शुद्धं शांतम् स्वप्रकाशं, वंदे विश्वेश्वरं विभुम्।।
एकं नित्यं विमलमचलं, सर्वधी साक्षीभूतं।
भावातीतं त्रिगुणरहितं, सद्गुरु तं नमामि।।
अखण्ड मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन, तस्मै श्री गुरुवे नमः।।
गुरूब्रह्मा गुरूविषर््णुः गुरूर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नमः।।
शिवरात्रि के इस महापर्व पर भौतिक रुप से श्रीबाबाजी महाराज का न होना, विचलित करने वाला प्रसंग है। अब तो उनकी समाधि ही उस भौतिक अनुपस्थिति को भुलाने का एक मात्र अवलम्ब है या अवलम्ब है। उनके अन्तिम शब्दों का - ‘‘मैं आज एक गुणा हंू, शरीर छोड़ने के बाद सौ गुणा हो जाऊंगा। जो मुझ जिन्दा समझेंगे उनके लिए मैं सदैव जिन्दा हूं।‘‘ बाबाजी महाराज का शरीर शान्त होने के बाद उनके ये शब्द दिनोंदिन प्रमाणिक सिद्ध होते चले जा रहे हैं। आश्रम के कण-कण में उनकी सूक्ष्म उपस्थिति दिनोंदिन गहराती चली जा रही है। महाराज के महाप्रयाण के बाद मेरे समक्ष कई कठिन् दौर आए हैं, परन्तु वे ऐसे टले हैं, मानो कुछ हुआ ही न हो वे आज सर्वसमर्थ हैं, वे आज सर्वज्ञाता एवं सर्व व्यापाक हैं। लाखों दिलों में वे आज विराजमान हैं। सूरदासजी के शब्दों में कहूं तो-
हृदय छाड़ि कर जा सको, तो सबल समझूं तोय।।
‘मुझे नाथजी महाराज के चराणों में जाने की उतावली हो रही है, मुझे कोई रोकने की चेष्टा न करें, मैं रुकूंगा नहीं‘ कहने वाले बाबाजी महाराज हमारे दिलों से न जा सके और न कभी जा सकेंगे।
बाबाजी महाराज को श्रद्धांजलि देने का अब एक ही सर्वश्रेष्ठ तरीका है और वह है- उनके उपदेशों और उनकी शिक्षाओं की अनुपालना। आज इस अवसर पर मैं उन्हीं के विचारों को संक्षेप में आपको याद दिलाऊंगा। भाषा शैली एवं वाणी मेरी अपनी है, विचार बाबाजी महाराज के।
कौन है यह बालक ? क्यों रो रहा है ? किसको पुकार रहा है ? इसका दुःखत्राता कौन है ?
गिगन शिषर में बालक बोले, ताका नाम धरोगे कैसा।।
पहेली कथी गई है, पहेली समझाई गई है। एक बालक रो रहा है दुःखी होकर। एक बालक किलकिलारियां भर रहा है आनंद में, परमानन्द में झूमकर। इस पहेली का उत्तर दिया है - मुण्डकोपनिषद के ऋषि ने।
एक पेड पर दो सुन्दर चिड़ियां बैठी हैं। एक ऊपर की डाल पर, एक नीचे की डाल पर। ऊपर वाली बस बैठी है - निरपेक्ष भाव से। साक्षी भाव से देख रही है। कैसी है वह चिड़िया-शुद्ध, शान्त, स्वप्रकाश, त्रिगुण रहित, भावातीत आदि। नीचे वाली चिड़िया पेड के खारे मीठे फल खा रही है। स्वाद एवं गुणानुसार रोती है, दुःखी होती है, बैचैन है, अशान्त है। वह आसक्त है उस पेड में, वह अहम्वश अपने को कर्ता माने बैठी है। ऊपर वाली चिड़ियां ब्रह्म है, गगन शिखर का बोलने वाला बालक है। नीचे वाली चिड़ियां रात भर पुकारने वाला बालक है। यह बालक आत्मा है, जीवात्मा है।
