अध्यात्म साधना  

आप बगीचे में विभिन्न रूप रंगों के पुष्प देखते हैं। पुष्पों का रंग रूप एवं सौरभ महसूस कर जान लेते हैं कि यह अमुक फूल है। वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श से हम वस्तु को जान लेते हैं। प्रश्न होता है- फूल क्या है ? फूल का रंग-रूप फूल नहीं है, फूल की सुगन्ध फूल नहीं है, फूल के गुणों से फूल को पहिचानते हैं पर फूल के गुण तो फूल नहीं है। वह क्या है जिसके आधार पर फूल के ये गुण टिके हुए हैं ? जो हम जान रहे हैं, बता रहे हैं, वे सब तरंगें हैं, सागर नहीं है। तो फिर फूल का मूल क्या है ? आध्यात्मिक खोज रहा हे, वैज्ञानिक खोज रहा है, इस मूल को। इसी मूल को खोजने में धर्म का जन्म हुआ, अध्यात्म का विकास हुआ।

एक यक्ष प्रश्न है-‘किमाश्चर्यं मतः परम’ अर्थात् सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ? हम अपने आपको नहीं जानते यही सबसे बड़ा आश्चर्य है। हजारों वर्षों से आदमी के सामने प्रश्न है - कोऽहम् मैं कौन हूं।’ ‘मैं कौन हूं’ इस प्रश्न के अन्वेषण में आदमी ने अपने अस्तित्व की कई परतें उघाड़ी। उसे प्रतीत हुआ-मेरा यह शरीर मैं नहीं है, मेरी इन्द्रियां, मेरी बुद्धि मैं नहीं है। एक बिन्दु आया, एक अन्तिम ठहराव आया, साधक के अनुभव में, वह अनुभव था, ‘सोऽहम’ ‘मैं हूं’ मेरे सिवाय अन्य किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं है। अध्यात्म की यात्रा ‘कोऽहम्’ से प्रारम्भ हुई एवं ‘कोऽहम्’ पर सम्पूर्ण हुई। अनन्तकाल से बेटा खोज रहा है अपने परम पिता को और परमपिता बेटे के हृदय में बैठा-बैठा मुस्करा रहा है तथा कह रहा है-यह रहा मैं।

आज मूल प्रश्न है-आदमी का जीवन कैसे बदले ? आदमी को परम शान्ति एवं परमानंद की प्राप्ति कैसे हो ? आदमी को बदलने के लिए अध्यात्मिक यात्रा परमावश्यक है। आध्यात्मिक साधना का अर्थ है-भीतर की यात्रा। आध्यात्म का अर्थ है-आत्मा के भीतर। आत्मा के बाहर-बाहर हम यात्रा कर रहे हैं। अतीत से कर रहे हैं। कभी भीतर जाने का अवकाश ही नहीं मिला। हम मानते हैं दुनिया में जो कुछ सार है वह बाहर ही है भीतर कुछ भी नहीं। वास्तविकता यह है कि जो भीतर की यात्रा कर लेता है उसे बाहर का सत्य असत्य जैसा प्रतिभासित होने लगता है। जैसे दिन भर का थका हुआ पक्षी अपने घोंसले में आकर विश्राम करता है वैसे ही बहिर्मुखी प्रवृत्तियों से त्रस्त आदमी कहीं विश्राम ले सके; कहीं शान्ति का अनुभव कर सके वह स्थान हो सकता है-केवल अध्यात्म, केवल भीतर का प्रवेश। साधना करते-करते अनुभव की चिन्गारियां उछलती है, अनुभव के स्फुलिंग बिखरते हैं, तब आदमी यह घोषणा करता है-बाहर निस्सार है, भीतर सार है। हमने भीतर को खोया-सब असार हाथ लगा। हमने भीतर को पाया-सब सार ही सार प्रतीत हुआ।

सभी धर्म इसी ओर संकेत कर रहे हैं। उपनिषद् कहते हैं। ‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत’ शिव बनकर शिव का अनुभव करो।

