धर्म का मर्म 

आज का विषय है - धर्म क्या है ? धर्म की क्या आवश्यकता है। (धर्म का मर्म) धर्म शब्द से क्या अभिप्राय है ? धर्म शब्द संस्कृत की ‘धृ’ धातु से बना है। धृ का अर्थ है धारणा करना, संभाले रखना। महाभारत में जाजलि ऋषि ने धर्म की परिभाषा की है- ‘जो चीज सबको संभाले और मिलाए रखे-वही धर्म है। जिस बात से किसी को भी दुःख न पहुंचे वही धर्म है। महर्षि व्यास ने थोड़े शब्दों में धर्म की व्याख्या की है- ‘परोपकारः पुण्याय पापाय पर पीड़नम्’। मनु ने धर्म के दस लक्षण बताए हैं:-

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौच मिन्द्रिय निग्रहः।
धी र्विंधा सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्।।

धैर्य, क्षमा, इन्द्रिय दमन (निरहंकारिता), अस्तेय, पवित्रता, बुद्धि, विवेक, सत्य एवं अक्रोध।

आधुनिक युग में स्वामी विवेकानंद ने अनुभूति को धर्म बताया है, वे कहते हैं प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है। बाह्य तथा अन्तःप्रकृति को वशीभूत कर आत्मा के इस ब्रहम भाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। कर्म, भक्ति, ज्ञान एवं ध्यान-इनमें से एक या अधिक या सभी उपयों द्वारा अपना ब्रह्म भाव व्यक्त कर मुक्त होना ही संपूर्ण धर्म है। मतवाद, और अनुष्ठान पद्धति, शास्त्र, मन्दिर अथवा अन्य बा्रह्य क्रिया-कलाप धर्म के गौण अंगमात्र है। ईश्वरानुभूति करना ही धर्म है। अपने अन्तर्निहित देवत्व का विकास धर्म है। धर्म के तीन सोपान है-उपासना, साधना तथा अराधना। मन्दिर, मतवाद और अनुष्ठान आदि धर्म के गौण अंग हैं। विभिन्न तरह की पूजा पद्धतियां, मन्दिर, विभिन्न तरह के विकास ये सब धर्म के उपासना अंग के अन्तर्गत आते हैं। जन साधारण के लिए तो यह उपासना अंग ही धर्म है। सभी धर्मों की उपासना पद्धतियों में अन्तर है कभी-कभी तो वे एक दूसरे के खिलाफ खड़ी नजर आती है। दूसरे धर्मों यथा ईसाही, मुस्लिम, पारसी, यहूदी, धर्मों की उपासना पद्धतियों मे तो अन्तर है ही, हिन्दू धर्म में भी काफी अन्तर है। हिन्दू धर्म में वैष्णव शाकाहारी हैं तो शाक्त मांसाहारी। वेदान्ती ईश्वरवादी तो सांख्यवादी प्रकृति वादी। निर्गुण पंथी निराकार में आस्था रखते हैं तो सगुण पंथी साकार में। यहां तक कि विष्णु एवं महेश के पूजा-विधान में भी भारी अंतर है। दुनियां में जितनी भी लड़ाइयाँ धर्म को लेकर हो रही हैं, वे सब उपासना पद्धतियों में मौलिक अन्तर के कारण ही हुई हैं। सम्प्रदायवाद में भी अपनी-अपनी उपासना शैली के प्रति हठधर्मिता ही आपसी द्वेष एवं संघर्ष का कारण है।

धर्म का दूसरा तत्त्व साधना है। साधना धर्म का दूसरा सोपान है। साधना का सीधा संबंध आध्यात्मिकता से है। कर्मकाण्ड एवम् अनुष्ठान की स्थूल प्रवृत्तियों से मुक्त होकर जब व्यक्ति किसी साधना में लगता है तो उसकी संकुचित दृष्टि विस्तारित होने लगती है। साधना से तात्पर्य उन विधियों से हैं जिनके द्वारा व्यक्ति आत्मा का अनुसंधान करता है, अपने मूल स्वरूप की खोज करता है। साधना में ध्यान को सभी धर्मों ने आत्मानुभूति का एक सशक्त माध्यम मानाप है। किसी भी धर्म का साधक अपनी-अपनी अनुभूतियों में समानता महसूस करता है। यही कारण है कि मुस्लिम धर्म जैसे कट्टर संकीर्ण धर्म में भी सूफी संत परम दयालु, उदार एवं मानवतावादी हुए हैं। सूफी संत यद्यपि थे मुसलमान परन्तु साधना के द्वारा प्राप्त आत्मानुभूति के कारण उन्हें सभी धर्मों का ईश्वर एक ही दिखाई दिया। आदमी में उन्हें खुदा का नूर दिखाई पड़ा। रजब की उक्ति उन्हें सत्य प्रतीत हुई:-

