गुरूसत्ता परमसत्ता 

 

परमात्मा एक रहस्य है। इस रहस्य को उद्घाटित करने वाले महापुरूषों का आविर्भाव भी समय-समय पर होता ही रहता है। जिन्होंने इस रहस्य को खोज लिया उनकी खोज समाप्त हो जाती है। ऐसे ही महापुरूषों में बाबाजी महाराज भी एक थे। वे कहा करते थे- आदमी तब आदमी बनता है जब उसके भीतर का शिष्य प्रकट हो जाए। शिष्यत्व का प्रकट होना मनुष्यता की पराकाष्ठा है। हमारे अन्दर गुरूवत्ता का अविर्भाव भगवत् सत्ता का अविर्भाव है। उनके शब्दों के अनुसार जीवन का लक्ष्य है - गुरूसत्ता को प्राप्त करना। इस गुरूसत्ता को प्राप्त करने के लिए जो पराक्रम करना है जो विक्रम दिखाना है उसी का विवेचन करना आज का मेरा विषय है।

 

जहां पराक्रम होगा, वहां अभिक्रम निश्चित होगा। हमारे दो जगत हैं - भीतरी जगत एवं बाहृय जगत। जिन लोगों ने भीतर जगत का साक्षात्कार नहीं किया है वे बाहर में लडे़ंगे, दूसरों से लडें़गे, हिंसा फैलाएंगे। जिन लोगों को आंतरिक जगत का भान होने लगा है, वे युद्ध तो लडेंगे पर यह युद्ध अपनी ही दुर्बलताओं से होगा। यह युद्ध होगा - काम, क्रोध, लोभ, मात्सर्य आदि दुष्प्रवृत्तियों से। यह युद्ध होगा अपने मन के साथ, अपनी बुद्धि एवं अहंकार के साथ। इस आंतरिक युद्ध में विजय वास्तव में विश्व विजय है। महावीर ने कहा है - ‘जुद्धा रिहं खलु दुल्हम्। - युद्ध का क्षण दुर्लभ है। जो पुरूष भयंकर संग्राम में दस लाख लोगों को जीतता है, उसकी अपेक्षा उस व्यक्ति की जीत ज्यादा कठिन है, जो अपनी आत्मा को जीतता है।

 

जो हिंसक युद्ध हम अहर्निश मनसा, वाचा, कर्मणा लड रहे हैं वह दूसरों के जीवन के साथ खिलवाड़ है। इस युद्ध में हारने वाला तो हारता ही है, जीतने वाला भी हार जाता है। इस युद्ध में व्यक्ति स्वयं दुःखी बना देता है और अवशेष व्यक्ति एवं समाज को दुखी बना देता हैं।

 

जिस युद्ध में हम आज उलझे हुए है, उसका मुख्य प्रेरक हमारा मन है। हमारे शास्त्र कहते हैं ‘मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः।‘ हमारे बंधन एवं मुक्ति का कारण हमारा यह मन ही है। इस मन ने ही हमें दुःखों से बांध रखा है। यह मन ही हमें सब दुःखों से मुक्ति दिला सकता है। मन पर जीत हमारी अंतिम जीत है। मन स्वर्ग एवं नरक दोनों का द्वार है। इस मन की शक्ति की ओर संकेत करते हुए गोरखनाथजी महाराज कहते हैं:-
‘यह मन शक्ति यह मन शीव।
यह मन पांच तत्व का जीव।
यह मन से जे उन्मन रहे।
जो जीन लोक की बातां कहे।

 

स्वयं बाबाजी महाराज भी कहते हैं:-
मन की चालां घणी, मन ही ज्ञान-विज्ञान।
श्रद्धा मन को उलट दे, धरी उन्मनि ध्यान।

 

ऐसे शक्तिशाली मन पर ही अपन को आज विचार करना है प्रथम प्रश्न है - मन क्या है ?