अर्थात आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो। बुद्ध कहते हैं-‘अप्प दीपो भव’। महावीर कहते हैं ‘संपेक्खिए अप्प गमप्यएण’ आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो। बाइबिल कहती है 'O Father, Make my the eye, make my the light' कुरान कहती है, ‘मेरे खुदा, तेरे नूर की रोशनी इस बंदे में भर दे।’ सभी घोषणाएं एक ही गन्तव्य की ओर संकेत कर रही हैं। वीथिकाएं, पगडण्डियां अलग-अलग हो सकती हैं पर लक्ष्य सबका एक ही है और वह लक्ष्य है-आत्मा का साक्षात्कार या आत्मा की अनुभूति। आत्मा की अनुभूति के बिना आदमी का आमूल-चूल रूपान्तरण संभव नहीं है। आत्मानुभूति के लिए एक ठोस, वैज्ञानिक एवं प्रामाणिक मार्ग चाहिए, एक सिस्टेमेटिक टेक्नीक चाहिए, एक विश्वसनीय पद्धति चाहिए। आप क्रोध को रोकना चाहते हैं पर रूकता नहीं अपितु रोकने के प्रयास में वह उग्र हो जाता है। हम क्रोध को रोक नहीं रहे हैं, क्रोध से कुश्ती लड़ रहे हैं। जितनी बार हमारी क्रोध से कुश्ती होती है, हम पराजित होते हैं। क्रोध और प्रबल हो जाता है और हम निर्बलतर हो जाते हैं। अध्यात्म यह कहता है-अंधकार को समाप्त करने के लिए अंधकार से लड़ने की क्या आवश्यकता है। अंधकार से लड़ा नहीं जाता। जिसकी सत्ता ही नहीं उससे लड़ाई कैसे होगी ? सत्ता तो प्रकाश की है। प्रकाश के अभाव का नाम, अनुपस्थिति का नाम अंधकार है। प्रकाश कर लिया जाए तो अंधकार मिट जाता है। प्रकाश आ जाए तो अंधकार नहीं है। अशान्ति भी अभाव है, दुःख भी अभाव है, घृणा भी अभाव है। घृणा है प्रेम की अनुपस्थिति। प्रेम बढ़े, प्रेम जगे, प्रेम गहरा हो तो घृणा विलीन हो जाएगी। असत्य सत्य की अनुपस्थिति है। सत्य बढ़े, सत्य विकसित हो तो असत्य क्षीण हो जाएगा। अशान्ति शान्ति की अनुपस्थिति है। शान्ति जगेगी, शान्ति बढ़ेगी, अशान्ति विदा हो जाएगी। आवश्यकता है विधायक पक्ष को उभारने की, बाहर लाने की। ज्यों ही विधायक पक्ष उभरेगा, निषेधात्मक पक्ष विदा हो जाएगा। विधायक पक्ष को सबल करने के लिए साधना की आवश्यकता है। मनुष्य योनि से पूर्व की सभी योनियां प्रकृति एवं महाकाल के विधान पर आश्रित हैं। उनको कुछ करने कराने की आवश्यकता नहीं है। वे तो तैरती रहती हैं, बहती हैं। उन्हें अपने उद्धार करने की कोई चेष्टा नहीं करनी है। उनकी पदोन्नति तो उर्ध्व मुखी, सीधी एवं सरल है। मनुष्य योनि में स्वकृत कर्मों का फल भोगना होता है। यहां कर्म की गति वक्र, चक्राकार एवं अनन्त वैचित्रयमयी हो जाती है। मनुष्य को अपना उद्धार स्वयं का ही करना होता है। अतः उपनिषद् कहता है, ‘उद्धेदात्मनात्मानम्’ अपना उद्धार स्वयं को ही करना है।

