आत्मानुभूति  

 

निर्वाण तिथि की पूर्व संध्या हम लोग परम पूज्य बाबाजी महाराज को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए एकत्रित हुए हैं। बाबाजी महाराज के निमित्त आहूत शोकसभा में गोरखपुर सिद्धपीठ के पीठाधीश्वर परम पूज्य श्री अवैधनाथजी महाराज ने अपने श्रद्धा-समुन अर्पित करते हुए कहा था, ‘श्रीश्रद्धानाथजी महाराज नाथ पंथ के गौरव थे। वे प्रकाश-स्तम्भ थे, जहां से पूरा पंथ मार्ग- दर्शन पाता था। वे महान् योगी थे, सिद्ध पुरूष थे। ‘परम पूज्य श्री शंकराचार्य जी श्री स्वरूपानंदजी ने महाराज कलकत्ते में कहा, ‘आध्यात्मिक परम्परा में एक महान् योगी एवं सिद्ध पुरूष प्रयाण कर गया है। मुझे खेद है किन्ही कारणों से मैं उनके दर्शन नहीं कर सका। काश! मैं उनके दर्शन कर कृतार्थ हो पाता।’

 

‘कल्पद्रुम तंत्र में भगवान शिव ने कहा है-
‘अहमेवास्मि गोरक्षो,मद्रूपं तन्निबोधत्।
योगमार्ग प्रचाराय, मया रूपमिदं धृतम।।

 

मैं साक्षात् गोरक्षनाथ हूं एवं गोरक्षनाथ मेरा ही स्वरूप है। योगमार्ग प्रचारार्थ मैंने यह स्वरूप धारण किया है। पूज्य बाबाजी महाराज साक्षात् गोरक्षस्वरूप थे, गोरक्ष की योग परम्परा को बनाए रखने के लिए ही उनका अवतारण हुआ था। बाबाजी महाराज के व्यक्तित्व वैशिष्ट्य को गोरखवाणी की इन पक्तियों में बंाधा जा सकता है-

 

‘जहां गोरक्ष तहां ज्ञान गरीबी, द्वन्द्ववाद नहीं कोय।
निस्प्रेही निरदावे खेले, गोरख कहिए सोय।।

 

ऐसे महापुरूष के व्यक्तित्व की विशिष्टताओं को उद््घाटित करना, तुलसी के शब्द में ‘ गिरा अनयन नयन बिनु वाणी है।‘बाइबिल में प्रभु की प्रार्थना में गाया गया है-‘ जबान होते हुए भी हम उसकी महिमा का गान नही कर सकते, आंखें होते हुए भी उनके सूक्ष्म अस्तित्व को देख नहीं सकते, कान होते हुए भी उनकी मधुर वाणी को सुन नहीं सकते, हाथ होते हुए भी उनके मृदुल एवं स्नेहिल स्पर्श को महसूस नहीं कर सकते। पूज्य बाबाजी महाराज भी ऐसे ही थेे, जो आज शिवस्वरूप हो गए है।

 

वे कैसे थे भौतिक शरीर में-
अंजन माहं निरंजन भेट्या, तिल मुष भेट्या तेलं।
मूरति मांहि अमूरति परस्या, भया निरन्तर खेलं।।

 

महापुरूषों का मरण एक दिव्य लीला होती है-
‘मरो हे जोगी मरो, मरण है मीठा, तिस मरणी मरो, जिस मरणी गोरख मरि दीठा; जो जीते जी मरकर अमर होते है, उनका मरण कैसा? मरजीवा की मौत क्या? भगवान कृष्ण के कथन में-
न जायते म्रियते वा कश्चिद् अजो नित्यं, शाश्वतो अयं पुराणो न हृन्यते हन्यमाने शरीरे।’

 

आज इस पुण्य पर्व पर बाबाजी महाराज को श्रद्धांजलि देने का सर्वश्रेष्ठ तरीका यही है कि उनके कुछ गहन, गंभीर विचारों का पारायण किया जाए। वे सहज सरल भाषा में जो गंभीर विचार प्रकट करते थे, वे उपनिषद् सम्मत हैं। यद्यपि उन्होंने उपनिषदों का कोई अध्ययन नहीं किया था, तथापि वे उपनिषदों के सूत्रों की भाषा में बोलते थे। ऐसे ही कुछ विचार उनकी भाषा में रखते हुए उनकी व्याख्या करने की चेष्टा करूंगा। उपनिषद् के ऋषि जो बोलते हैं वहीं ये अल्पसाक्षर सिद्ध पुरूष बोलते है। बाबाजी महाराज की वाणी में-

