते जानति नांहि।।
अगम्य का अर्थ है जिसकी हम थाह न पा सकें। अर्थात् अथाह। लाख करें उपाय और थाह न पा सकें। क्योंकि थाह है हि नहीं। और जो उसकी थाह लेने गए वे धीरे-धीरे उसी में लीन हो गए हैं।
कहते हैं, दो नमक के पुतले एक बार सागर की थाह लेने गए थे। छलांग लगा दी सागर में। भीड़ इकट्ठी हो गई थी। मेंला लग गया। सागर के तट पर। फिर कई दिनों तक प्रतीक्षा होती रही। मेंला भी विसर्जित हो गया। वे पुतले न लौटे सो न ही लौटे। नमक के पुतलों को थाह भी नहीं मिली और खुद भी मिट गए। ’हेरत’, हेरत हे सखि, रहा कबीर हिराई।’ गए थे खोजने, खुद ही खो गए। नमक के पुतले सागर की खोज में जाएंगे, कब तक बचेंगे ? गल गए होंगे। सागर के ही तो वे हिस्से थे। हम भी नमक के पुतले हैं, वह सागर है, उसे खोजने जाएंगे, खो जाएंगे। अगम्य का अर्थ होता है, सिर्फ अज्ञात नहीं, क्योंकि अज्ञात वह है जो कभी ज्ञात हो जाएगा। आज जो ज्ञात हो गया है वह कभी अज्ञात था। अभी तक चांद अज्ञात था, अब ज्ञात हो गया। अभी तक अणु का रहस्य अज्ञात था, अब ज्ञात हो गया है। परमात्मा अज्ञात नहीं है। धर्म कहता है- जगत में तीन तरह की स्थितियां है- (1) ज्ञात जो जान लिया गया। (2) अज्ञात जो जान लिया जाएगा और (3) अज्ञेय, जो न जाना गया है और न जाना जाएगा। विज्ञान जगत में केवल दो स्थितियां मानता है ज्ञात एवं अज्ञात। धर्म का अज्ञेय शब्द ही परमात्मा के लिए लागू होता है। कुछ ऐसा भी है जो न जाना गया है और न जाना जाएगा। क्योंकि उसका राज ही है कि खोजने वाला स्वयं खो जाता है उसमें।
बुद्ध के पास एक आदमी आया। उसने कहा ’जो कहा नहीं जा सकता। वही सुनने आया हूं। बुद्ध ने आंखे बंद करली। बुद्ध को आंखे बंद किए देखकर वह आदमी भी आंखे बंद करके बैठ गया। दोनों किसी में खो गये। कहीं दूर शून्य में दोनों का जैसे मिलन होने लगा। वह आदमी एक घंटे बाद उठा। उसकी आंखांे में आनंद के आंसू बह रहे थे। उसने बुुद्ध को प्रणाम किया और कहा- धन्य भाग्य हैं मेंरे । बस ऐसे ही आदमी की तलाश था जो बिना कहे कह दे। आपने खूब सुन्दरता से कह दिया। में आनंद मग्न हो गया हूं। उसके जाने के बाद आनंद (भिक्षु) ने पूछा- प्रभो! मामला क्या है ? बुद्ध ने बदाहरण दिया- सत्संग के दो रूप हैं- एक जब गुरू बोलता है, शिष्य सुनता है। यह वह स्थिति होती है जब शिष्य सुनकर ही कुछ ग्रहण कर सकता है। एक दूसरी स्थिति होती है-जब गुरू मौन रहता है उसकी भाषा तंरगों की भाष होती है। शिष्य समीप बैठकर तंरगो से तरंगायित होता है। इस स्थिति को पुराने दिनों में ’उपनिषद्’ कहते थे अर्थात् ’उप’ याने समीप तथा ’निषद्’ याने बैठना। गुरू के पास बैठकर शून्य में जो संगीत सुना गया था, उसको ही संगृहीत किया गया है, उसी से उपनिषद् बने। उपनिषद् का अर्थ होता है- पास बैठना, सत्संग करना।