बेचैन क्यों है ? बेचैन इसलिए है कि उसे पूर्ण होना है, वह अपूर्ण है। आदमी को आदमी होना है वह है नहीं। गाय, गाय है, घोड़ा घोड़ा है उसे कुछ होना नहीं है। आदमी पूरा पैदा नहीं होता। सब जानवर पूरे पैदा होते है। वह जो भीतर है, वह चौबीस घंटे प्रकट होने की मांग करता रहता है। वह जो नहीं है, जिसका अस्तित्व नहीं है, उसको पाने की निरन्तर चेष्टा है। पूर्ण होने की आतुरता है। यही परेशानी है आदमी के साथ। हम सोचते हैं गरीब आदमी परेशान है क्योंकि गरीबी है। पर अमीर क्यों परेशान है भला ? सच तो यह है कि गरीब इतना परेशान नहीं है जितना अमीर है। मजदूर इतना पेरशान नहीं है जितना मालिक। सिपाही उतना परेशान नहीं है जितना एस. पी. या. कलेक्टर। सामान्य अध्यापक इतना परेशान नहीं है जितना हेडमास्टर या प्रिंसिपल। कारण है इसका। नीचे वाला, छोटे वाला अपनी लघुता को न्यायोचित मान लेता है। पर ऊपर वाले के पास ऐसा न्यायोचित मानने का कारण नहीं है। यही कारण है कि आज दुनिया में अमेरिका सबसे ज्यादा परेशान, चिंतित एवं अशान्त है।
बाबाजी महाराज कहा करते थे - एक आदमी नरक में जाने के लिए जितना परिश्रम करता है, उससे बहुत कम मेहनत में स्वर्ग पा सकता है। आज आदमी बेताब है, तुरन्त निर्णय करने के लिए, कुदरत बेताब है, तुरन्त फैसला सुनाने के लिए। कुदरत के फैसला सुनाने से पहले यदि वह जाग उठे तो कुदरत का फैसला टल सकता है।‘ बाबाजी महाराज ने इस स्थिति को, आदमी की इस परेशानी एवं बेचैनी को बहुत गहराई से महसूस किया था। आदमी की इस बेचैनी एवं परेशानी के निराकरण के लिए उन्होंने हमे पंच सकार सूत्री कार्यक्रम दिया हैः सदाचार २. साधना ३. स्नेह ४. सेवा और ५ स्वास्थ्य।
महाराज का यह कथन था कि सबसे पहले मानव अपना चरित्र उज्जवल बनाए। वे कहते थे जितेन्द्रिय मनुष्य के लिए संसार में कोई भी कार्य असंभव नहीं है। वे नारी जाति को ‘मातृवत परदारेषु‘ की भावना पर जोर देते थे। सदाचार में उनका संयम पर जोर होता था।
अभक्ष्य, नशीली वस्तुओं से परहेज रखना, उनकी दृष्टि में सदाचरण का ही अंग था वे कहते थे- नशा करने से मस्तिष्क बेकाबू हो जाता है। अभक्ष्य पदार्थों के सेवन से यह भगवान का मन्दिर (शरीर) भूत प्रेतों का घर हो जाता है, इसलिए तुम न्याय-नीति से काम करते हुए अपनी खरी कमाई का सदुपयोग करो। तुम जीओ औरों को भी जीने दो। बाइबिल के इस कथन को (दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करो जैसी अपेक्षा आप दूसरों से अपने प्रति चाहते हो।) "Do unto others as you wish to be done with you" अपने शब्दों में दोहराते रहते थे। मनसा, वाचा, कर्मणा सच्चे बनो। कथनी एवं करनी के अन्तर को मिटाओ।
‘कहणी सुहेली, रहणि दुहेली, कहणि, रहणि बिन थोथी।’ वे कहते थे-