 

‘पूरा सो पूरा उपजे, पूरा मे पूरा समय ।
पूरा सो पूरा उझले, पूरा ही रह जाय।

 

ईशावास्य उपनिषद् कहता है-
ऊँ पूर्वमदःपूर्णभिद, पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्ण मेवावशिष्यते।।

 

‘वह पूर्ण है और यह भी पूर्ण है क्योंकि पूर्ण से पूर्ण की ही उत्पति होती है। पूर्ण का पूर्णत्व लेकर पूर्ण ही बचा रहता है।’

 

बाबाजी महाराज की वाणी में-
‘शिव का रूप अरूप है, रूप अरूप नहीं दोय।’
निज स्वरूप जब भेंटिया, रूप अरूप ही होय।’

 

परमात्मा से यह पूरा संसार निकल आता है। अनन्त, असीम, आदि अन्तहीन विराट सब निकल आता है। फिर भी परमात्मा पूर्ण ही रहता है। कल यह सब उस परम अस्तित्व मंे वापिस गिर जायेगा, वापिस लीन हो जायेगा तो भी वह पूर्ण ही होगा। जो हमें दिखाई पड़ता है, वह उससे निकलता है, जो अदृश्य है। जो ज्ञात है, वह अज्ञात से निकलता है। प्रतिपल अदृश्य दृष्य में रूपान्तरित होता रहता है और दृश्य अदृश्य में खोता चला जाता है। प्रतिपल सीमाओं में असीम आता है और प्रतिपल सीमाओं से वापिस असीम में लौट जाता है। ठीक वैसे ही जैसे हमारी श्वांस भीतर गई और बाहर आई । हम पूरे परमात्मा हैं। सिर्फ हमारे बोध की कमी है। ‘निज स्वरूप जब भेटिया, शिव स्वरूप ही होय।’ अहं बाधा हैै। यहां न द्वैत है न अद्वैत। यहां द्वैत भी है और अद्वैत भी। गोरख सिद्धान्त संग्रह में गोरक्षनाथ जी महाराज कहते हैं-
‘न शून्य रूपं, न विशून्य रूपं
न शुद्ध रूपं, न विशुद्ध रूपं।
रूपं विरूपं न भवामि किंचित,
स्वरूप रूपं परमार्थ तत्वं।
गोरक्ष मत्स्येन्द्र संवाद में पुष्टि की गई है-
‘ अवधू सुंने आवे, सुंने जाई, सुनै पिया रहा समाई।।’ परमात्म तत्व, आत्मतत्व और जगत तत्व का एक ही सूत्र में निरूपण किया गया है। इस सूत्र से कई तथ्य निकलते हैं।

 

1. जीवन अतर्क्य है, आत्म ‘तत्व’ अतर्क्य है। ज्ींज ूीपबी बवददवज इम ेंपकए उनेज दवज इम ेंपकण् जो कहा नहीं जा सकता, उसे कभी नहीं कहना चाहिए। रामकृष्ण परमहंस कहते थे- ‘नमक का पुतला समुद्र की थाह लेने गया, समुद्र में ही विलीन हो गया। सूचना कौन दे, समुद्र कैसा था? सभी चीजें उच्छिष्ठ हैं, ब्रह्म उच्छिष्ठ नहीं हो सका क्यांेकि वह वर्णनातीत है। जीवन सामान्य गणित के अनुसार नहीं चलता। यहंा दो और दो चार ही नहीं होते, कभी-कभी पांच भी हो जाते हैं। फूल का सौन्दर्य क्या है? यह वर्णन का विषय नहीं, अनुभूति का विषय है। प्रेम क्या है? प्रेम करते हैं, जताते हैं, कहानियां पढ़ते हैं पर प्रेम क्या है? समझ नही पाए, अवर्णनातीत है। ऐसे ही आत्मा क्या है? अनुभूति का विषय है, तर्क का नहीं। गोरक्षनाथजी महाराज ‘ गोरक्ष सिद्धान्त संग्रह’ में अपनी इस उलझन को इन शब्दों में प्रकट करते हैं-

 