‘अपने-अपने पंथ की स बही राखत टेक।
रजब निशाना एक है तीरंदाज अनेक।।

ईसाई धर्म के पालकों में, जो ईसाई साधना के सोपान पर चढ़े हैं, उन्हें भी कहना पड़ा-प्रकाश तो एक ही है, प्रकाश-वाहक अनेक हैं (The light is one torch bearers are many)

धर्म का लक्ष्य है-सत्य का साक्षत्कार करना। साधक का भी लक्ष्य है-‘सत्यानुभूति करना। दोनों का लक्ष्य समान है। सत्य ही परमात्मा है। परमात्मा इस जगत का शुद्धतम सार है। फूल की तस्वीर बन सकती है, पर सुगंध की तस्वीर कैसे बन सकेगी ? फूल में देह है और सुगंध में आत्मा। परमात्मा सुगंध है इस अस्तित्व की। तस्वीर वीणा की भी बन सकती है पर वीणा के स्वरों की, वीणा के संगीत की तस्वीर कैसे बन सकेगी ? साधक इसी सुगंध को पीता है और इसी संगीत में डूबकियां लगाता है। उसकी संज्ञा से भेद-ज्ञान छूट जाता है।

परमार्थ या सत्य का विचार प्रधान तथा तीन दृष्टियों से होात है (1) बीज रूप से (2) पर रूप से और अन्य रूप से अथवा यों कहिए ‘में’ रूप से , यह रूप से तथा ‘वह’ रूप से। ये ही रूप क्रमशः अध्यात्म, अधिभूत और अधिदेह दृष्टिायां कही जाती हैं। जिज्ञासु उसका अध्यात्म दृष्टि से विचार करते हैं। भौतिकवादी अधिभूत दृष्टि से और भक्त लोग अधिदेव दृष्टि से। जिन्हें दृश्य से वैराग्य है और द्रष्टा की खोज है वे अध्यात्मवादी हैं। उनकी दृष्टि में दृश्य स्वप्न के समान केवल द्रष्टा का विलास मात्र है। जिनका दृश्य में राग है और प्रयोगशाला का निर्णय ही जिनका परम प्रमाण है, वे भौतिक वादी हैं। उनकी दृष्टि में चेतन आत्मा भी प्रकृति का ही परिणाम है। जिनका दृश्य में न विशेष राग है और न वैराग्य है, वे इस दुनियां में रहते हैं व खरीदारी नहीं करना चाहते। वे ही ज्ञानी, कर्मयागी व भक्त कहे जाते हैं। परन्तु कोई ऐसा भी हो सकता है जिसमें तीनों दृष्टियां स्फूर्त हैं। तीनों की दृष्टियां अपनी अपनी योग्यता के अनुसार उसी सत्य की खोज करती हैं। यद्यपि इन दृष्टियों के देखने के तरीकोें में भिन्नता है, पर देखती तो उसी परम सत्य को ही हैं न। अतः सभी दृष्टियां ठीक हैं। ज्ञानी विवेक दृष्टि से देखते हैं, कर्मी इन्द्रिय दृष्टि से देखते हैं और भक्त भाव दृष्टि से देखते हैं। ये सभी दृष्टियां धर्म दृष्टियाँ हैं।

धर्म की मान्यता है कि सत्य वास्तव में एक हे, एक ही है। एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति।’ अनेक सत्यों का होना किसी प्रकार संभव नहीं है यदि सत्य अनेक होंगे तो वे सीमित होंगे। जो सीमित होंगे वे नाशवान भी होंगे। सत्य तो वह है जो त्रिकाल बाधित हो। तीनों कालों में एक सा रहने वाला हो।

