दुःख क्या है तथा इससे निवृत्त होने का क्या उपाय है ? इन दोनों प्रश्नों का समाधान व्यक्ति को सुख एवं शान्ति दे सकता है। दुःख तीन प्रकार के हैं। आधि, व्याधि एवं उपाधि। आधि से अर्थ है - मानसिक कष्ट, व्याधि से अर्थ है शारीरिक कष्ट एवं उपाधि से मतलब है - प्रकृति जन्य व समाज द्वारा पैदा किया गया दुःख। इन सभी दुःखो को अनुभव करने वाली एजेन्सी का नाम मन है। मन की संवेदनशीलता ही दुःख की अनुभूति कराती है। प्रिय संवेदन मन को सुखी बनाते हैं तथा अप्रिय संवेदन मन को दुःखी बनाते है। चाह की पूर्ति से मन महसूस करता है, अचाह के आगमन से मन दुःखी हो जाता है। जिस स्थिति में मन रमता है, वह सुख की स्थिति है तथा जिस स्थिति से मन भागना चाहता है वह दुःख की स्थिति है। इसीलिए कहा गया कि ‘मन एवं मनुष्याणं कारणं बन्ध मोक्षयोः‘ मन ही बन्धन का कारण है तथा मन ही मुक्ति का साधन है।
हम दुःखी हैं, सारा संसार दुःखी है फिर यह जानना भी जरूरी है कि इन दुःखों का कारण क्या है? हमारे दुःखों के मूल कारण में हमारी तीन कामनाएं है या यूं कहें वासनाएं है। ये तीन वासनाएं है:- आग्रह, संग्रह तथा ऐन्द्रिक संतुष्टि। आग्रह से तात्पर्य शक्ति की कामना से है। संग्रह से सम्पत्ति की वासना से है तथा ऐन्द्रिक संतुष्टि से भी स्थूल एवं सूक्ष्म इन्द्रियों के उपभोग से है। अपकी कामना है कि ज्यादा से ज्यादा सम्पत्ति अर्जित करली जाए। इतनी सम्पत्ति कि मेंरी सौ पीढ़ियां ऐशा-आराम का जीवन बिता सके। आप अपने स्वयं के लिए ही ऐशो-आराम नहीं चाहते, अपनी आने वाली पीढियों के लिए भी ऐसा करना चाहते हैं। संपत्ति संग्रह के साथ ममकार भी जुड़ जाता है। मेंरे लिए एवं मेंरे लोगों के लिए सब कुछ चाहिए। संपत्ति से आप यश भी खरीद लेते हैं। सम्राटों के दरबारों में भाट चारण हुआ करते थे, जो उस समय महाकवि समझे जाते थे। उनका काम था - सम्राट की अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा करना। वे ऐसे-ऐसे काव्य उनकी प्रशंसा में लिखते रहते थे, गाते रहते थे, जो व्यर्थ की कल्पनाओं एवं असंभव उपमाओं से भरे रहते थे। राजाजी इन झूठी प्रशंसाओं को सुनकर बाग-बाग हो जाते थे। सम्पत्ति का प्रभाव था। यदि किसी मूर्खाधिराज को भी कहो कि आप महा पंडित हो तो वह भी इन्कार नहीं करेगा। वह भी सुनकर गद् गद् हो जाएगा कि मानों कि वह सचमुच में महा पंडित हो। अरबी में कहावत है कि परमात्मा जब लोगों को बनाकर दुनियां में भेजता है, तो सभी के साथ एक मजाक कर देता है। वह आदमी के कान में फुस-फुसा देता है कि तुम जैसा सुन्दर, तुम जैसा बुद्धिमान और तुम जैसा मेधावी मैंने न कभी बनाया है और न भविष्य में बनाने का विचार है। तू लाखों में एक है और यही बात हर आदमी अपने मन के भीतर दबाए बैठा है। कहना तो चाहता है, लेकिन कहने के लिए अवसर चाहिए। संपत्ति अवसर देती है। जब ऐश्वर्यवान व्यक्ति यह कहता है कि मेरा क्या है जी, यह तो परमात्मा की कृपा का फल है जब यही मानना चाहिए कि उसका अहंकार शीर्षासन कर रहा है।