‘शिवं न जानामि कथं वदामि, शिवं च जानामि कथं वदामि। अहं शिवश्चेत परमार्थ रूपं, स्वच्छ स्वाभावं गगनोपमं च।’
‘ है’कहूं तो कैसे पतीजे, ‘न’ कहूं तो नहीं सीधा।
‘है’ की जगहां ‘है’ रहीजे, ‘है’ ही ‘न’ नै बींधा।

 

बड़ी सुन्दर तुलना है। गोरख वाणी से सुनिए-
‘अस्ति कहूं तो कोई न पतीजे, बिन अस्ति क्यों सीधा।
गोरख बोले सुनो मछीन्द्र, हीरै हीरा बींधा।

 

जैसा कि कहा गया है- डायमंड कट्स डायमंड।

 

2. जीवन रहस्य है, एक खुला रहस्य है। हम दरवाजे पर खड़े है, इस रहस्य द्वार में। हमारे हाथ में कुंजी है। यह कुंजी है श्रद्धा, विश्वास एवं प्रेम की। श्रद्धा का अर्थ है अज्ञात में छलांग। जीवन के सत्य को जिन्होंने बुद्धि से खोजा, वे तो दार्शनिक मात्र हैं।वे कुछ नहीं खोज पाए। मस्तिष्क अतीत का संग्रह है, मस्तिष्क के पास स्मृति की संपदा है। हृदय नए लोक में जाने के लिए सदैव तैयार रहता है।

 

जिन्होंने जीवन के सत्य को जाना, वे हैं- सन्त या ऋषि। उन्होंने कहा हम शब्दों में नहीं उतरते, हम तो अस्तित्व में ही उतरते हैं जब गंगा बह रही है तो हम गंगा में ही डूबकर क्यों न जाने ले कि गंगा क्या है?

 

श्रद्धा दो तरह से आती है-1. संदेह ही मत करो 2. सन्देह पर भी सन्देह करो। इतना तर्क किए जाओ कि बुद्धि अपनी हार मान बैठे, वह थक जाए। श्रद्धा से ही जीवन द्वार खुलेगा। जीवन में जो हमें सर्वत्र अपूर्णता के दर्शन होते हैं, यह हमारा दृष्टिदोष है। अपूर्ण कहीं है ही नहीं। खिड़की का फ्रेम आकाश को फ्रेम जैसा ही आकार प्रदान कर देता है। हमारी इन्द्रिया खिड़कियां है। ऋषि कहता है- आंख बंद कर लो, भीतर चले जाओ। वहां सब निराकर है। कान को छोड़ो, कान रहित हो जाओ। भीतर चले जाओ वहां सब पूर्ण है। एक बार जिसने भीतर के पूर्ण को देख लिया, उसे सब जगह पूर्ण दिखाई पड़ने लगता है। पूर्ण ही है सब ओर। सभी कुछ पूर्ण है। अपूर्ण होगा कैसे, अपूर्ण करेगा कौन? वही है अकेला, कोई दूसरा नहीं है जो अपूर्ण कर सके।

 

3. इस पूर्ण की अनुभूति के लिए प्रेम परमावश्यक है। बाबाजी महाराज कहा करते थे-
‘प्रेम बिना नहीं भक्ति है, प्रेम बिना नही योग।
प्रेम बिना नहीं ज्ञान है, मिटे न भव के रोग।।

 

हृदय के रस रूप की अभिव्यक्ति का नाम प्रेम है। प्रेम हमारा स्वाभाव है। उपनिषद् का ऋषि कहता है- ‘ सर्व भूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते’ जो सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में ही देखता है और समस्त भूतों में भी आत्म को ही देखता है, वह किसी से घृणा नहीं करता। गोरखवाणाी में
‘योगी जंगम सेवरा, संन्यासी दरवेश।
बिना प्रेम पहुंचे नहीं, दुर्लभ हरि का देश।।

 

यह प्रेम क्या है? इस प्रेम का रूवरूप क्या है? प्रेम हमारा स्वाभाव है। वह न तो पैदा होता है और न मरता है। सूरज को बादलों ने ढक रखा है। बादल हटते ही सूर्य निकल आता है। घृणा के बादल प्रेम रूपी सूर्य को ढके हुए है। ज्यों ही प्रेम का उदय होता है, साधक कह उठता है- लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल।’

 