प्रश्न है, यह उद्धार कैसे संभव है? उद्धार के लिए वैराग्य भाव चाहिए या अभ्यास चाहिए। वैराग्य का अर्थ है जो पूर्णतया राग मुक्त हो गया हो। जो जीतने की कामना करता है उसे ही हार का भय सताता है। वैराग्य का अर्थ है-पूर्ण अनासक्ति। वैराग्य में केवल अनुराग बचता है और सब छूट जाते हैं। पर प्रत्येक व्यक्ति के लिए वैरागी होना संभव नहीं है। वैराग्य या तो प्रारब्ध कर्मवशात् उत्पन्न होता है या फिर अभ्यास के द्वारा प्राप्त हुई अनुभूति के कारण पैदा होता है। बूढ़े, रूग्ण एवं मृत व्यक्तियों को हम देखते ही हैं पर हमसे से कितनों को वैराग्य होता है पर बुद्ध ने ज्यों ही बीमार, बूढ़ा एवं मृत को देखा, वैराग्य हो गया। तुलसीदास ने अपनी पत्नी की एक झिड़की पर ही संसार से मुख मोड़ लिया। निमित्त पाकर प्रारब्ध कार्य जागे, वे प्रभु प्रेम में लीन हो गए। भर्तृहरि को उसकी पत्नी ने धोखा दिया, वे अलख जगाने राजमहल से निकल पड़े। ऐसे हजारों उदाहरण आध्यात्मिक इतिहास में मिल जाएंगे, जब एक छोट सा निमित्त पाकर व्यक्ति वैरागी हो गया।

समाधान यही मिलता है कि वैराग्य भाव प्रारब्ध कर्मजन्य है तो फिर बचता है अभ्यास। अभ्यास हर व्यक्ति, जो रूचि रखता है, कर सकता है। अभ्यास का अर्थ है-पुरुषार्थ। पुरुषार्थ का अर्थ है-वर्तमान में जीना। महावीर ने कहा है-‘खणं जाणिए पंडिए’-साधक तुम क्षण हो जानो’ क्षण को जानना ही पुरुषार्थ है। हम या तो भूतकाल में जीते हैं या फिर भविष्य में। वर्तमान में जीना हमें नहीं आता। वर्तमान में जीने का अर्थ है-पुरुषार्थ करना, अभ्यास करना। अभ्यास के लिए हमारे पास तीन आधार हैं -
1. शरीर 2. वाणी अर्थात् शब्द 3. मन।

साधक को सर्व प्रथम शरीर को जानना एवं साधना बहुत जरूरी है। शरीर बहुत बड़ा यंत्र है। विश्व की सबसे बड़ी फैक्ट्री भी इसके समक्ष छोटी पड़ती है। पूरे शरीर में 60 खरब न्यूरोन, सेल हैं जो स्वायतशासी हैं। प्रत्येक सेल 11 जिम्मेदारियों का निर्वहन करता है। बिजली बनाता है, अपने क्षेत्र में बिजली सप्लाई करता है, ज्ञानग्राही तन्तुओं से सूचना प्राप्त करता है, ज्ञानग्राही तंतुओं से सूचना मस्तिष्क एवं शरीर में फैलाता है, क्रियावाही तंतुओं को कार्य के लिए सूचित करता है। एक सेल, एक अदना सा सेल 1 लाख तक सूचनाएं संग्रहीत कर सकता है। मस्तिष्क में 1 खरब सेल एक साथ सक्रिय हैं। लाखों-करोड़ों स्मृतियों के प्रकोण हैं। लाखों-करोड़ों आवेशों के प्रकोष्ठ हैं सबकी स्वचालित व्यवस्था है। पूरे ज्ञान तंतुओं की लम्बाई 1 लाख मील है जबकि पूरी पृथ्वी का क्षेत्रफल 25 हजार वर्ग मील है। सामान्यतया हम हमारी क्षमता का मात्र 5 प्रतिशत प्रयोग करते हैं। कुछ लोग इससे भी कम प्रयोग कर पाते हैं। बड़े-बड़े महापुरुषों ने अपनी क्षमता का मात्र 20 प्रतिशत प्रयोग किया है। विश्व का पूरा उद्योग तंत्र, राजतंत्र एवं समाज तंत्र इस शरीर तंत्र के समक्ष बहुत छोटा है। इसीलिए ‘पिण्डे सो ब्रह्माण्डे’ कहा गया है। पहला कार्य है-शरीर तंत्र की विराटता को समझे। दूसरा कार्य है- शरीर को निवृत्त करना और प्रवृत्त करना। प्रवृत्त करने में आसन, प्राणायाम, स्वांस की क्रियाएं, बैठने की सारी मुद्राएं आ जाती है। शरीर को निवृत्त करने का अर्थ है - शरीर को सारी क्रियाओं से मुक्त कर हल्का बना देना मानो कि शरीर है ही नहीं। शरीर को साधने के लिए अभ्यास जरूरी है। यदि एक आसन में हम एक घंटा भी नहीं बैठ पाते हैं, तो साधना करना बिल्कुल संभव नहीं है। अभ्यास में साधना क्रम ही तो है। साधना के लिए शरीर को साधना बहुत जरूरी है। गोरखनाथ जी महाराज कहते हैं:-
‘आसन दृढ़ आहार दृढ़ जे निद्रा दृढ़ होय।
गोरख कहे सुनो रे पूता, मरे न बूढ़ा होय।।