अति संपत्ति-संग्रह से समाज में विषमता बढ़ती है। जिसका फल द्वन्द्व, संघर्ष एवं वर्ग-विभाजन होता है। साम्यवाद के प्रसार का कारण भी यही है। जो चीज लाखों लोगों को उपलब्ध नहीं होती, उसे लेने से हमें भी दृढतापूर्वक इन्कार कर देना चाहिए। हम सब एक तरह से चोर हैं। यदि में कोई ऐसी चीज का संग्रह कर रखता हूं, जिसकी मुझे तात्कालिक आवश्यकता नहीं है तो में उस चीज की दूसरे किसी से चोरी करता हूं। यह प्रकृति का नियम है कि वह रोज उतना ही पैदा करती है जितनी हमें चाहिए। यदि आदमी भी उतना ही ले, जितनी उसे आवश्यकता है तो गरीबी नहीं रहेगी। इसके लिए हमें अपरिग्रह भाव को बढ़ाना है। अति परिग्रह से द्वेष में वृद्धि होती है तथा हिंसा तथा अनैतिक अपहरण को बढ़ावा मिलता है। संग्रह-वृत्ति व्यष्टि और समष्टि दोनो के लिए दुःखदायी है। धनी होने का मतलब है न ठीक ढंग से भोजन कर पाना, न ठीक तरीके से सो पाना और न उचित आराम कर पाना। जीवन एक कोल्हू के बैल की तरह चलता है। धन कमाने वाला धन संग्रह करते-करते स्वयं खो जाता है। धन तो रहता है पर धनी नहीं रहता। धन का ढेर लग जाता है और उसी ढेर के नीचे धनी दबकर कर मर जाता है।
धन की तरह ही आदमी शक्ति-अर्जन के लिए भी बहुत व्याकुल रहता है। हर आदमी को पद चाहिए, व्यक्तियों का संगठन चाहिए, दूसरों को दबाने के लिए अस्त्र-शस्त्र चाहिए। समाज में नेतृत्व के लिए झूठी-सच्ची योग्यता चाहिए। यह नियम व्यक्ति एवं राष्ट्र दोनों पर समान रूप से लगता है। दुनिया के सभी देश इसी अंधी दौड में लगे हुए हैं। रूस, अमेंरिका, चीन इसके उदाहरण हैं। शक्ति सम्पन्नता आग्रह को बढाती है। में जो कह रहा हूं, वही सही है, लोगों को मेरा अनुकरण करना चाहिए। मेंरे विरूद्ध कोई कुछ कहने या करने की हिम्मत कैसे कर सकता है, यह भाव आग्रह का भाव है। आग्रही व्यक्ति उन्मादी हो जाता है, उसका दंभ आकाश छूने लग जाता है। इस तरह आग्रह के कारण हिंसा, संघर्ष एवम् अशान्ति फैलती है। एक बिन्दु आता है जब आग्रही तो नष्ट होता ही है पर समाज एवं मानवता का भी बहुत बडा नुकसान उसके हाथों होता है। हिटलर जैसे तानाशाह इसके उदाहरण है। व्यक्ति विशेष में भी अतिशय शक्त्यर्जन की कामना से हिटलरी व्यक्तित्व का उद्भव होने लगता है। हमारे अस्तित्व को बचाने के लिए हमें शक्ति की आवश्यकता है पर वह शक्ति मर्यादा एवं सीमा में बंधी शक्ति होती है। जहां शक्ति असीमित हो जाती है, उपद्रव का कारण बन जाती है। शक्ति के साथ भय जुडा रहता है। शक्तिशाली जितना भयभीत रहता है उतना निर्बल नहीं। शक्तिशाली सिंह जितना भयभीत रहता है, उतना भयभीत मृग नहीं होता। वस्तुतः शक्तिशाली सिंह जितना भयभीत रहता है, उतना भयभीत मृग नहीं होता। वस्तुतः शक्तिशाली अन्दर से रिक्त होता है, हीन होता है। इसी रिक्तता एवं हीनता को मिटाने के लिए वह क्रूरतापूर्ण कार्य करता है।
विश्व विजयी सिकन्दर जितना रिक्त था, उतना उसका सिपाही नहीं था। एक नंगे फकीर डायोजनीज ने अपनी मस्ती, आनन्द एवं पूर्णता ने उसे एहसास करा दिया कि विश्व विजयी होकर भी वह कितना रिक्त है ?