जो हम हैं, वही हमें चारों और दिखाई पड़ता है। वह हमारा ही प्रक्षेपण है। वह हमारी ही शक्ल है। प्रोजेक्टर भीतर है, बाहर तो पर्दा मात्र है। जिसे भीतर परमात्मा अनुभव होता है, उसी क्षण उसे सब चीजों में भी परमात्मा का अनुभव होने लगता है। फिर उसे पत्थर में भी परमात्मा दिखाई पड़ने लगता है। ज्यांे ही प्रेम का उदय होता है- जमीन पर भी पैर रखेंगे तो संभल कर रखेंगे कि कहीं कुछ कुचल न जाए।

 

मोह और प्रेम के अन्तर को समझ लेना भी बहुत जरूरी है। मोह अपने को सीमित दायरे मे बांधे रखता है। मोह कहता है, यह मेरा है, शेष मेरे नहीं। मोह सदा विशेष होता है और वह किसी के साथ होता है। सबसे ज्यादा मोह स्वयं से होता है। सर्वाधिक मोह ‘मैं’ के पास होता है। फिर जैसे जैसे स्वयं का फैलाव बढ़ेगा, वैसे वैसे कम होता चला जाएगा। बंगलादेश में एक लाख आदमी मरते हैं तो कुछ लगता नहीं लेकिन अपने गांव में दस भी मर जाते हैं तो एक लाख से ज्यादा मालूम पड़ते है। अपने घर में एक भी मर जाए तो एक लाख से ज्यादा लगते हैं। जैसे-जैसे ‘मैं’ के पास आएंगे, मोह सघन होता जाएगा। मोह ‘मै’ की छाया है। मोह स्थापन्न पाकर संतुष्ट हो जाता है। बड़ा बेटा मर गया तो छोटे बेटे में उलझकर संतोष कर लेता है।

 

जिसने समस्त भूतो को अपने में देखा, वह प्रेममय हो गया। वह मानता है, सभी मेरे हैं। प्रेम सीमा नहीं बनाता । मोह सदा सीमा बनाकर जीता है। प्रेम असीम होता हे। वह ‘मैं’ पर शून्य होता है। ज्यों-ज्यों ‘मैं’ का घेरा बढ़ता है, वह घना होता जाता है। उसके लिए एक चींटी की मौत भी स्वजन की मौत है। जिसने प्रेम को जान लिया, उसने प्रभु को जान लिया। बाबाजी महाराज का प्रेम ऐसा ही प्रेम था। वे कहते तू भाया, कल चले जाना, भोजन करके जाना, बहुत दिनों से आ रहे हो। यह उनके शिष्टाचार की बातें थी। किसी व्यक्ति विशेष को उन्होंने अपना नहीं माना, वे सब को ही अपना मानते थे।

 

4. पूर्णता की अनुभूति के लिए सर्व समर्पण जरूरी है। संसार में कर्म का लेप न हो, इसके लिए सब कुछ प्रभु के चरणों में ही छोड़ना होगा। सब प्रभु को अर्पित करना होगा। कर्त्ता का प्रभुत्व भाव छोड़ना होगा।
‘दादू करता हम नहीं, करता ओ ही कोय।
करता है सो करेगा, तू जिन करता होय।।

 

जब कर्म और ‘मै’ का जोड़ होता है तभी कर्म का लेप लगता है। जब ‘मै’ और कर्म का तादाम्य होता है तभी कर्म का काजल लगता है। कर्ता परमात्मा को मानो। तुम करने के बोझ को मत लो। करने के बोझ को जितनी गंभीरता से उठाओगे, उतने ही दबते जाओगे। ज्यों ही कर्तापन का बोझ हटेगा, जीवन फूल जैसा हल्का हो जाएगा। बाबाजी महाराज की वाणी में-
ईश्वर पर सब बोझ है, तू जनि बोझा लेय।
जीवन नौका बैठकर, बिन डांडा ही खेय।।

 

आदमी का अहं सब दुःखो का कारण बनता है।यह अहम् व्यक्ति के लिए स्वानिर्मित मकड़ी का जाल है। आदमी का अहम् मृत्यु से भी प्रभावित नहीं होता। वाल्टेयर का एक आलोचक मित्र था। मित्र के मरने पर वाल्टेयर से संवेदना-संदेश मांगा गया। वाल्टेयर ने कहा- बड़ा आदमी था, बड़े काम किए उसने, लेकिन वास्तव में वह मर गया हो तो हम ऐसा कह सकते है।