 

मन कोई स्थायी तत्व नहीं है। वह चेतना से सक्रिय बनता है। यदि एक वाक्य में कहा जाए तो कहा जा सकता है जो चेतना बाहर जाती है, उसका प्रवाहात्मक अस्तित्व ही मन है। शरीर का अस्तित्व जैसे निरन्तर है, वैसे भाषा और मन का अस्तित्व निरन्तर नहीं है। किन्तु प्रवाहात्मक है। भाष्यमाण भाषा होती है। भाषण से पहले भी भाषा नहीं होती और भाषण के बाद भी भाषा नहीं होती। भाषा केवल भाषणकाल में होती है। इसी प्रकार ‘मन्यमान‘ मन होता है। मनन से पहले भी मन नहीं होता और मनन के बाद भी मन नहीं होता। मन केवल मनन काल में होता है। मन चैतन्य के विकास का एक स्तर है इसीलिए वह ज्ञानात्मक है किन्तु उसका कार्य स्नायु मेंडल, मस्तिष्क और चिंतन योग्य की सहायता से होता है अतः वह पदार्थ भी है।

 

मन क्रिया तंत्र का एक अंग है। यह एक कर्मचारी है। इसका काम है स्वामी के निर्देशों का पालन करना। मन न अच्छा करता है और न बुरा। अच्छे या बुरे का सारा दायित्व स्वामी का होता है। मन तो चित्त के निर्देश का पालन करता है। मन की चार परतें हैं, मन स्थूल, चित्त सूक्ष्म, बुद्धि सूक्ष्मतर एवं अहंकार सूक्ष्मतमें जो तरंगे अहंकार जगत से उठती हैं वे बुद्धि बन जाती है। बुद्धि की तरंगे चित्त बन जाती है और चित्त की तरंगे मन हो जाती है। हमारी प्रतीति तो मन तक ही है। पर साधना के गहन स्तर पर चित्त, बुद्धि एवं अहंकार की भी प्रतीति हो जाती है। इस समय हम केवल मन पर ही चर्चा कर रहे हैं। अतः मन का अर्थ है - संकल्प-विकल्प। मन का अर्थ है - स्मृति और चिंतन। मन तीन कालों में बंटा हुआ है। जो अतीत की स्मृति करता है। भविष्य की कल्पना करता है और जो वर्तमान का चिंतन करता है उसका नाम है-मन। तीनों चंचलताएं हैं। स्मृति एक चंचलता है, कल्पना एक चंचलता है और चिंतन एक चंचलता है। जब स्मृति, कल्पना एवं चिंतन नहीं होते, तब मन नहीं होता। मन को स्थिर करने की बात केवल एक भ्रान्ति है। मन को मिटाना आवश्यक है। अभ्यास से हम मन को कोई भी आकार दे सकते हैं। वह देवता भी बन जाता है और राक्षस भी। पर उसमें ये दोनों ही स्वरूप धोखा देने वाले हैं। तन्मयता और एकाग्रता के साथ हमने जो भवना की, वैसा ही मन हो जाता है। यह जरूर है मन को अमन करने के लिए तन्मयता एवं एकाग्रता साधना की प्रथम सीढ़ी है।

 

वस्तुतः कोई भी भौगोलिक राज्य उतना बडा नहीं है जितना मनोराज्य है। कोई भी मान उतना द्रुतगामी नहीं है जितना मनों मान है। कोई भी शस्त्र उतना संहारक नहीं है जितना मनः शस्त्र है। कोई भी शास्त्र उतना तारक नहीं है जितना मनः शास्त्र। उसकी ग्रंथियों को फैलाया जाए तो पाचों महाद्धीपों में नहीं समा पाती। इस छोटे से शरीर में इन असंख्य ग्रंथियों की स्थिति बहुत ही आश्चर्यजनक है। इसीलिए अर्जुन को कहना पड़ा-
चंचल हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद् दृढम्।‘

 

ऐसे चंचल मन को समझने के लिए मन के स्वरूप को समझना होगा। मन के तीन कार्य हैं - स्मृति, कल्पना और विचार। स्मृति से तात्पर्य है हमारे संस्कारों का जागरण। जो हमने देखा है, सुना है, अनुभव किया है। वे सब हमारे मस्तिष्क में संचित रहते हैं। स्मृति के प्रकोष्ठक हैं। ऐसी संचित स्मृतियां निमित्त और उद्दीपन पाकर समय-समय पर जागृत होती रहती हैं। हम जो देखते हैं, सुनते हैं, उनका निश्चय होता है। निश्चय होने के बाद वह बात धारणा में चली जाती है। ऐसी धारणाएं स्मृति चिह्न बन जाती हैं। हर एक देखी हुई या सुनी हुई बात का स्मृति चिह्न नहीं बनता। अधिकांश बिंब या ध्वनि आंख या कान तक ही सीमित रहते हैं। पर जिस बिंब या ध्वनि के प्रति लगाव महसूस हुआ है, ऐसे बिम्ब या ध्वनि स्मृति चिह्न के रूप में बदल जाते हैं। ऐसी स्मृतियों का चर्वण मन सोते जागते करता रहता है।