सिकन्दर ने फकीर से कहा ‘में तेरी मस्ती पर बहुत प्रसन्न हूं। बोलो तुझे क्या दूं ? डायोजनीज ने कहा ‘बकवास छोड़ो, तुम एक गरीब आदमी मेंरे लिए क्या कर सकोगे? तुम तो भिखमेंगे हो। हां, तुम मांगो मुझसे, बोलो, क्या चाहते हो ?‘ वास्तव में सिकन्दर इतना गरीब था कि दुनियां को लुटते-लुटते भी उसकी भूख नहीं मिटी। कितना रिक्त था उसका अन्तरतमें अतः सिकन्दर ने अपने वजीरों से कहा ‘मेंरे मरने के बाद मेंरे दोनों खाली हाथ ताबूत के बाहर लटका देना ताकि दुनियां को मालूम रहे कि सिकन्दर खाली हाथ आया था, खाली हाथ ही जा रहा है। ‘इतिहास गवाह है कि औरंगजैब अपनी टोपी खुद सींवता था। इतन अहंकारी, उन्मादी एवं संग्रही व्यक्ति व्यक्ति कितना हीन था? अपने अहंकार को छिपाने के लिए स्वयं टोपी सिलकर दुनियां को बेवकूफ बनाने की चेष्टा करता था। पर अंतरतम की रिक्तता, हीनता एवं क्रूरता तो अपनी जगह थी। अतिशय शक्ति के साथ कू्ररता, संशयशीलता, भय, दंभ आदि मनोविकृतियां अपने आप जुड़ जाती हैं। शक्तिशाली व्यक्ति हर क्षण दुःखी रहता है तथा हर क्षण दूसरों को दुःखी देखना चाहता है। दूसरों को दुःखी करना एवम् आतंकित करना उसके स्वभाव की सहज विशेषताएं हो जाती हैं। अन्त में उसका स्वयं का जीवन एक अभिशाप बन जाता है और दूसरों के लिए एक ट्रेजेडी।
हमारे दुःख का तीसरा कारण है - ऐन्द्रिक संतुष्टि। इन्द्रियां अपना अपना भोग चाहती हैं। अनियंत्रित ऐन्द्रिक संतुष्टि दुःख का कारण बनती है। जीभ रसास्वादन चाहती है, आंखें सौन्दर्योपयोग चाहती है, कान संगीत मय स्वर की मांग करते हैं, नाक सुंगध की चाह रखती है, त्वचा मृदुल स्पर्श के लिए बेचैन होती। अतिशय कामुकता ने आदमी को हैवान बना दिया है। जीभ स्वाद के बशीभूत आज का आदमी खाने के नाम पर न जाने क्या-क्या इस पेट में डाल रहा है ? फास्ट फूड के शौकीन युवक दूषित खाद्य सामग्री के कारण कितनी बिमारियों के शिकार होते जा रहे हैं। मनोहारी दृश्य देखने को आतुर युवक-युवतियां कलर टीवी, देख-देखकर अपनी आंखे खोते जा रहे हैं। ब्यूटी पार्लरों की शोभा बढाने वाले युवक-युवतियां कितने ही चर्म-रोगों की शिकार हो गई हैं। पेय पदार्थों में अल्कोहल प्रथम पसंद हो गई है। उपभोक्ता संस्कृति में न जाने कितनी-कितनी बेकार की चीजें उपभोग एवं उच्च स्तर की मानदंड बन गई है। अति विषयासक्ति ने आज के युवक को एड्स जैसी भयंकर बीमारी की गिरफ्त में धकेल दिया है। दृश्य देखकर कभी भर्तृहरि ने कहा था -
एकाशनं तदपि नीरस मेंकवारम््।
वस्त्रं च शत खण्ड क्लिन्न कंथा।
हा। हा। तथापि विषयान परित्यजन्ति।
जो बीज बोएंगे, वही फल काटेंगे। हम सभी अच्छा स्वास्थ्य चाहते हैं, हम सभी आनन्द चाहते है, हम सभी सुख की बरसात चाहते हैं, पर न आनन्द बरसता है और न सुख की बयार, बहती है। हमारी चाह से फल नहीं ंआते, हम जो बोते हैं उससे आते हैं। हम बो रहे हैं जहर, चाहते हैं अमृत। एक आदमी घृणा के बीज बोए और प्रेम की फसल काटना चाहे। एक आदमी क्रोध के बीज बोए और शांति पाना चाहे। में सबको दुख पहुंचाउ लेकिन मुझे कोई दुःख न पहंुचाए। में सबको धोखा दूं पर मुझे कोई धोखा न दे। ऐसा संभव नहीं है। जो हम बोएंगे, वही हम पर लौटने लगेगा। जीवन का सूत्र ही यह है कि जो हम फैंकते हैं, वही हम पर लौटकर आता है। चारों ओर हमारी ही फेंकी हुई ध्वनियां प्रतिध्वनित होकर हमें मिल जाती हैं। थोडी देर अवश्य लगती है। बुद्ध का एक शिष्य था। पैर में पत्थर की चोट लगी। बस, यही एक मेरा विष का बीज अवशेष था, आज यह भी चूक गया। मारा था पत्थर किसी को, आज उससे छुटकारा हो गया।