’गगन सिखर में बालक बोले’ सहस्रार में उस बालक का निवास है। ब्रह्माण्ड में उस परमसत्ता की उपस्थिति है। जब सब विचार विदा हो जाते है, जब अहंकार विदा हो जाता है, जब ’में’ हूं ऐसा भाव नहीं रह जाता, जब वहंा केवल रहता है- मौन, शान्त, शून्य। विचार का मार्ग शून्य हो गया, शान्त हो गया। चित्त निर्विषय हो गया। तुम केवल शुद्ध दर्पण रह गए, जिसमें अब कोई छाया नहीं बनती, कोई प्रतिबिम्ब नहीं बनता। इस अवस्था में तुम्हारे भीतर कमल खिलता है। वह कमल परम आनंद का प्रतीक है। जैसे संघजात बच्चे की निर्दोष आवाज होती है, वैसी ही आवाज उस शून्य शिखर में गूंजती है जिसे अनहद नाद कहा जाता है। ऐसी ही अवस्था में ऋषियेों ने वेद सुने, ईसा ने बाइबिल सुनी, मुहम्मद ने कुरान सुनी। ऐसी ही अवस्था में जगत के सारे शास्त्रों का जन्म हुआ। वे सभी अपौरूषेय हैं। किसी पुरूष द्वारा उनका निर्माण नहीं हुआ है।
’गगन शिखर में......। उसका नाम धरोगे कैसा।’ वह निर्दोष स्वर जब भीतर उठता है तो उसे कोई नाम नहीं दिया जा सकता। वह अनाम है। उसे कोई विशेषण नहीं दिया जा सकता। वह असीम है, वह अनन्त है। बिन्दु सिंधु हो गया। बूंद उड़ गई। आकाश हो गई। अब कौन बोले ? क्या बोले ? वह गूंगा हो जाता है। लेकिन जिसको यह अनुभव हो गया, उसके जीवन में कुछ विशेषताएं दिखाई पडने लग जाएगी। हंसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्....। उसे तुम देखोगे हंसते हुए, खेलते हुए। जीवन उसके लिए लीला हो गया। उसे तुम गंभीर नहीं पाओगे। तुम सदैव उसे हसंता हुआ पाओगे। हंसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्-उसके लिए सब हंसी खेल है सब लीला है इसलिए कृष्ण को हमने पूर्णावतार माना। राम गंभीर हैं, छोटी-छोटी बात का हिसाब रखते हैं, नियम मर्यादा से चलते हैं। मर्यादा पुरूषोतम है। कृष्ण सभी नियमें से ऊपर है। कृष्ण के लिए जीवन लीला है। वस्तुतः जीवन एक खेल है। उसको खेल से ज्यादा मत लेना। नाटक समझो, अभिनय समझो। जो अभिनय मिल गया है, उसी को मस्ती से करना है। किसी को रावण भी तो बनना पड़ता है। पर्दे के पीछे तो राम एवं रावण दोनां एक जैसे ही हैं।
जीवन एक अभिनय है। हंसो, खेला एवं ध्यान करो। ध्यान का अर्थ है- मन का समग्र रूप से खाली हो जाना। मन समय का परिणाम है, मन विकास का परिणाम है, मन हजार अनुभवों का परिणाम है। यह ज्ञान एवं स्मृतियों का एक विशाल संग्रह है। मन अतीत से बोझिल हैं जब तक मन इन हजारांे अनुभवों से खाली नहीं हो जाता, सत्य का दर्शन नहीं कर सकता। ध्यान का अर्थ है अपनी जीवन-ज्योति स्वयं जलाना। क्योंकि दूसरों द्वारा जलाई गई ज्योति बहुत जल्दी बुझ सकती है। ध्यान का निहितार्थ है- मन एवं हृदय का संपूर्ण आमूल चूल परिवर्तन। यह तभी संभव है जब आन्तरिक मौन का एक गहन बोध हो। पूर्ण रिक्त मन ही ’उसे’ जानता है जो परम पुनीत और पवित्र है। ’अहनिशि कथिबा ब्रहम गियानम्’ रात-दिन ज्ञान कथते रहो। रात-दिन आत्मा के अनुभव में डूबे रहो। ’हंसे खेले न करे मन भंग।’ मन क्या है ? विचार एवं भावनाओं का योग मन है। मस्तिष्क एवं हृदय की संयुति मन है। अतीत के विचार, भविष्य की योजनाएं-यही मन है। जो हो चुका, उसका शोरगुल, जो होना चाहिए, उसकी अपेक्षाएं यह मन है।