 

मन का दूसरा कार्य है - कल्पना करना। इच्छा और अभिलाषा की अभिव्यक्ति कल्पना है। कल्पना में कोई नया ज्ञान नहीं होता, केवल ज्ञान का संयोजन होता है। दो या अनेक ज्ञान तत्वों का संयोजन कर देना कल्पना है। कल्पना का बहुत बडा उपयोग है। आदमी कल्पना करता है, वह कल्पना प्रेय बनती है। यह कल्पना हमारे पुरूषार्थ की निमित बनती है। विश्व में जितने भी अविष्कार होते हैं पहले उन सबकी कल्पना की जाती है। आदमी ने कभी कल्पना की थी कि आकाश में उड़ा जा सकता है। आज वह कल्पना साकार हो गई। कल्पना की सघनता संकल्प का रूप ले लेती है। कल्पना का ही दूसरा रूप है - विकल्प। में दुःखी हूं, में सुखी हूं यह कल्पना ही तो है। कल्पना के साथ ही सुख और दुःख की तीव्रता आती है। यदि आदमी ने निश्चय कर लिया कि दुःख होता ही नहीं सब सुख ही सुख है तो दुःख भी सुख में बदल जाता है। महापुरूषों के जीवन इसके उदाहरण हैं। कुन्ती ने दुःख में जीने का वरदान मांगा। मीरां बाई के लिए जहर का प्याला प्रभु का प्रसाद हो गया।

 

मन का तीसरा तत्व है - विचार। इस मन की क्रिया निरन्तर चलती रहती है। आदमी निरन्तर सोचता रहता है। शब्द का व्यवहार उसका माध्यम है। शब्द भी विचार हो विचार का अर्थ है- विचरण करना, गतिशील होना। इन्द्रिया अपने-अपने प्रतिनियम विषयों को ग्रहण करती हैं और वे सारे ग्रहण हमारे मस्तिष्क में अंकित होते रहते हैं। जो विषयगृहित हैं उनका निर्धारण करना, विश्लेषण करना-मन का कार्य है। विचार के बिना एक दूसरे के साथ सम्पक्र स्थापित नहीं हो सकता। इन्द्रियों का काम सम्पक्र स्थापित करना नहीं है। आंख ने इस शमियाने को देखा और कुछ समय बाद किसी दूसरे शमिया ने को देखा। आंख का निर्णय नहीं कर सकती - यह शमियाना आश्रम में देखा हुआ शमियाना है या अन्य कोई शमियाना है। आंख का काम है - आकार को पकड लेना। शमियाना का तुलनात्मक अध्ययन करना, उसका विश्लेषण करना, निर्णय करना मन का काम है। संपक्र का सूत्र है - मन। यह ठंडा है, यह गर्म है - यह निर्णय इन्द्रियों का नहीं मन का होता है। बिंबों, ध्वनियों एवं क्रियाओं का परस्पर जोड़ना मन का कार्य है।

 

मन को जीतने का अर्थ होता है - स्मृति का नियोजन करना। मन पर पहली जीत है - सतत स्मृति का अभ्यास। एक ही स्मृति पर दीर्घकाल तक टिक जाना मन पर विजय है। मन का कार्य है - स्मृतियों को सतत बदलते रहना। वह एक स्मृति पर नहीं टिकता। जब हम एक ही स्मृति पर दीर्घकाल तक टिके रहने लग जाते हैं तब मन का कार्य गौण हो जाता है और अपनी चेतना का प्रभुत्व स्थापित हो जाता है। सतत स्मृति और विस्मृति का योग - यह मन पर पहली विजय है। किसी स्मृति पर लंबे समय तक टिके रहने से अपने आप ही विस्मृति आ जाती है। नाथजी महाराज की समाधि के समक्ष बैठकर दीर्घ समय तक केवल नाथ जी महाराज का स्मरण करते रहने से पूर्ण विस्मृति में अर्थात शून्य में चले जाते हैं। स्मृति की शून्यता, कल्पना एवं विचार की शून्यता है। क्योंकि विचार का आहार है स्मृति और कल्पना। जब स्मृति एवं कल्पना ही नहीं होंगे तो विचार कहां से आएगा ? एक वाक्य में - स्मृति, कल्पना एवं विचार का नियमन ही मन पर जीत है।