 

वह फूल जैसा हल्का हो गया है जो कहता है ‘मै’ हूं ही नही, तू ही हैै। तू ही कर्ता है। मै तो खेल का एक मोहरा हूं। तूं जहां चाहे ले चल। तू जो बना दे, बन जाऊंगा। तूं हरा दे तो हार जाऊंगा, तूं जिता दे तो जीत जाऊंगा। हार भी तेरी, जीत भी तेरी। बाबाजी महाराज गाते थे, गुनगुनाते थे-

 

‘तू चादर तान के सोए जा’ और जो करपाया हूं तुझे समर्पित है।’

 

4. आत्मानुभूति के लिए मृत्यु पर विजय आवश्यक है। गोरखनाथजी महाराज कहते है-
मरो वे जोगी मरो, मरण है मीठा,
तिस मरणि मरो, जिस मरणि मरि गोरख दीठा ।

 

बाबाजी महाराज की वाणी में-
मौत बड़ी सुहावनी, क्यों डरता है तोय।
जीते जी जो मर गया, मरण न उसका होय।

 

जो इस तथ्य को जान लेता है कि मृत्यु अनिवार्य है, वह नियति है, मृत्यु के भय से मुक्त हा जाता है। अनिवार्य से क्या भय? जो होगा ही, जो होना ही है उसकी चिंता भी क्या? चिंन्ता तो उसकी होती है जिसमें परिवर्तन हो सके। यदि मृत्यु सुनिश्चित है, अगर जन्म से साथ ही तय हो गई हो तो चिन्ता की कोई बात नहीं। युद्ध के मैदान पर सैनिक जाते हैं। जब तक युद्ध के मैदान पर ही नहीं पहुंचते तब तक भयभीत रहते हैं। जैसे ही युद्ध के मैदान पर पहुंचते है, एक-दो दिन के भीतर सब चिन्ता भय मिट जाता है। कायर से कायर सैनिक भी युद्ध के मैदान में पहंुंचकर बहादुर हो जाता है

 

मृत्यु की स्वीकृति में ही विजय है। फैलाव के साथ-साथ ही सिकुड़न को स्वीकार कर लिया। जन्में हैं, उसी दिन जाना कि विदा हो रहे हैं, ऐसी स्वीकृति मृत्यु से मुक्ति है। फिर मरना कैसा? उसे न जन्म का मोह रहा और न मृत्यु का भय रहा। मैं पहले था तभी तो मैं जन्म ले सका, नहीं तो मैं जन्मता ही कैसे ? मृत्यु के बाद भी मैं रहूंगा तो ही मृत्यु हो सकती हैं, नहीं तो मृत्यु होगी किसकी? मृत्यु है इसलिए जन्म है। जो जानता है, उसके लिए मृत्यु अन्त नहीं, जीवन के बीच घटी एक घटना है, प्रारंभ नहीं। इस व्यवस्था को जो जान जाता है, वह व्यवस्था से मुक्त हो जाता है। जो बना है, वह बिखरेगा। जो मिला है, वह छुटेगा। मृत्यु के रहस्य को जो जान लेता है, वह दुःख, पीड़ा, संताप, चिंता आदि से भी मुक्त हो जाता है। क्योंकि वे सब मृत्यु की छाया में हैं। हम दुःखी है क्योंकि हम बालू के घर बनाते हैं, पानी पर रेखाएं खींचते हैं। कोई दूसरा मरता है तो कहते हैं बेचारा मर गया। खयाल ही नहीं आता, अपने मरने की खबर आई है। किसी अंग्रेज कवि की पंक्ति है- किसी को भेजो मत पूछने कि लिए की चर्च की घंटी किसके लिए बजती है। तुम्हारे लिए ही बजती है। बिना पूछे ही जानो कि तुम्हारे लिए ही बजती है।’ हम मौत से बहुत घबराते हैं। हम मृतक को फूलों से ढककर मौत की भयावहता को कम करने की चेष्टा करते हैं। हमारे श्मशान एवं कब्रगाह गांव से दूर होते हैं। हम डरते हैं उनके समीप से निकलने में। श्मशान को कितना ही गांव के बाहर खिसकाओ, मौत गांव में ही घटती रहेगी, श्मशान में नहीं। मृत्यु के परदे को हटाना होगा। मरजीवा होना होगा।