बढ़ि बढ़ि बहु घट गया, पार ब्रह्म नहीं चीन्ह।।’
इन्द्रिय संयम व वाणी संयम को इन शब्दों में प्रकट करते थे- इन्द्री का लड़ बड़ा, जीव्हा का फूहड़ा, गोरख कहे प्रत्यक्ष ही चूहड़ा।’ बोलने में, चलने में, जीवन व्यवहार के संतुलन पर पूरा जोर दिया करते थे।
सदाचार विहीन व्यक्ति को वे ‘पशु पुच्छ विषाण हीन’ कहा करते थे। सदाचार के लिए सत्संग को जरूरी मानते थे। सभी यात्राओं में वे ’अतीत यात्रा’ को सर्वश्रेष्ठ मानते थे। वे कहते थेः-
अतीत यात्रा सुफल यात्रा, बोले अमृत वाणी।।
जरा सोचो, सदाचारी साहसी नही ंतो फिर क्या दुराचारी साहसी होगा? सदाचारी की आत्मा कमजोर क्यों होगी? कायरता सदाचारी के लिये कलंक है। भगवान कृष्ण के अर्जुन को कहे गए शब्दों को सुनो - ’क्लैव्यं मा स्म गमः पार्थ’ अर्थात हे पार्थ, कायर मत बनो। कायरता को पाप मानते थे। वे कहते थे समाज का पूरा बोझ सदाचारी पर होता है। समाज को नयी दिशा सदाचारी ही दे सकता है।
’स्वधर्म निधनं श्रेयः पर धर्मो भयावह।’ अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मर जाना श्रेयकर है। एक स्वचरित बहुत पुराना सवैया जो उन्होंने हमें संदेश के रूप में दिया है, सुनिए - उन्हीं की शब्दावली में-
यह जग है भभकती भट्टी, तू शील संतोष को धार ले।।
तन को ताप, तज अभिमान, मन बसकर, तू काम क्रोध को मार ले।
दुनियां की चिन्ता छोड़ श्रद्धानाथ, तू तेरो कारज सार ले।’
वे हर भक्त को सेवक को विषयों से उपरत होने के लिए प्रेरित करते रहते थे। उन्हें भतृहरि का ’वैराग्य शतक’ बहुत अच्छा लगता था। यह श्लोक तो बाबाजी महाराज स्वयं संन्यस्त होने के पूर्व सुनाया करते थे।
उनका दूसरा बन्दु है - साधना। हमारे घर के अन्दर ही फूल खिला हुआ है, खिड़की खोलो तो सही। हमारे अन्दर ही सूरज चमक रहा है, दरवाजा खोलो तो सही। वह परमात्मा हमसे दूर कहां है? वह तो पुकार रहा है - यह रहा मैं यहां, यह रहा मै यहां। जैसे बर्फ के टुकड़े के नौ हिस्से पानी में रहते हैं तथा एक हिस्सा बाहर दिखाई पड़ता है। ऐसे ही हमारे व्यक्तित्व के नौ हिस्से अंदर हैं एक हिस्सा ही बाहर है। अतः उन नीचे के हिस्सों को देखो न तुम कितने महान् हो। विवेकानंद के शब्दों में - खुद पर विश्वास रखो, आपके भीतर सभी शक्तियां समाहित हैं। अतः चेतनाशील बनो और उन्हें बाहर प्रकट करो।
वे कहते थे, तुम सब हनुमानजी हो। तुम्हें कोई जामवन्त चाहिए तुम्हारी शक्ति एवं महानता का एहसास कराने के लिए। तुम्हें मार्गदर्शन चाहिए, तुम्हें नाव का खिवैया चाहिए। वह जो तुम देख रहे हो, वह सब प्रपंच है जो तुम अनुभव कर रहे हों, भान कर रहे हो, तुम्हारा अस्तित्व है। तुम्हें करना-धरना कुछ नहीं है। तुम तो मीरा हो जाओ, तुम प्रहलाद बन जाओ, तुम द्रोपदी की करूणा बन जाओ। वे कहते थे। मीरा की