 

इसी क्रम में हमें मन की अवस्थाओं की भी जानकारी ले लेनी चाहिए। योग की भाषा में तीन अवस्थाएं हैं - अवधान (Attention) एकाग्रता (Concentration) धारणा या ध्यान (Meditation)

 

पहली अवस्था है अवधान। यह मन की वह स्थिति है जहां हम मन को किसी वस्तु के प्रति लगाते हैं। जो मन घूमता रहता है, उसे किसी एक वस्तु के साथ लगा देना अवधान कहलाता है। इसमें पदार्थ के साथ मन का सम्बन्ध जुड जाता है। अवधान का अर्थ होता है - सावधान हो जाओ। इसका मतलब है एक कार्य के प्रति दत्त चित्त हो जाओ। अवधान जैसे बाह्य वस्तुओं के साथ होता है। वैसे ही कभी-कभी अपने मूल स्वरूप के प्रति भी होता है। अपने प्रति मन का अवधान होना एक विशेष प्रकार की स्थिति है। इस स्थिति में ही प्रज्ञा का उदय होता है, आंतरिक चेतना प्रकट होती है।

 

मन की दूसरी अवस्था है - धारणा (Concentration) इसे एकाग्रता भी कहा जाता है। यह अवधान से अगली अवस्था है। जहां जिस पदार्थ या अन्तर की किसी विशेष स्थिति में जब मन का अवधान किया जाता है तो विभिन्न दिशाओं में दौड़ने वाले मन को उसी एक बिन्दु पर ठहराया जाता है। जब मन एक ही स्थिति में कई देर ठहरने लगता है, उस स्थिति को धारणा कहते है।

 

मन की तीसरी अवस्था है - ध्यान (Meditation) केन्द्रीकृत मन की सघन अवस्था को ध्यान कहते हैं। किसी एक बिन्दु पर मन जम जाता है, उसमें डूब जाता है। इस स्थिति में मन, आनन्द का अनुभव करता है। ध्यान की लम्बी स्थिति में एक बिन्दु ऐसा आता है, जब मन अमन बन जाता है। ध्यान की स्थिति में मन को जाना जाता है, मन का स्वरूप क्या है ? मन को जानना एक अर्थ में स्वयं को जाना जाता है।, मन की निष्क्रियता के साथ ही चित्त का अनुभव होने लगता है। हमें महसूस होने लगता है कि बेचारा मन तो निर्दोष है। मन की उछल कूद तो चित्त की शक्ति एवं प्रेरणा से है। जब साधक की ध्यान की स्थिति में दो-तीन घंटे तक की हो जाती है तो उसे बुद्धि एवम् अहंकार का स्वरूप समझ में आने लगता है। मन के मरने के बाद भी अहंकार जिंदा रहता है। अहंकार समाप्त होने के साथ ही शरीर भी गिर जाता है, पर वह स्थिति पूर्ण ज्ञान की स्थिति होती है।

 

बाबाजी महाराज के श्रीमुख से मेंने मन की पांच भूमिकाओं के बारे में सूना है। वे हैं - (1) मूढ़ता (2) चंचलता (3) एकाग्रता (4) संलीनता (5) शून्यता

 