 

संन्यास का अर्थ यही है- जीते जी, इस तरह जीना जैसे मर गए। मृत्यु में जो उतरेगा, वह अमृत को उपलब्ध होगा। संन्यास अपने ही हाथ से मृत्यु की खबर अपने को दे देना है। कह देना है जो मंदिर में शंख बज रहा है, मेरे लिए ही बज रहा है, वह जो रास्ते से लाश गुजर रही है, वह मेरी ही गुजर रही है। ज्यों ही यह भाव उतरेगा अस्तित्व के रोम-रोम में, तो आत्मा का नूर प्रकट हो उठेगा। वह सभी भ्रंातियांे से, असमानताओं से ऊपर उठकर कह उठेगा-
‘आता है वज्द मुझको, हर दीन की अदा पर।
मस्जिद में नाचता हूं, नाकूस की अदा पर।।

 

5. उपनिषद का ऋषि कहता है- ऊँ क्रतो स्मर, कृतं स्मर, क्रतो स्मर, कृतं स्मर। हे मेरे संकल्पात्मक मन, तेरे किए हुए का स्मरण कर, तेरे किए हुए का स्मरण कर। आज खाली कर दे मन के कोश को। याद कर ले अपने दुःखपूर्ण जीवन को, याद करले वासनाओं के क्षणिक सुख को , याद करले उस खड्ड को जिसमें तू लटका हुआ है।

 

एक आदमी भागाचला जा रहा है। हीरों की खोज में। एक-एक को यादकर, काम को याद कर, क्रोध को याद कर, लोभ को याद कर, मोह को याद कर। सबने तुम्हें किस तरह नाच नचाया है। आज कह दें- अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल। प्रभु की प्रार्थना कर। तुम्हारी प्रार्थना में मीरा की करूणा, सूर का समर्पण, चैतन्य की तन्मयता, तुलसी की भक्ति, द्रोपदी की पुकार भर दे। हीन भाव त्यागो। प्रार्थना से तुम्हारा कर्म दोष भस्मीभूत हो जाएगा। अब तुम सोचो, मैं अमृत पुत्र हूं। तुम जो सोचोगे, वही हो जाओगे। जो तुम आज हो गए हो, वह तुमने जो कल सोचा था उसका परिणाम है। हमारी ही नासमझी फलीभूत हुई है। हमारे ही गलत भाग सघन होकर आचरण बने हैं। हमारे विचार का फल है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक एडिग्टन ने कहा है- यह विष्व जो है यह ही विचार केन्द्रीभूत होकर हमारा एक जीवन बना है। विचारों की सूक्ष्म तरंगे, आज नहीं कल वस्तु बन जाएगी। सभी वस्तुए विचार के सघन रूप है। हम जो है हमारे विचार की तरह ज्यादा है बजाय एक वस्तु के। विचार के प्रति सजग हो जा वही सोचो जो कल्याणकारी है।

 

5. बाबाजी महाराज की वाणी में,
‘वहां कोई चंदन सूर है, वहां नहीं घर आकाश।
श्रद्धा वहां आलोक है,ब्रह्मानंद विलास।।

 

बाबाजी महाराज ने अन्तिम कुछ दिनों में एक बात कई बार दोहरायाी। सब कुछ डूब गया है प्रकाश में। सजीव-निर्जीव सब डूब गए हैं उस प्रकाश में। स्वतः धवल प्रकाश फैल गया है, धरती और आकाश के बीच। तुम सब उसमें डूबे हुए से दिख रहे हो। आलोक ही आलोक। उपनिषद् के ऋषि की अन्तिम प्रार्थना है-
‘हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्
तत्वं पूषन्न पावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।

 