तन्मयता, प्रहलाद का निश्चय, सूर का समर्पण, द्रोपदी की करूणा जब एकत्र हो जाते हैं, प्रभु दौड़कर तुम्हारे पास आऐंगे। उन्हें ही आना होगा। बच्चा खिलौनों से खेलता रहता है। ज्यों ही खिलौने फेंककर मुंह फाड़कर रोने लगता है। तब मां सब काम छोड़कर बच्चे को गोदी में उठा लेती है, हृदय से लगा लेती है, इसलिए रोओ तो सही, वह प्रभु तुम्हारे हृदय की अन्तरतम गुहा से बोल उठेगा, यह रहा मैं यहां।
वे किसी कठिन साधना पद्धति पर जोर नहीं देते थे। यहां तक कि उनकी ध्यान शैली भी बड़ी ही सरल थी। आसन तक में वे स्वतंत्रता देते थे। वे कहते थे जो अनुकूल पड़े तुम्हें, उसी आसन में बैठ जाओ। अपने इष्ट का नाम-जप व स्वांस की स्मृति। बस एक छोटी सी सरल सी प्रक्रिया। वे निराकार परब्रह्म के विश्वासी जब बोलते थे तो ऐसा लगता था कि कोई वैष्णव बोल रहा है। वे कहते थे विषयी का जैसा आकर्षण विषय की ओर, सती का पति की ओर तथा माता का संतान की ओर: इन तीनों को अगर एक साथ मिलाकर कोई ईश्वर को पुकारे तो प्रभु के उसी समय दर्शन हो जाते हैं।
अहंकार को त्यागो। यह अहंकार बाधा है - प्रभु-दर्शन में। प्रभु कर्ता हैं, तुम अकर्ता हो, ऐसा भाव बनाओ। संध्या के बाद जब जुगनू उड़ता है, तब वह सोचता है कि इस संसार को मैं ही प्रकाश दे रहा हूँ। परन्तु ज्योंही तारे उगते हैं उसका अहंकार चला जाता है। तब तारे सोचने लगते हैं, हमीं संसार को प्रकाश दे रहे हैं। कुछ देर बाद चंद्रोदय होता है तब तारे लज्जा से म्लान हो जाते हैं। अब चन्द्रमा सोचने लगता है, मेरे ही आलोक से संसार हंस रहा है, संसार को प्रकाश मैं देता हूँ। देखते ही देखते सूर्योदय हो जाता है, चन्द्रमा मलिन होकर छुप जाता है। यह गति है, इस अहंकार की। लगता है भूल रहा है आदमी उस भंवरे की कहानी को-
भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पंकज-श्री।
इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे
हा हन्त! हन्त!! नलिनं गज उज्जहारः।।
महाराजश्री जीवन की क्षणभंगुरता एवं मृत्यु की याद दिलाते रहते थे। वे कहते थे-
वित्ते माने दैन्यं भयं, बले रिपु भयं,
रूपे जराया भयं, शास्त्रे वादि भयं,
गुणे खल भयं, काये कृतान्ताद भयं,
सर्वे वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां,
वैराग्य मेवामयम्।।
प्रभु को याद करने के लिए मौत की याद बहुत जरूरी है।
कल प्रातः समय खिली न खिली।
मलयाचल की शीतल मंद समीर,
कल प्रातः समय चली न चली।
कलिकाल कुठार लिए फिरता है,
तन नम्र है चोट झिली न झिली।
रहते हरिनाम अरि रसना,
फिर अन्त समय में हिली न हिली।
वे सगुण-निराकार के चक्कर में कम ही जाते थे। कोई तर्क-वितर्क करता था, तो भले ही निराकार, निर्गुण की पुष्टि करते थे। वह भी केवल उसके अज्ञान को छकाने के लिए, उसके अहं को मिटाने के लिए। वरना तो वे कबीर के हामी थे-