सत्य एक होने पर भी उसकी अनुभूति विभिन्न व्यक्तियों को एक रूप में नहीं हो सकती। संसार की ही किसी वस्तु को लें। एक वस्तु एक ही काल में विभिनन व्यक्तियों को एक रूप में दिखाई नहीं देती। कोई पूर्व में है, कोई पश्चिम में, कोई उत्तर में, कोई दक्षिण में। अपनी-अपनी दिशा से देखने के कारण उसे एक रूप में कैसे देख सकते हैं ? आप कहंगे - हम आपके पूर्व में हैं और हम कहेंगे आप हमारे पश्चिम में है। दोनों ही सही हैं। इसी तरह किसी भी वस्तु को एक व्यक्ति पूरा नहीं देख सकता। उसे उस वस्तु के एक ओर का भाग दिखाई देगा - दूसरी और का नहीं।

अनन्त की शक्ति भी अनन्त है और प्रत्येक वस्तु उस अनन्त की ही अभिव्यक्ति है। फिर उसे जीवन की सीमित शक्ति कैसे हृदयंगम कर सकती है। एक तोला कितने ही आकारों में बदला जा सकता है। संसार की छोटी छोटी वस्तुओं में भी हमारा ज्ञान बहुत सीमित है तो जो शक्ति इन सबका अधिष्ठान है, सबका रचयिता और सर्वस्व है, उसके विषय में किसी एक मत का आग्रह होना कहां की बुद्धिमानी है ? फिर भी यह विडंबना है कि आदमी अपने अपने मत का कितना आग्रही है। व्यक्ति एक होता है, पर पुत्र उसे पिता कहता है, पत्नी उसे पति कहती है, पिता उसे पुत्र कहता है और बहिन उसे भाई कहती है। अपने अपने संबंधों की दृष्टि से सभी ठीक कहते हैं। पर ये सब संबंध कल्पित हैं। निरपेक्ष दृष्टि से तो वह न तो पुत्र है, न पिता है और न भाई है। धर्म की दृष्टि यही है कि विभिन्न संप्रदायों ने सत्य के विषय में जो कुछ कहा है वह उनकी अपनी दृष्टि और योग्यता के अनुसार सत्य है। कहना सुनना सब सापेक्ष दृष्टि से ही होता है। सत्य का साक्षात्कार करने के लिए किसी साधन पद्धति की आवश्यकता होती है और सब साधकों की योग्यता समान नहीं होती है। अतः विभिन्न योग्यता के साधकों के लिए आचार्यों ने जो साधना - पद्धतियां आविष्कृत की हैं, वे ही विभिन्न धर्म हैं, वे ही विभिन्न संप्रदाय है। नदी पार करने के लिए नौका की आवश्यकता होती है परन्तु तट पर पहुंचने के लिए नौका को छोड़ना पड़ता है।

छत पर पहुंचने के लिए सीढ़ियों की आवश्यकता होती है, परन्तु उन्हें छोड़े बिना कोई छत पर नहीं पहुंच सकता। इसी प्रकार संसार को पार करने के लिए किसी सम्प्रदाय या साधना-पद्धति का अनुसरण अनिवार्य है परन्तु उसी धर्म विशेष या सम्प्रदाय विशेष या साधना विशेष का आग्रह हठधर्मिता पूर्ण है तथा अधर्म का पोषक है। इसके कारण पारस्परिक संघर्ष तो होता ही है, लक्ष्य की भी उपलब्धि नहीं होती।

एक तथ्य और हृदयंगम करने योग्य है कि जिन धर्मों में जितने ज्यादा आचार्य हुए हैं, जितनी ज्यादा साधना-पद्धतियों का आविष्कार हुआ है वे धर्म, सहिष्णु, उदारवादी एवं मानवतावादी हैं। जैसे अपने देश का हिन्दू अर्थात् सनातन धर्म। जिन धर्मों में आचार्यों की कमी रही है या साधना पद्धतिया सीमित रही हैं, वे धर्म कूप मण्डूक, अनुदार, कट्टर एवं हिंसावादी हैं तथा मुस्लिम एवम् ईसाई धर्म।