दृढ़ आसन, दृढ़ आहार एवं दृढ़ निद्रा-साधना की पूर्व शर्तें हैं। बैठने का आसन दृढ़ होना चाहिए। भले ही वह सुखासन ही हो। तीन आसन साधना के लिए उपयोगी एवं व्यवहार्य है-सुखासन, पद्मासन और सिद्धासन। इनमें से जो भी आसन आपको सुगम लगे, आरामदायक लगे उसे ही अपनाना चाहिए। आसन वहीं स्वीकार्य है जिसमें बैठकर आप तकलीफ महसूस न करें। आसन तीनों में से जो चाहे अपना लें पर एक घंटा की लगातार बैठक का अभ्यास होना जरूरी है। एक घंटा की लगातार बैठक आप बिना किसी कष्ट के कर लेते हैं, इतना अभ्यास परम आवश्यक है।

शरीर को साधने के लिए दूसरी आवश्यकता है-संयमित आहार की। आयुर्वेद में अच्छे स्वास्थ्य के लिए तीन शर्तें बताई है आहार की 1. हितभुक् 2. मितभुक 3. ऋतुभुक। वही खाया जाए तो शरीर के अनुकूल हो। शरीर की अपनी अपनी प्रकृति है। अनुसंधान कर जान लें कि मेरे शरीर को कौन-कौन सी खाद्य सामग्री अनुकूल पड़ती है। जो अनुकूल खाद्य सामग्री है उसी का प्रयोग किया जाए। बीच-बीच में उपवास भी किए जाए। अधिक आहार से मल संचित होते हैं। जिसके शरीर में मल संचित होते हैं, उसका नाड़ी संस्थान शुद्ध नहीं रहता और मन भी निर्मल नहीं रहता। दुःखदायी एवं उटपटांग स्वप्न उसी रात को ज्यादा आते हैं जिस रात आपने जरूरत से ज्यादा खा लिया है या फिर आप प्रकोष्ठ बद्धता के शिकार हैं। ज्ञान और क्रिया, इन दोनों की अभिव्यक्ति का माध्यम नाड़ी संस्थान है। मलों के संचित होने पर ज्ञान और क्रिया दोनों में अवरोध पैदा हो जाता है। फेफड़ों व आंतों को राहत देने के लिए भूख से कम भोजन उपादेयी होता है। इन्हीं तथ्यों के आधार पर उपवास, मित भोजन और रस परित्याग सुझाए गए हैं।