काको निन्दों काको वन्दो, दोनों पल्ले भारी।।’
शिवा विहीन को वे शव मानते थे।
’शिवो भूत्वा शिवं यजेत्’ शिव बनकर शिव की पूजा करो।
गोरख कहे सुणों रे पूता, मरे न बूढ़ा होई।।
उनकी ध्यान शैली, आनंद शैली थी। वे ध्यान को कोई उबाऊ और नीरस प्रक्रिया नहीं मानते थे। वे प्रायः अपनी प्रक्रिया की पुष्टि गोरख वाणी की इन पंक्तियों द्वारा करते रहते थे-
अहनिसि कथिबा ब्रह्म गियानं।
हंसे खेले न करे मन भंग।
ते निहचल सदा नाथ के संग।।
हंसिबा खेलिबा गायगा गीत।
दिढ करी राखि अपना चित्त।
हंसिबा खेलिबा रहिबा रंग।
काम क्रोध न करिबा संग।।
बाबाजी महाराज का जीवन इन पंक्तियों का मूर्त रूप था। वे हंसते-खेलते ही ध्यान में लीन रहते थे। एक बार एक व्यक्ति ने गुरू से पुछा - ईश्वर को कैसे प्राप्त करूं ? गुरू महाराज शिष्य को तालाब किनारे ले गए। दोनों जल में उतर गए। अचानक गुरूजी ने शिष्य का सिर पकड़कर जल में डुबो दिया और तब तक डुबोए रखा जब तक शिष्य को स्वांस के लिए छटपटाहट न होने लगी। और फिर उसका सिर छोड़ दिया। गुरू ने पूछा, कैसा लगा? शिष्य ने कहा, ऐसा लग रहा था कि अभी प्राण जाते ही हैं। प्राण बैचेन हो रहे थे। गुरूजी ने कहा, ’ईश्वर के लिए जब प्राण इसी प्रकार बैचेन होंगे, तब जानो प्रभु मिलन निश्चित है।
बाबाजी महाराज निर्द्वन्द्व व निर्भय रहने के लिए प्रेरित किया करते थे। वे कहते थे, वही हो रहा है जो प्रभु को स्वीकार है। महाभारत में दुर्योधन से पूछा गया, तुम गलत राह पर हो, अधर्म तुम्हारा साथी है, तुम्हारी पराजय सुनिश्चित है, फिर भी तुम अधर्म को रोकते क्यों नहीं? दुर्योधन कहने लगा, ’मुझे यह भी मालूम है कि मैं अधर्म पर हूँ। मुझे यह भी पता है कि मेरी हार सुनिश्चित है। पर मैं नियति के हाथों विवश हूँ। वह कहने लगा ’त्वया हृषिकेश हृदि स्थितेन यथा नियोजितअस्मि तथा करोमि।’ हे हृषिकेश! तुम हृदय में बैठकर जैसा करा रहे हो, वैसा ही मैं करता हूँ।’
प्रभु पर सब छोड़ दो। अपना कर्तव्य किए जाओ। दृढ़ता और प्रेम से प्रभु को याद करते रहो ’कब हूं दीनानाथ के भनक पड़ेगी कान।’ महाराजश्री सुबह-शाम की प्रार्थना को साधना का अभिन्न अंग मानते थे। किसी भी स्थिति में सुबह शाम की प्रार्थना को मत छोड़ो। उनके स्वयं के शब्दों में
इष्टदेव की कृपा से, पाओगे निज धाम।।
दस्तक दे रहा है दरवाजे पर प्रेमी। प्रेमिका पूछती है - कौन है? ’मैं हूँ,’ उत्तर मिला। ’जाओ, यहाँ मैं के लिए जगह नहीं है’ अन्दर से आवाज आई। लम्बे अन्तराल बाद फिर दस्तक होती है। अन्दर से आवाज पूछती है - ’कौन है? उत्तर मिला तुम ही हो। लौट जाओ, वापिस, अभी तुम जिन्दा है। यदि तुम जिन्दा है तो मैं भी जिन्दा हूँ। फिर नहीं लौटा वह प्रेमी। मैं और तू दोनों गिर गए। रह गया केवल ’वह’ तत्त्वमसि। पिता ने अपने दोनों पुत्रों को अध्ययनोपरान्त पूछा ब्रह्म का क्या स्वरूप है?’ बड़े बेटे ने कहा - ’वह त्रिगुणरहित है, अचिन्त्य है, निर्गुण निराकार है, भावातीत है। छोटा बेटा मौन रहा, आंखें बन्द कर ली। कोई उत्तर नहीं दे पाया। भौरे की गुंजार समाप्त हो गई थी। उत्तर देता कौन? रस का अघाया इशारों से आनन्द प्रकट करता है, भाषा साथ नहीं देती। ऐसे ही रस अघाए थे - बाबाजी महाराज।
तीसरा सूत्र था - स्नेह, प्रेम! अपने से प्रेम करो, अपने इष्ट देव से प्रेम करो, अपने मित्रों, भाईयों से प्रेम करो। मानव को प्रेम करो। जीव मात्र से प्रेम करो। स्वयं को प्रेममय बनाओ, प्रेम का विस्तार करो। जो तुमसे प्रेम करते हैं, उनसे चौगुना प्रेम करो। जो तुम से प्रेम नहीं करते हैं, उनसे घृणा मत करो। उनसे ईर्ष्या-द्वेष मत करो। प्रेम की सुगंध से घृणा के कीटाणु मर जाते हैं। शुभ के विचार से अशुभ का नाश हो जाता है। प्रेम की भाषा हिंसक पशु भी समझता है। दुनियां की भाषाओं में भिन्नता है, पर प्रेम की भाषा सार्वदेशिक है। प्रेम को वे आनंद का पर्याय ही मानते थे। उनकी घोषणा थी-
प्रेम बिना नहीं ज्ञान है, मिटे न भव के भोग।
पिछली शिवरात्रि पर बाबाजी महाराज ने फरमाया था - मैं इस तख्त पर रहूं या न रहूं, तुम इसी तरह शान्ति से, प्रेम से बैठे रहना। अपने संगठन को प्रेम से सिंचित करते रहना। प्रेम को वे ईश्वर का रूप ही मानते थे। भगवान ने अपने रूप की प्रतीति प्रेम द्वारा ही दर्शायी है। प्रभु कैसे हैं? प्रेम जैसे। इस शुभ पर्व पर आप सब जो सामने बैठे हैं, इस प्रेम की प्रसादी को लेकर जाएं। जाति, वर्ग, सम्प्रदाय, छोटा, बड़ा, अमीर, गरीब, राजनीति की भावना को त्यागकर सब एक दूसरे को भाई समझो। बाबाजी महाराज का यही बड़ा संदेश था। उनका संदेश वेद का संदेश था। ’सर्व दिशा मम मित्रं भवन्तु।’ या खुदा नजर दे तो सब सूरत खुदा की है।
महाराज का चौथा सूत्र था - सेवा। वे तुकबंदी में बोलेते थे-
करोगे टहल, पाओगे महल।।
करोगे बंदगी, पाओंगे चंदगी।
कोई भी सेवाभावी व्यक्ति जब उनके पास आता था, वे उन्हें सब तरह से उत्साहित करते थे। वे प्रेरणा देते थे, काम करने के गुर समझाते थे। उनका विश्वास था कि जो दूसरों की सेवा नहीं कर सकता, वह कभी भी साधक नहीं हो सकता। जिनके पास पैसा है, पैसे से सेवा करें, जिनका शरीर स्वस्थ है, वे शरीर से सेवा करें। वे यह दोहा बोलते थे-
छोनों हाथ उलीचिए, यही सयानों काम।।
निष्काम सेवा पर जोर देते थे। सेवा करो पर एहसान लादकर नहीं। सेवा को भगवान की पूजा मानकर करो। यह आश्रम उनके सेवा व्रत का एक मूर्त रूप है।