अध्यात्मवादी सबको अपनी दृष्टि का ही विलास समझता है। जब सब उसी की दृष्टि का विलास है तो किसी से विरोध क्यों ? भौतिकवादी सबको प्रकृति में तो कोई भेदभाव है नहीं। वह तो समदृष्टि है, फिर भौतिकवादी विषयतावादी कैसे हो सकता है। ? अधिदेव वादी की दृष्टि में सब भगवान की लीला है। फिर वह किसी से क्यों राग करे और क्यों द्वेष करें? इस प्रकार तीनों निष्ठाओं में राग-द्वेष को कोई स्थान नहीं है। धर्म की दृष्टि है सभी नाम एवं रूप परमसता के ही है। वह सत्ता अनाम, अरूप और अखण्ड होते हुए भी अपनी लीला से नाम रूप धारी एवं विभाजित दिखाई पड़ती है। सच्चा धर्म वह है जो यह मानता है कि ब्रहमाण्ड मेंरे में समाया हुआ है तथा मेरा ही स्वरूप ब्रहमाण्ड के रूप में विस्तारित है। उसका मानना है कि इस पिण्ड एवं ब्रह्माण्ड दोनों में पर सत्ता ही विद्यमान हैं।

धर्म का उद्देश्य है - बंधन से मुक्ति दिलाना। ‘में’ और ‘मेरा’ बोध बंधन है। हम अज्ञानवश आत्मा और अनात्मा को को एक में मिला डालते हैं। इस सजीव को तो अपना मानते ही हैं, निर्जीव को भी अपना मानने की भूल करते हैं। जहां ‘में’’ और मेरा का बंधन टूटता है, आत्मा का मूल स्वरूप उद्घाटित हो उठता है। ‘में’ में कर्त्तापन का बोध तथा ‘मेरा’ में राग-द्वेष का भाव है। जब कर्तापन भाव समाप्त हो जाताा है तो एक निर्लेप तथा निष्पक्ष आत्मभाव का उदय होता है। ज्यों ही ‘मेरा पन’ को लोप होता है पूरा जगत अपना ही कुटुम्ब दिखाई पड़ने लगता है।

अब तक हम धर्म के दो सोपानों, उपासना एवं साधना की चर्चा कर चुके हैं, अब तीसरे सोपान आराधना पर चर्चा करनी है। आराधना से तात्पर्य है-धर्म के मूल तत्त्वों को अपने जीवन में उतार लेना। धर्म के मूल स्वरूप को ऐसा धार्मिक व्यक्ति ही उजागर करता है जिसने धर्म के मूल तत्त्वों को अपने जीवन में पचा लिया हो। धर्म के ऐसे मूल तत्व प्रमुखतः चार हैं:- शुचिता, अहिंसा, अनासक्ति एवम् अभय।

शुचिता से तात्पर्य है - बाह्य एवम् आभ्यन्तर दोनों प्रकार की शुचिताएं। शुचिता में पर्यावरण व शरीर की शुद्धि भी सम्मिलित है। पर मुख्य जोर आंतरिक शुचिता पर है। शुचिता में विचारों की शुद्धि, वाणी की शुद्धि एवं कर्म की शुद्धि सम्मिलित है। विचार ही कर्म के जन्मदाता हैं। यदि विचारों में पवित्रता आएगी तो स्वभावतः कर्म में भी पवित्रता आएगी। विचार का सीधा संबंध मन से है। ‘मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः।’

मन ही स्मृति करता है, मन ही चिंतन करता है तथा मन ही दुःख-सुख की अनुभूति करता है। मन वर्तमान में बहुत कम ठहरता है। अतः मन को वर्तमान में ठहराने के लिए आध्यात्मिक साधनाओं का अवलंब लिया जाता है। सभी साधनाओं का उद्देश्य होता है - मन को वर्तमान में ठहराना। जब मन वर्तमान में ठहरने लगता है तो मन ही मन का निरीक्षक हो जाता है। मन ही मन को ‘आब्जर्व’ करने लगता है। यही वह स्थिति है जहां मन को अपनी पवित्रता एवम् अपवित्रता का भान होता है। ठहरा हुआ मन अपवित्र विचारों का सम्यक् दर्शन करने लगता है। यह सम्यक् दर्शन ही विचारों में शुचिता लाता है। करूणा, प्रेम, त्याग, सेवा जैसे पवित्र विचार मन की ऐसी स्थिति में ही पैदा होते हैं, विकसित होते हैं तथा व्यक्तित्व में साकार रूप धारण करते हैं। इस संबंध में भगवान महावीर का वचन बहुत ही गंभीर एवं व्यावहारिक है। वे कहते हैं ‘खणं जणिए पंडिए।’ जो वर्तमान में जीता है, वर्तमान को देखता है, वर्तमान में ठहरता है, विचारों की शुचिता को बनाए रखने में समर्थ है। पवित्र विचारों में रमने वाले साधक का पवित्र विचारों के ब्रहमाण्डीय कोष से सीधा संबंध जुड़ जाता है। वह अपने पवित्र विचारों में निरन्तर श्री वृद्धि करता रहता है।