ऋतुभुक का अर्थ है - खरी कमाई (कमाई) की रोटी खाई जाए। कुटिल तरीकों से अर्जित खाद्यान का उपयोग न किया जाए। जैसा खाए अन्न, वैसा होय मन। शरीर साधना की तीसरी आवश्यकता है - नींद पर काबू। नींद पर नियंत्रण का अर्थ यह नहीं है कि नींद ही न ली जाए। जितनी देर साधना क्रम अपनाया जाए, हम पूर्ण जागरूक रहें। हमारा रोम रोम पूर्ण जाग्रत रहे। पूर्ण चैतन्य रहें। आप किसी जंगल से गुजर रहे हैं। उस निर्जन बीहड़ जंगल में आप छोटी सी आहट से ही चौंक जाते हैं उसके प्रति सजग हो जाते हो। ऐसी ही चैतन्या जरूरी है। आसन दृढ़, दृढ़ आहार एवं दृढ़ निद्रा प्रारम्भिक तैयारी है।

हमारा दूसरा आधार है - वाणी अर्थात् शब्द। शब्द की शक्ति असीमित है। गोरखनाथजी महाराज कहते हैं -
‘सबदहि ताला, सबदहि कूंची, सबदहि सबद जगाया।
सबदहि सबद सूं परचा हुआ, सबदहि सबद समाया।।’

ऐसी विराटता है शब्द की। यह शब्द क्या है ? यह शब्द है ‘¬’ (औंकार) सृष्टि की उत्पत्ति के समय Big Bang के रूप में ‘¬’ शब्द का विस्फोट हुआ। शब्द से ही अन्य स्वर प्रकट हुए, सृष्टि संकुचन में भी इसी ‘¬’ शब्द का संकुचन होगा। इसी ‘¬’ में महा शब्द के साथ अपने इष्ट का नाम जोड़कर हम किसी भी रूप में यथा- ¬ शिव, ¬ नमः शिवाय ¬ नमो भगवते वासुदेवाय, ¬ कृष्णाय, ¬ रामाय नमः आदि-आदि अपनी-अपनी श्रद्धा एवं विश्वास के अनुसार किसी भी शब्द को अपनी साधना का आधार बना सकते हैं। नये साधक के लिए जप बहुत जरूरी है। हमारी वाणी शुद्धि के लिए जप बहुत जरूरी है। ज्यों-ज्यों जप बढ़ता है, हमारे कायिक ब्रह्माण्ड में वह शब्द गूंजने लगता है।

साधना के लिए तीसरा आधार है - मन। मन को नियंत्रित कैसे किया जाए ? मन को ‘अमन’ कैसे किया जाए? अपने सूक्ष्म शरीर में मन एक प्रबल शक्ति है। इस मन के प्रसंग में गोरखनाथजी महाराज कहते हैं -
‘यह मन शक्ति, यह मन शिव।
यह मन पांच तत्व का जीव।
यह मन ले जे उन्मन रहे।
तो तीन लोक की बातां कहे।।

मन को ‘शिव’ बताया गया है, मन को शक्ति बताया गया है। यह मन ‘शक्ति’ रूप में हमें नचा रहा है, कठपुतलियों की भांति। यही मन ‘शिव’ बनकर हमें कल्याण का मार्ग दिखाता है। यह मन जड़ है, पर चेतन से मिलाने का यही एक मात्र आधार है। जिसने इस मन को ‘अमन’ कर दिया, वह सर्वज्ञ हो गया। बाबाजी महाराज ने मन के सम्बन्ध में बड़ी मार्मिक उक्ति कही है:-
‘मन की चाल चरित घणी, मन ही ज्ञान-अज्ञान।
‘श्रद्धा’ मन को उलट दे, धरि उनमनि ध्यान।

यह उन्मनि ध्यान क्या है ? मन है - अज्ञान है, मन नहीं है-ज्ञान है। ‘उन्मनि ध्यान’ से तात्पर्य है-मन के अस्तित्व को समाप्त करना। मन के द्वारा मन को मारना। मन को मारने के लिए हमारे पास मुख्यतः ध्यान की तीन टेक्नीक है:-
1. दृश्य - दर्शन
2. नाद - श्रवण
3. शून्य - विचरण

नाथपंथ में ध्यान की तीन टेक्नीक को इस तरह सांकेतिक किया गया है -
‘अंखियन मांहि दृष्टि लुकाले, काना मांहि नाद।
शून्य मां ही सूरता रमाले, यो ही पद निर्वाण।’