मूढता की अवस्था में मन पूर्णतया राग-द्वेष में लगा रहता है। कोई भी सद्वृत्ति या सत्कार्य उसे नहीं सुहाता। काम, क्रोधादि उसे हर वक्त घेरे रहते हैं। वह इन पाशविक वृत्तियों में सुख का अनुभव करता है। ऐसा मन कुतर्की होता है। हर गलत काम को न्यायोचित ठहराने की चेष्टा करता रहता है। उसका एक ही सिद्धान्त होता है - ऐसा तो दुनियां में होता ही रहता है। चंचलता की स्थिति में मन कभी संत तो कभी दुर्जन बनता रहता है। बड़ा व्याकुल रहता है। कई निर्णय करता है, किसी निर्णय पर टिकता नहीं। कभी वह वर्तमान से संतुष्ट रहता है तो कभी असंतुष्ट। इस स्थिति में मन के दो भाग हो जाते हैं - एक विश्लेषक दूसरा विश्लेषित। यह विश्लेषक उन अनके खण्डों में से एक है जिनसे मिलकर हम बने हैं। अर्थात् हमारे अनेक खण्डों में से ही एक खण्ड विश्लेषक की सत्ता ग्रहण कर लेता है और यह अन्य खण्डों का विश्लेषण करने लगता है। वह यह दावा भी करता है कि उसके पास ज्ञान है। यह विश्लेषक अपने मन का ही एक हिस्सा है। मन का एक खण्ड ही केन्द्र बन जाता है। निर्णायक के रूप में। यह केन्द्र भय, चिंता, लोभ, सुख, आशा, निराशा का केन्द्र है। यही केन्द्र विचार करता है, निर्णय करता है। मन का दूसरा खण्ड विश्लेषण की सामग्री तैयार करता रहता है। इस तरह पागल ही पागल का इलाज कर रहा है। यद्यपि विश्लेषक ही विश्लेषित वस्तु है तथा विश्लेषक व विश्लेषित के बीच अलगाव में ही द्वन्द्व की पूरी प्रकिया मौजूद है। मन की इस स्थिति को चंचलता की स्थिति कहा जाता है।

 

मन तो चंचल है ही, पर साधना की प्रारम्भिक अवस्था में भी मन खूब चंचल हो जाता है। विवेकानन्दजी ने रामकृष्ण परमहंस से कहा ‘गुरूदेव, वासना का इतना उभार आ रहा है कि में अपने को संभालने में अक्षम हूं।
रामकृष्ण ने उत्तर दिया - बहुत अच्छा।
विवेकानन्द - अच्छा कैसे, जब मन चंचल हो रहा है।
रामकृष्ण - तुम्हारी वासना मिट रही है। जो जमा पड़ा हुआ था, वह निकल रहा है।

 

ध्यान में आई चंचलता को देखते जाओ। साथ में मिलकर क्रिया न करो। मन को खुला छोड़ दो। थोडी देर की चंचलता के बाद मन अपने आप ठहरने लगेगा।

 

एकाग्रता में मन ध्येय के साथ चिपक जाता है, पर यह चिपकना यंत्रवत होता है। एक ही बिन्दु पर लम्बे समय तक धारणा करते रहने से मन में ठहराव आ जाता है। दर्जी कपडे सीता है या ड्राईवर गाडी चलाता है - दोनों का मन एकाग्र होता है। पर यह एकाग्रता ध्यान का अंग नहीं हो सकती। जापान में एकाग्रता के लिए जुड़ो कर्राटे का अभ्यास कराया जाता है। पर ध्यान की एकाग्रता में मन जब ठहराता है तो उसे कुछ आनन्द की अनुभूति होती है। यह आनन्द की अनुभूति ज्यो-ज्यों बढती है त्योे-त्यों मन अगली भूमिका अर्थात् संलीनता में पहुंच जाता है। संलीनता में मन ध्येय में लीन हो जाता है। जैस दूध में चीनी घुल जाती है। यद्य़पि घुलने से चीनी का अस्तित्व समाप्त नहीं होता अपितु चीनी का अस्तित्व दूध में विलीन हो जाता है। नाथ-योग-दर्शन में इसे समरसीकरण कहा गया है। एकाग्रता में आनन्द की अनुभूति अल्प कालिक होती है। संलीनता में आनन्द की अनुभूति स्थायी होती है।

 