कर्म की शुचिता का सीधा संबंध विचारों की शुचिता से है। यदि विचार पवित्र हैं तो निश्चय ही कर्म भी पवित्र होंगे। करूणाशील विचारों का व्यक्ति हिंसक एवं निर्दयी कैसे हो सकता है ? भौतिक जीवन की क्षण भंगुरता को जानने वाला व्यक्ति संग्रही कैसे हो सकता है ? कर्म करने में तो व्यक्ति स्वतंत्र है, पर प्रतिक्रिया में स्वतंत्र नहीं है। फल भोगने में स्वतंत्र नहीं है।

जिस व्यक्ति के विचार पवित्र है, उसका कर्म भी पवित्र होगा तथा ऐसे कर्म का फल या प्रतिक्रिया भी दिव्य होगी।

वाणी की पवित्रता का संबंध सत्य भाषण से है। वाणी की सत्यता बड़ी तपस्या है। सत्य के साथ शिवं एवं सुन्दरम् भी जरूरी है।

सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात न ब्रूयात सत्यमप्रियम्।’

पुण्य का फल पुण्य होता है, पाप का फल पाप होता है। पर कभी-कभी पुण्य का फल पाप हो जाता है तथा पाप का फल पाप होता है। पर कभी-कभी पुण्य का फल पाप हो जाता है तथा पाप का फल पुण्य हो जाता है। यह स्थिति तभी बनती है जब सत्यं के साथ शिवम् एवं सुन्दरम् का मेंल नहीं रहता।

धर्म का दूसरा तत्त्व अहिंसा अर्थात् करूणा है। करूणा का अर्थ है- समस्त के प्रति प्रेमें करूणा का अर्थ है प्रेम रूके नहीं, बंधे नहीं, बहता ही चला जाए। जहां भी कुछ रूकता है, वहीं गंदगी शुरू हो जाती है। रूका हुआ प्रेम गंदगी हो जाता है जिसे हम मोह कहते हैं। सूर्य आपके आंगन में आता है पर इस शर्ते पर कि वह सबके आंगन में आता है। प्रेम उतना ही गहरा होगा जितना विस्तीर्ण होगा। करूगा का अर्थ है-विस्तृत प्रेमें करूणा मांगती नहीं, देती है। जीवन का सूत्र है- सदा बांटना, देना, लुटाना। मृत्यु का सूत्र है - सिकुड जाना। संग्रह कर लेना, बांध लेना। करूणा का अर्थ है- अपने को दे देना। पूरे जगत में अपने अस्तित्व को बिखेर देना।

करूणा के विकास की तीन अवस्थाएं हैं। - एक जगत है, जिसे हम जड़ कहते हैं, क्योंकि उसमें चेतना इनती प्रसुप्त है कि जब तक हम पूर्ण गहराई में नहीं उतरेंगे, तब तक उसकी चेतना का अनुभव हमें नहीं होगा। जो झाडू को पैरों तले कुचल कर चल सकता है, वह प्रेमिल कभी नहीं हो सकता। फिर उसके बाद पशु पक्षी जलचर एवं पौधों का जगत है जो जीवन्त तो हैं पर विवेक शून्य हैं। उस जगत के प्रति करूणा पूर्ण होना जरूरी है। फिर मनुष्यों का जगत है, जो जड़ को प्रेम दे सकेगा। जो पेड़ पौधों एवं पशु-पक्षियों को प्रेम दे सकेगा, वह मनुष्य को भी प्रेम दे सकेगा। एक निर्जन मार्ग में फूल खिला है। रास्ते से कोई निकले या न निकले फूल अपनी सुगंध बिखेरता रहेगा। करूणा एक भाव दशा है। करूणा प्रेम की परिपूर्णता है। जब प्रेम दो व्यक्तियों के बीच का संबंध न रहकर, एक और अनेक के बीच का संबंध बन जाता है तो वह करूणा बन जाता है, प्रेम पहला चरण है। करूणा अंतिम मेंजिल है।