चिन्तन के दो पक्ष हैं- (1) एक विश्लेषक एवं दूसरा विश्लेषित। यह विश्लेषक उन अनेक खंडो में से ही एक खंड विश्लेषक की सत्ता ग्रहण कर लेता है और यही अन्य खण्डों का विश्लेषण करने लगता है। उदाहरण स्वरूप आप किसी से ईर्ष्या करते हैं। आप के मन का एक खण्ड कहता है ’मुझे ईर्ष्यालु नहीं होना चाहिए। ईर्ष्या को स्वयं से पृथक वस्तु के रूप में देखता है। जिसे वह नियंत्रित करने की चेष्टा करता है। इसी मन का एक खण्ड तक्र देता है कि उस आदमी से ईर्ष्या करना गलत नहीं है क्योंकि उसने मेंरे साथ ये-ये गलत व्यवहार किए हैं। अर्थात् आप के मन का ही एक खण्ड ईर्ष्या को न्यायोचित ठहराता है। है न द्वन्द्व ? बंदी ही बंदी को मुक्त कराने की चेष्टा कर रहा है। पागल ही पागल की चिकित्सा कर रहा है। यह विश्लेषक आपका ही हिस्सा है। आपके मन का हिस्सा है जो अन्य हिस्सों का विश्लेषण कर रहा है। मन का एक खण्ड ही केन्द्र बन जाता है निर्णायक के रूप में। यह केन्द्र स्वयं ही भय, चिंता, लोभ, सुख, निराशा, आशा, महत्वाकांक्षा का एक केन्द्र है। और इसी केन्द्र से हमारा सारा सोच विचार और हमारी सारी क्रिया होती है। इस विश्लेषक एवं विश्लेषित के अलगाव में ही द्वन्द्व की पूरी प्रकिया मौजूद है।
अतः गोरख कहते है- ’अहनिशि कथिबा ब्रह्मगियानम्।’ रात-दिन सजग रहो, होश में रहो, ज्ञान में रहो। ’अहनिशि’ का अर्थ -वर्तमान में जीआ। इसी क्षण जीओ, क्षण-क्षण जीओ। कुछ लोग अतीतोन्मुख हैं, उनकी आंखे पीछे गडी हैं। कुछ लोग भविष्योन्मुख हैं उनकी आंखे आगे गड़ी हैं। दोनों वंचित रह जाते हैं उससे- ’जो’ है और ’जो’ है अभी इस क्षण वही परमात्मा का रूप है। आपने कभी खयाल किया है वर्तमान में सदा रस है और वर्तमान में सदा आनंद है। क्रिया चाहे सही हो या गलत उसके क्रियान्वयन का अनुभव वर्तमान में ही होता है। उसका फल बाद में मिल सकता है पर अनुभूति तो वर्तमान में ही होती है। जब दुःखी होते हो या चिंतित होते हो- उसका संबंध या तो भूत से होता है या फिर भविष्य से। कुछ बड़ा काम करना चाहते थे, नहीं कर सके, दुःखी हो गये। कुछ गलतियां की ं, उनके परिणाम भोग रहे हैं, अतः दुःखी हो। इसी तरह सैकड़ो-सैकड़ों तरह से भविष्य की काल्पनिक पीड़ाओ से भयभीत हो। पर शायद ही कभी आपने देखा होगा कि वर्तमान में न दुःख है और न चिंता। वर्तमान इतना छोटा होता है कि उसमें न दुःख समाता है और न सुख समाता है। अतः वर्तमान को पकड़ो, वर्तमान को समझो, वर्तमान में जीओ, वर्तमान के होश में रहो। यह तभी संभव है ’हंसिबा खेलिबा गायबा गीत, दृढ़ करि राखिबा अपना चित्त।’ गुन गुनाते रहो प्रभु का संगीत, लगे रहो अपने नियत कर्म में तथा खाली करदो कचरे से इस मन को। यही मुक्ति है, यही भजन है, यही ध्यान है।
जे जानति ते कहति नहीं, कहत ते जानति नांहि।।
बाबाजी महाराज की निर्वाण तिथि की पूर्व संध्या पर दिया गया प्रवचन - 26 जुलाई 1990
श्री बैजनाथजी महाराज के उद्बोधन