संलीनता में मन की स्थिरता शिखर तक पहुच जाती है किन्तु मन का अस्तित्व या उसकी गति समाप्त नहीं होती। ध्याता, ध्येय में लीन होकर कुछ समय के लिए अपने अस्तित्व को भुला देता है किन्तु ध्येय की स्मृति उसे बराबर बनी रहती है। उसे यह अहसास बना रहता है कि में ध्यान कर रहा हूं, में आनन्द में हूं। पांचवी भूमिका अर्थात शून्यता में ध्येय की स्मृति भी समाप्त हो जाती है। मन का अस्तित्व या उसकी गति पूर्णतया समाप्त हो जाती है। यह निरावलम्बन ध्यान होता है। इसे समाधि की स्थिति कहते हैं। इस स्थिति में चैतन्य और आनन्द एकमेंक हो जाते हैं। योग शस्त्रों में वर्णित इस स्थिति को निर्विकल्प समाधि का नाम दिया गया है। यह अवस्था है -
अन्तः शून्यो बहिश्शून्यो, शुन्य कुंभ इवाम्बरे।
अन्तःपूर्णों बहिः पूर्णो पूर्ण कंुभ इवार्णवे।।

 

शून्य अन्दर व शून्य बाहर आकाश में स्थित रिक्त घडे़ की भांति, पूर्णता अन्दर और पूर्णता बाहर सागर में डूबे हुए घडे की भांति।
कबीर के शब्दों में:-
‘जल में कुंभ कुंभ में जल है ..............।

 

इस चर्चा के बाद यह प्रश्न सहज ही उठता है - ऐसे चंचल मन को अमन कैसे किया जाए? आज के मनोविज्ञान में मन को नियंत्रित करने के लिए तीन तरीके सुझाए हैं-
(1) दमन (Repression)
(2) शमन (Suppression)
(3) उन्नयन (Sublimation)

 

सामाजिक प्राणी होने के नाते आदमी को बहुत सारी मन की दुष्प्रवृत्तियों को नियंत्रित करना पडता है। जो मन में आता है उसे वह नहीं कर सकता। व्यक्ति के मन में जो आए और उसे करता चला जाए तो वह सामाजिक दृष्टि से पागल या अपराधी कहलाता है। समाज का अस्तित्व नियंत्रण व अनुशासन पर आश्रित है। कुलीन परिवार का व्यक्ति शराब पीने से इसलिए परहेज करता है क्योंकि शराब पीने से उसकी समाज में इज्जत मिट्टी में मिल सकती है। ऐसी दमित इच्छाएं स्थूल चेतना से हटकर अवचेतन जगत में चली जाती है जिसे फ्रॉयड एवं जुंग आदि मनोविज्ञानी (Subconcious mind) कहते हैं। ऐसी दमित वासनाएं कोई भी उद्दीपन पाकर फिर प्रबल रूप से उभरती है और व्यक्ति को पागल या अपराधी बना डालती हैं।

 

दूसरा तरीका है - शमन। समाज के प्रबुद्ध व्यक्तियों के संपक्र से, सांस्कृतिक परम्पराओं से, स्वाध्याय से, सत्संग से व्यक्ति को बोध होता है - यह कार्य अच्छा नहीं है। व्यक्ति काम, क्रोध, लोभ आदि दुप्रवृत्तियों से सहज ही बचने लगता है। इस प्रकार के नियंत्रण में अपने विवेक का प्रयोग होता है। इस प्रकार के नियंत्रण में किसी प्रकार की ग्रंथि का निर्माण नहीं होता।

 