धर्म का तीसरा तत्त्व है-अनासक्ति। कर्म से तात्पर्य ऐसी क्रिया से है जिसमें कर्त्ता का भाव हो। इगो सेन्ट्रिक क्रिया का नाम कर्म है। जब तक शरीर में अहंता ममता है तब तक सभी क्रियाएं कर्म हैं। अकर्ता में प्रतिष्ठित होना योग है। सब कुछ करते हुए भी यह महसूस करना कि मेंने कुछ नहीं किया है। कर्मयोग में कर्म तो रहता है पर कर्त्ता नहीं रहता। कर्मयोग के मूल में अनासक्ति का भाव है। जीवन में इस अनासक्ति भाव को विकसित करने के लिए कुछ सूत्र जरूरी हैं यथा-

(1) त्वं नियतं कर्म कुरु,
(2) कर्म को यज्ञ मानकर किया जाए,
(3) कर्मण्येवाधिकारस्ते माफलेषु कदाचन,
(4) निमर्मः
(5) सर्वाणि कर्माणि मयि सन्यस्य।
(क) अपने लिए कर्म (ख) दूसरों के लिए कर्म (ग) प्रभु के लिए कर्म।

धर्म का चौथा तत्त्व है - अभय। रमण महर्षि से पूछा गया - ज्ञानी कौन है? उतर था - जो अभय को प्राप्त हो गया हो। जगत में चारों ओर भय व्याप्त है। भर्तृहरि के शब्दों में - ‘भोगे रोग भयं कुले च्युति भयम्’ किसी को भूख सता रही है तो किसी को संपन्नता परेशान कर रही है। कोई शत्रु से भयभीत है तो कोई मित्र की अविश्वसनीयता से व्याकुल है। कोई संयोग में वियोग की कल्पना से पीड़ित है तो वियोग में पार्थक्य की वेदना से उद्वेलित है। कहीं कोई चैन नहीं सर्वत्र भय ही भय व्याप्त है। जब तक भय है धर्म और अध्यात्म की चर्चा व्यर्थ है। भय हमारे शरीर दर्शन से जुड़ा हुआ है। हम शरीर को ही सब कुछ मान बैठे हैं, अतः भयभीत हैं। मूर्च्छा के कारण हम भयभीत हैं। सारी मूर्च्छा शरीर से पैदा होती है। इस शरीर की आसक्ति के कारण ही हम मृत्यु से इतने डरते हैं।

जैसे पानी के जमने के नियम हैं, वैसे ही मनुष्य के मन के जमने के नियम हैं। नियम है कि ठण्डे होते चले जाएं। जो जितना ठण्डा है वह उतना ही सख्य है, उतना ही मूर्च्छित है। जो गर्म है वह तरल है, उसमें बहाव है अतः वह जागृत है। अहंकार जमी हुई बर्फ है, इस बर्फ को मृत्यु दर्शन ही पिघला सकता है। अहंकार ही हमारी मूर्च्छा का मुख्य कारण है। मृत्यु के भय से अहंकार घबराता है। इस मृत्यु के कारण हम भयभीत हैं। मृत्यु की स्वीकृति में ही अभय है। फैलाव के साथ ही सिकुड़न को स्वीकार कर लिया तो भय का कारण नहीं रह जाता। जन्में हैं उसी दिन जाना कि विदा हो रहे हैं। में पहले था तभी तो जन्म सका। नहीं तो में जन्मता कैसे, मृत्यु है इसीलिए ही जन्म है। जन्म भी जीवन के बीच घटी एक घटना है। जीवन तो शाश्वत है। शरीर ही मरता एवं जन्मता है। जो इस व्यवस्था को जान पाता है वह मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। मेंसूर को फांसी दी गई- ‘देखते हो इन मेंरे प्यारों को, ये सोच रहे हैं - मुझे मारकर तेरे प्यारे हो जाएंगे लेकिन इनकी मार के परे है, वह अनहलक है।

धार्मिक व्यक्ति वह है जो अभय को प्राप्त हो गया हो, सच्चा धर्म वह है जो व्यक्ति को इसी जन्म में इसी क्षण दुःखों से मुक्ति दिला सके। धार्मिक व्यक्ति वह है जो शुचिता, करूणा, अनासक्ति एवं अभय का साकार विग्रह हो। मेंरी अपेक्षा है आप सुधिगण भी इसी लक्ष्य को लेकर जीवन में आगे बढ़े।

 

बाबाजी महाराज की निर्वाण तिथि की पूर्व संध्या पर प्रवचन 2 अगस्त 1992

 

 

फोटोगैलेरी

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