ध्यान का अर्थ है-गहराई में उतर कर देखना। जानना और देखना चेतना का लक्षण है। आवृत्त चेतना में जानने और देखने की क्षमता क्षीण हो जाती है। उस क्षमता को विकसित करने का सूत्र है - जानो और देखो। आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो, स्कूल मन के द्वारा सूक्ष़्म मन को देखो, स्थूल चेतना के द्वारा सूक्ष्म चेतना को देखो। पूरी साधना यात्रा स्थूल से सूक्ष्म की ओर है, ज्ञात से अज्ञात की ओर है। देखना साधक का सबसे बड़ा सूत्र है। जब हम देखते हैं तब सोचते नहीं है। जब हम सोचते हैं तब देखते नहीं है। विचारों का जो सिलसिला चलता है, उसे रोकने का सबसे पहला और सबसे अन्तिम साधन है - देखना। आप स्थिर होकर अनिमेष चक्षु से किसी वस्तु को देखें, विचार समाप्त हो जाएगे, विकल्प शून्य हो जाएंगे। हम जैसे-2 देखते चले जाते हैं, वैसे-वैसे जानते चले जाते हैं। दृश्य दर्शन में आंख एवं मन का संयोग है। नाद श्रवण में कान एवं मन का संयोग है। शून्य विचरण में केवल मन का रमण है। पहले दो तरीके स्थूल हैं, सरल हैं, तीसरा तरीका जरा सूक्ष्म है, कठिन भी है।

दृश्य-दर्शन से तात्पर्य है किसी भी स्थूल बिन्दु पर दृष्टि टिकाकर धारणा करना। वह बिन्दु ¬ हो सकता है, राम, कृष्ण एवं शिव का चित्र एवं मूर्ति हो सकता है। अपने गुरु का चित्र हो सकता है। अपने शरीर का कोई भी संवेदनशील अंग हो सकता है। यथा नासिकाग्र, भृकुटी, नाभि, हृदय आदि-2 प्राण-दर्शन भी सुगम एवं सरल है। प्राण-दर्शन से तात्पर्य श्वांस दर्शन से श्वांस और जीवन दोनों एकार्थक जैसे हैं जब तक जीवन तब तक श्वांस और जब तक श्वांस तब तक जीवन। शरीर और मन के साथ श्वांस का गहरा सम्बन्ध है। यह ऐसा सेतु है जिसके द्वारा नाड़ी संस्थान, मन और प्राण शक्ति तक पहुंचा जा सकता है। श्वासं को देखने का अर्थ है - प्राण शक्ति के स्पंदनों को देखना और उस चैतन्य शक्ति को देखना, जिसके द्वारा प्राण शक्ति संपदित होती है। श्वांस को देखने से मन की एकाग्रता बढ़ती है। श्वांस दीर्घ एवं मंद होना चाहिए।

दूसरा तरीका है-नाद-श्रवण का। कोई भी मधुर भक्ति स्वरों की या मंत्र स्वरों की कैसेट भर ली जाए और उसको धीमी आवाज में चलाते हुए मस्त होकर सुना जाए। मन को पूरा का पूरा उसमें लगा दिया जाए। कानों में रूई की डाट लगाकर या अंगुलियां डालकर अपने शरीर के कलरव को सुना जाए। हृदय, नाड़ियां एवं रक्त परिभ्रमण के स्वर को दत्तचित्त होकर सुना जाए। इसी शरीर के स्वर में से ‘सोऽहम्’ का स्वर फूट पड़ता है। रात्रि की सन-सन की आवाज के साथ मन को लगाया जाए। आधा घंटे का अभ्यास ही साधक को शून्य स्थिति में उतार देता है। पर यह साधना जंगल में ही संभव है, गांव या बस्ती में संभव नहीं है।