तीसरा तरीका उन्नयन का है। मन बार-बार बुरे विचारों में जा रहा था। एक आलम्बन मिला स्वाध्याय का, आत्मालोचन का। यह तरीका अपने भारतीय आध्यात्मिक धारणा का तरीका है। जो द्वार नरक के लिए है वही द्वार स्वर्ग के लिए भी है। इस प्रक्रिया में काम करूणा में बदल जाता है, क्रोध पराक्रम एवं पुरूषार्थ में बदल जाता है। लोभ गुण-संचय में बदल जाता है, मोह प्रेम में तथा ईष्या उत्साह में बदल जाती है। इस प्रक्रिया में जो इन्द्रियां असत्प्रवृतियों के स्वाद से मुग्ध होती थीं, वे ही इन्द्रियां सद्वृत्तियों के प्रति आकर्षित होने लगती हैं। शब्द, रूप, रस, स्पर्श एवं गंध की क्रियाएं सही दिशाओं में सक्रिय हो जाती हैं। पर मनोविज्ञान के इन तरीकों की कोई व्यवस्थित प्रणाली न होने के कारण इसका व्यावहारिक पक्ष निर्बल है। अतः हमें उन तरीकोें का विश्लेषण करना चाहिए जो हमारे धर्माचार्याें, योेगियेां, संतो एवं शास्त्रों ने इंगित किए हैं। हमारा दर्शन यह कहता है- व्यर्थ है मन के साथ लड़ना। मन तो निर्दोष है। मन तो नौकर है। स्वामी कोई और है। बहुत गहरे से तरंगे आ रही हैं। अर्थात् अहंकार जगत से तरंगे आ रही हैं, मन तो उनका क्रियान्वयन करता है। अतः मन को जो इस समय बहुत ही निर्बल है, स्वस्थ एवं मजबूत बनाना है। मजबूत मन हमारा सही साथी सिद्ध होगा। मन को मजबूत बनाने के लिए संकल्प शक्ति को मजबूत बनाना होगा। संकल्प शक्ति को मजबूत बनाने के लिए प्रारम्भ में स्थूल निर्णय लेने होंगे - यथा ’इयाणिं नो’ अब नहीं करूंगा।
1. एक घंटा गर्मी सहूंगा कष्ट से विचलित नहीं होऊंगा।
2. एक घंटा सर्दी सहंूगा कष्ट से विचलित नहीं होऊंगा।
3. आज दिन भर भोजन नहीं करूंगा, कष्ट से विचलित नहीं होऊंगा।
4. दो घंटा प्यासा रहंूगा, कष्ट से विचलित नहीं होऊंगा।
ऐसे स्थूल संकल्प समय-समय पर लेते रहें तथा मन को इन संकल्पों से बांधे रखें।

 

दूसरा तरीका है- मन को प्रशिक्षित करने के लिए कर्म और मन का सामेंजस्य। क्रिया और मन साथ-साथ चलें। क्रिया कुछ हो रही हैं। मन कहीं अन्य क्रिया में लगा हुआ है। खाना खाएं तो मन खाने की स्मृति में रहे, चलें तो मन चलने की स्मृति में रहे, चलें तो मन चलने की स्मृति में रहें, बोलें तो मन बोलने की स्मृति में रहे, सोचें तो जिस बिंदु पर सोच रहे हैं उस बिन्दु पर ही मन को टिकाए रखें। एक चिंतन के साथ दूसरा चिंतन न करें। जैसे आप मुझे सुन रहे हैं, में आपको सुना रहा हूं- दोनों का उद्देश्य सुनने एवं सुनाने का तभी सफल होगा, जब हमारा मन इन क्रियाओं में लगा रहे।

 

मन को प्रशिक्षित करने का तीसरा सूत्र है- एकाग्रता। चंचलता मन की प्रवृत्ति है। मन की तुलना पारे से की जा सकती है। इस चंचलता के कारण मन की शक्ति कमजोर रहती है। सूर्य की बिखरी किरणों में वह शक्ति नहीं होती जो केन्द्रित किरणों में होती है। मन के प्रवाह को भी यदि विभिन्न आलंबनों से हटाकर एक ही आलंबन की ओर प्रवाहित किया जाए तो मन में अकल्पनीय शक्ति आ जाती है। एकाग्रता के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण उपाय काम में लिए जा सकते हैं। यथा-

 

1. द्रष्टा की स्थिति- मन की चंचलता को रोकने की चेष्टा मन कीजिए। वह जैसे जाता है, उसे देखते रहिए। मन की कल्पना एवं दौड़ के साथ सहकार मत कीजिए, कोई क्रियात्मक सहयोग मन को मत दीजिए। कुछ मिनटों बाद ही आप देखेंगे कि मन के संकल्प-विकल्प कम होने लगे हैं और एक बिन्दु ऐसा आता है कि मन निष्क्रिय हो जाता है। यह तटस्थ अवलोकन की क्रिया है।

 