ब्रहम् का मुख ज्योतिमय पात्र से ढका हुआ है। हे प्रभो! तुम मुझ सत्यधर्मा को आत्मा की उपलब्धि कराने के लिए उसे उघाड़ दे। सत्य ज्योति से ढ़का है। उस प्रकाश के पर्दे को हटाने के लिए ऋषि प्रार्थना कर रहा है। ऋषि खड़ा है बिल्कुल आमने-सामने परम सत्य के। बड़ी दुविधा है, प्रकाश के आधिक्य के कारण सूक्ष्म आंखे भी चौधियां जा रही हैं। जैसे-जैसे सत्य की तरफ यात्रा होती हैं, वैसे-वैसे प्रकाश बढ़ता जाता है। ध्यान में गहरे उतरते हैं, प्रकाश बढ़ता चला जाता है। एक बिन्दु ऐसा आता है जब प्रकाश इतना ज्यादा हो जाता है कि गहन अंधकार मालूम होने लगता है। इसे बाइबिल में आत्मा की अधंकारपूर्ण रात्रि कहा गया है। ऋषि प्रार्थना कर रहा है ‘प्रकाश के इस पर्दे को हटाले ताकि मैं इसके पीछे छिपे सत्य के मुख को देख सकूं। अनन्त सूर्य एक साथ जलने लगते हैं। अंधकार में आंख खोलना आसान है, प्रकाश के आधिक्य में आंख खोलना बहुत कठिन है। हमने प्रकाशित चीजें देखी है, प्रकाश के स्त्रोत को देखा हे, प्रकाश को देखा ही नहीं है। प्रकाश का अनुभव बाहर के जगत में होता ही नहीं। प्रकाश इतनी सूक्ष्म ऊर्जा है कि बाहर उसके दर्शन नहीं हो सकते। प्रकाश के दर्शन तो भीतर ही होते हैं। अरविन्द ने लिखा है, ‘जब तक भीतर नहीं देखा था, तब तक जिसे प्रकाश समझा था, भीतर देखने के बाद मालूम चला, वह अंधकार है।

 

यहां ऋषि ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय‘ अंधेरे से प्रकाश की ओर ले चल, प्रार्थना नहीं कर रहा। वह ज्योति के सामने पहुंच गया है। वह तो प्रकाश के पर्दे को हटाने के लिए प्रार्थना कर रहा है। अर्जुन की प्रार्थना है, हे कृष्ण! हे सखे! मुझे तो तुम्हारा विश्वरूप बिल्कुल भी दिखाई नहीं पड़ रहा है। साधक लक्ष्य पर पहुंच गया है। प्रकाष का पर्दा इतना गहन हैं कि सत्य के दर्शन नहीं हो पा रहे हैं। ज्यों ही प्रकाश का पर्दा हटता है, सत्य का मूल रूप आलोक फूट पड़ता है। बाबाजी महाराज जिस प्रकाश की बातें करते थे, वह आलोक था सत्य का। वे उस आलोक में मग्न थे, आनन्दित थे। आलोक दर्शन होते ही ज्ञाता और ज्ञेय दोनों खो जाते हैं। दृष्टा और दृश्य खो जाते हैं, फिर ऋषि ही सत्य हो जाता हैं। भक्त खोजता है, भगवान खो जाता है। यह परम मुक्ति का लक्ष्य है, परम मुक्ति का क्षण है। ऐसे क्षणों मे रहे बाबाजी महाराज अन्तिम दिनों में। अन्तिम समय की खिलखिलाती हुई मुस्कान इसका प्रमाण दे गई।

 

वंदन करते है ऐसे महापुरूष को इस पुण्य दिवस पर, नमन् करते हैं ऐसी परम मुक्त आत्मा को। प्रार्थना ही कर सकते हैं, इस विराट अस्तित्व को, शिवस्वरूप नाथजी महाराज को। शंकराचार्य के शब्दों में -
‘आत्मा त्वं गिरिजामतिः
सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं।
पूजस्ते विषयोपभोग रचना,
निद्रा समाधि स्थितिः।
संचारः पदयोः प्रदक्षिणा विधिः।
स्त्रोत्राणि सर्वागिरो।
यद्यत् कर्म करोमि ततदखिलं,
शंभो तवाराधनम्।।‘

 

हम नाथजी महाराज से प्रार्थना करें -
ऊँ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णामादाय, पूर्णमेवाव शिष्यते।।

 

बाबाजी महाराज तब भी पूर्ण थे, अब भी पूर्ण हैं। पूर्ण से ही आए थे। पूर्ण में ही समाहित हो गए। ऐसे परम-ब्रह्म स्परूप बाबाजी महाराज को मेरा सहस्त्रशः नमन्। आप सबका सहस्त्रशः वंदन।

 

बाबाजी महाराज की प्रथम निर्वाण तिथि की पूर्व संध्या पर प्रवचन, १॰ अगस्त 1986

 

फोटोगैलेरी

Submit Now
Submit Now
^ Back to Top