तीसरा तरीका है-शून्य विचरण। यह काफी कठिन एवं श्रम साध्य है, विशेषकर नव साधकों के लिए। लम्बे अभ्यास के बाद तो कोई भी साधक शून्य स्थिति में ही पहुंचते हैं पर प्रथम छलांग में ही शून्य में ठहरना काफी कठिन है। इस साधना में किसी भी प्रकार का नियंत्रण वर्जित है। विचार आए तो आने दें। उन्हें रोके नहीं। विचारों को देखो। संकल्प विकल्प आए तो उन्हें भी देखते रहें। करना कुछ नहीं, केवल देखना है। जान लेना है कि यह ऐसा हो रहा है। जैसे ही विचारों को देखना प्रारम्भ करते हैं, विचारों का आना बंद हो जाता है। विचार रूकते ही एक शून्य स्थिति पैदा हो जाती है। उस शून्य स्थिति में रहना ही शून्य विचरण कहलाता है।

तीन तरीके आपको सुझाए गए हैं जो आपको अच्छा लगता हो, सरल लगता हो, आपकी प्रकृति एवं स्वभाव के अनुकूल हो, वही अपना लीजिए। ध्यान रहे साधना का प्रारम्भ दृढ़ संकल्प से प्रारम्भ होता है और दृढ़ भाव से साधना का समापन होता है। भगवान बुद्ध के ये शब्द नोट कर लीजिए-
‘इहासने शुण्यतु में शरीरम्’ त्वगस्थि मांसं प्रलयं च यातु।
अप्राप्यं बोधिं बहुकल्प दुर्लभाम् नेहासनात्कायमः चलिष्येत्।।

उपनिषद् के ऋषि की यह प्रार्थना भी हृदयंगम कर लीजिए -
हिरण्मयेण (हिरण्मयेन) पात्रेण, सत्यस्थापिहितं मुखम्।
तत्त्वं पूषन्न पावृणु, सत्य धर्माय दृष्टये।।

साधना में दृढ़ संकल्प एवं दृढ़ आस्था तथा पूर्ण समपर्ण का होना परमावश्यक है।

गुरु शिष्य का प्रकरण है। वर्षों तक गुरु के पावन सान्निध्य में शिष्य ने प्रशिक्षण प्राप्त किया। अब वह अपने घर जाना चाहता था। घर का रास्ता उसके लिए अज्ञात था। उसने गुरु से अनुरोध किया, ‘गुरुदेव। आपको कष्ट न हो तो मेरा पथ-प्रदर्शन करें, अन्यथा मैं भटक जाऊंगा।’ गुरु ने शिष्य के हाथ में दीपक दिया और आगे हो गए। गुरुकुल के द्वार तक वे चलते रहे। उसके बाद शिष्य से कहा, ‘अब आगे मैं नहीं जाऊंगा। तुम अपना मार्ग स्वयं खोजो। उस खोज में कहीं भटक भी जाओ तो घबराना मत। एक दिन तुम अपनी मंजिल को अवश्य ही प्राप्त कर लोगे।’ शिष्य ने झुककर गुरु को प्रणाम किया। उसी समय गुरु ने फूंक देकर दीपक को बुझा दिया। शिष्य विस्मित हो गया। एक क्षण रुककर शिष्य बोला, ‘गुरुदेव, आप मेरे साथ यह कैसा मजाक कर रहे हैं? न आप साथ चलते हैं और न आगे का पथ-प्रदर्शन कर रहे है। अपना पथ मैं स्वयं देखूं, इसके लिए जो दीपक मेरे पास था, उसे भी आपने बुझा दिया है। अब मैं क्या करूंगा? गुरुदेव ने मुस्कराते हुआ कहा, ‘वत्स! डरो मत, मैं तुम्हें आत्म निर्भर (आत्म निर्भर) देखना चाहता हूं। यह जो दीपक तुम्हारे पास था, तुम्हारा अपना जलाया हुआ नहीं था। तुम स्वयं पुरुषार्थ करो, स्वयं प्रकाश पाओ, स्वयं दीपक जलाओ और स्वयं अपने दीपक बन जाओ।’

बाबा जी महाराज की तृतीय निर्वाण तिथि की पूर्व संध्या पर प्रवचन-19 अगस्त 1988

 

फोटोगैलेरी

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