2. विकल्पों की उपेक्षा - आपके मन में जो विकल्प उठते हैं, उनकी उपेक्षा कीजिए। मन के ढेर सारे प्रश्नों का जवाब मत दीजिए। मन की ढेर सारी समस्याओं का कोई हल मत सुझाइए। ऐसा अभ्यास किसी नियत एवं निश्चित समय पर कीजिए। अभ्यास का समय कम से कम एक घंटा अवश्य होना चाहिए।

 

3. श्वास-दर्शन- शरीर को स्थिर एवं श्वास को मेंद कीजिए। श्वास लंबा एवं मेंद होना चाहिए। मन को श्वास के साथ जोड़िए। साथ में नाम-स्मरण भी चालू रखिए। श्वास दर्शन एवं नाम स्मरण की दोहरी गांठ में मन बिल्कुल बंध जाता है।

 

4. आकृति आलंबन- अपने आराध्य की आकृति का मानसिक चित्र बनाइए या अपने आराध्य के चित्र को कभी खुली आंखों से या कभी बंद आंखों से कल्पना के द्वारा देखते जाइए। ऐसे आलंबनों में चित्र, मूर्ति, दीपक का प्रकाश, चांद की चांदनी, शरीर का कोई अंग यथा नासाग्र, भृकुटी, दोनों हथेलियांे आदि या अपनी स्वयं की छाया।

 

5. शब्द-आलंबन- इष्ट मेंत्रों में मन को लगाइए। ओउम् नमः शिवाय, ¬ शिव गोरक्ष, ¬ शिव, ¬ नमो भगवते वासुदेवाय, राम, कृष्ण आदि के नाम गायत्री मेंत्र या अन्य कोई मेंत्र। कानों को बन्द कर (रूई आदि के डाटे से) रक्त संचरण की आवाज में मन को लगाया जा सकता है। कई देर तक शब्द के साथ मन रहने के कारण मन पूर्ण निश्शब्द हो जाता है एवं शून्य में चला जाता है।

 

6. दृष्टि इच्छा शक्ति का प्रयोग- इच्छित शक्ति भावों से पैदा होती है। भावों की प्रबलता का नाम ही इच्छा शक्ति है। भावों को इच्छा शक्ति के रूप में बदलने का साधन है- स्वतः सूचना (Auto Suggestion) इस प्रक्रिया में व्यक्ति सदैव यह चिंतन करता रहता है- में इन्द्रियां नहीं हूं, में मन नहीं हूं, में क्रोध नहीं हूं, में लोभ या मान नहीं हूं। नेति-नेति करते चले जाएं। नेति-नेति करते-करते शेष रहेगा-केवल चैतन्य। में चैतन्य हूं, केवल चैतन्य हूं और कुछ नहीं।

 

7. प्रचण्ड वैराग्य भाव का विकास- वैराग्य भाव के लिए मृत्यु-दर्शन परम आवश्यक है। सोते, उठते, बैठते यह स्मरण रखना कि न तो यह शरीर रहेगा, न इन्द्रियां रहेगी और न यह मन रहेगा। सब अनित्य हैं, क्षण भंगुर है। नित्य एवं शाश्वत तो केवल एक आत्मा है। आत्मा ही मेरा मूल स्वरूप है। उस आत्मा को ही मुझे पाना है। ये परिजन, यह सत्ता, संपत्ति, यश-वैभव सब कुछ काल कवलित हो जाएंगे, बचेगा केवल मेरा चैतन्य स्वरूप। वैराग्य-वृत्ति का अर्थ होता है- संसार के प्रति अनासक्ति तथा अपने स्वयं के मूल स्वरूप अर्थात् आत्मा के प्रति अनुराग।

 

यह हैं कुछ महत्त्वपूर्ण व्यावहारिक सूत्र, जिनके द्वारा मन पर नियंत्रण किया जा सकता है। अपेक्षा है- दीर्घकाल नैरन्तर्य सत्कारासेवितः।’ दीर्घ काल, निरन्तरता एवं श्रद्धा ये तीन आधार हैं हर साधना के। यदि इन तीनों आधारों पर साधना की जाए तो कोई कारण नहीं कि मन नियंत्रण में न आए।

 

बाबाजी महाराज की निर्वाण तिथि की पूर्व संख्या पर दिया गया प्रवचन - 14 अगस्त 1991

 

फोटोगैलेरी

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