पहला पाप अपने साथ शत्रुता है। फिर उसका फैलाव होता है। फिर अपने निकटतम लोगों के साथ शत्रुता बनती है, फिर दूर तक के लोगों के साथ। फिर जहर फैलता चला जाता है, हमें पता भी नहीं चलता। शांत झील में पत्थर फेंकने पर लहरें अनन्त की यात्रा पर निकल जाती हैं। हम अपने असंयमी जीवन से अपनी तो हानि करते ही हैं, अवशेष समाज का भी बहुत अहित कर रहे हैं। एक शराबी स्वयं का तो शत्रु है ही, अपने परिवार एवं मानवता का भी शत्रु है। आज समाज में इतनी हिंसा व्याप्त है उसका मूल कारण स्वयं का हिंसक होना ही है। आप जानते हैं कि विश्व की नब्बे प्रतिशत आबादी मांसाहारी है। अर्थात मनुष्य जीव भोजी है। आदमी शिकारी युग का जीवन जी रहा है। जहां उसका खाद्य ही जीव हिंसा है। वहां अहिंसा की कल्पना कैसे की जा सकती है ? आदमी को संस्कारों में कितना परिष्कार हुआ है, यह इसका उदाहरण है। आज आदमी-आदमी का मांस तो नहीं खाता, पर आदमी-आदमी के दिल और दिमाग को खाए जा रहा है। यह हिंसा उस मांसल हिंसा से भी ज्यादा खतरनाक हिंसा है। इस तरह हमने अपने असंयमित जीवन से स्वयं के जीवन को तो नरक बना ही रखा है अवशेष समाज को भी नरक बना दिया है।
हमारा एक प्राकृतिक जीवन था। सहज निश्छल, सहज सरल एवं सहज संतुष्ट जब तक हम उस सहज जीवन की तरफ नहीं लौटेंगे, दुःखों का यह प्रवाह बढता ही चला जाएगा। जो नकली जीवन जीने के हम आदी होते जा रहे हैं, वह हमारा विनाश लाकर छोडे़गा। आप लोगों का हृदय कपट-जंजाल से भरता जा रहा है, इसे आप अपनी होशियारी एवं बुद्धिमानी मानते हैं। मेरा यह मानना है कि यह कपटपूर्ण जीवन आपको उनमादी बनाकर छोड़ेगा। यह कपट का बोझ आपको तोडकर रहेगा।
यदि आप दुःखों से निवृत्ति चाहते हैं तो अति संग्रह वृत्ति से विरत होना होगा। गृहस्थी को कुछ संग्रह चाहिए - हारी-बीमारी का सामना करने के लिए, पर पीढियों तक का संग्रह करने की चाह दुःखदायी है। इस मृगतृष्णा में भटकता-भटकता आदमी बुढापे में अत्यन्त ही अस्थिर चित्त एवं बैचेनी का जीवन जीता है। महत्वाकांक्षी होना पाप नहीं है, पर अति महत्वाकांक्षा दूसरों के हित एवं अधिकारों का हनन करके ही प्राप्त की जा सकती है। महत्वाकांक्षा की अंधी दौड़ के कारण ही आज का आदमी एक रात में करोड़पति बनने के नुस्खे खोजने लगता है। यह माफियावाद, यह तस्करी, यह आतंकवाद सब अति महत्वाकांक्षा के ही परिणाम है। अतः हमें सीमाओं में जीने का अभ्यास करना है। सुख एवं शान्ति के लिए इन्द्रिय संयम बहुत जरूरी है। आज की उपभोक्ता संस्कृति की चकाचौंध से बचकर एक सीधा एवं सरल जीवन का अभ्यास ही वास्तविक सुख एवं शान्ति दे सकता है।
आशा है आप ऐसा सुखी जीवन स्वयं जीते हुए दूसरों को भी सुखी बनाएंगे।
वस्त्रं च शत खण्ड क्लिन्न कंथा।
हा। हा। तथापि विषयान परित्यजन्ति।
महाशिवरात्रि (20 फरवरी 1993)
श्री बैजनाथजी महाराज के उद्बोधन