पांचवां सूत्र था - स्वाध्याय। स्वाध्याय का सामान्य अर्थ है, अध्ययन द्वारा ज्ञान की प्राप्ति। बाबाजी महाराज अपनी शिक्षा-दीक्षा के बारे में कहते थे - मैंने बिना जिल्द व गत्ते की विश्व यूनिवर्सिटी की पुस्तक पढ़ी है।’ वे कहते थे ’सा विद्या या विमुक्तये’ विद्या वही सार्थक है जो मुक्त करती हो। उन्होंने इस संसार को अपने अनुभव से, अपने आत्मानुभव से पढ़ा था। वे गोरख वाणी की यह सूक्ति सुनाया करते थे-
ते पद जाना बिरला जोगी, और दूजी सब धंधै लाई।।
अनुभवहीन व्यक्ति को वे पठित मूर्ख कहते थे। उनका कहना था ’जीवन को खुली आंखों से देखो, अनुभव करो। अनुभव को अभिव्यक्ति दो।’
वे एक पंडित की कहानी सुनाया करते थे - एक पंडितजी नाव में बैठे यात्रा कर रहे थे। उन्हें कुछ बोलने की खुजाल चली। उन्होंने नाविक से पूछा - ’तुमने वेद पढ़े हैं? नाविक ने कहा, ’महाराज मैनें तो नाम ही आज सुना है। पंडितजी ने कहा, तो तेरा जीवन ही बर्बाद हो गया। फिर पंडितजी ने पूछा, तैने उपनिषद् पढ़े हैं, सुने हैं? उपनिषद् कहते हैं एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति’। नाविक ने कहा - नहीं महाराज ऐसी बला का तो नाम ही आज सुन रहा हूँ। पंडितजी ने तीसरा प्रश्न किया - ’तुमने न्याय मीमांसा पढ़ी है?’ नाविक ने कहा, ’यह नाम भी मेरे लिए एक पहेली है।’ पंडितजी ने कहा, तब तो तेरा जीवन बर्बाद चला गया। मैं षट्शास्त्र का ज्ञाता हूँ। कई भाषाओं का मर्मज्ञ हूँ।’ इतने में ही तूफान चल पड़ा। नाव इधर-उधर डोलने लगी। नाव में पानी भरने लगा। नाविक ने पंडित जी से पूछा - पंडितजी तैरना जानते हैं? पंडितजी को पसीना हो आया। उन्होंने कहा ’नहीं बिल्कुल नहीं आता।’ नाविक ने कहा, तो पंडितजी, तैयारी कर लो, आपका तो जीवन ही खत्म हो गया है।’ नाविक ने छलांग लगा दी।
बाबाजी महाराज पुस्तकीय ज्ञान को आध्यात्मिक मनोरंजन कहा करते थे। किताबी ज्ञान से आत्मज्ञान संभव नहीं। वे कहते थे ’किताबी ज्ञान चूकै जठै, आत्मज्ञान चालू हुवै बठै।’ पश्चिमी दार्शनिक हेमिल्टन की भाषा में ’। A learned ignorance is the end of philosophy and beginning of religion. कहें तो जहां किताबी ज्ञान चूक जाता है यानि समाप्त हो जाता है, वहीं से आत्मज्ञान प्रारम्भ हो जाता है। अपने सहारे ही अपना उद्धार करना पड़ेगा। पुस्तक प्रेरणा दे सकती है, पुस्तकें ज्ञान नहीं दे सकती। वे अनुभव पर बहुत जोर देते थे। वे कहते थे - बच्चों जैसे निर्मल निष्कपट एवं पवित्र बन जाओ, परमात्मा तुम्हारे पास हाजिर ही हैं।
जिन गाया विश्वास गहि, तिनके सदा हुजुर।
जब तक बुद्धि सक्रिय है, आत्म ज्ञान संभव नहीं। बाइबिल में भी कहा गया है कि भगवान का साम्राज्य बच्चों के लिए खुला है, बच्चे बन जाओ, भगवान प्रौढ़ों से प्यार नहीं करते। बाइबिल की पंक्तियाँ
The kingdom of heaven is revealed unto baless but is hidden from the wise and the prudent. को अपनी भाषा में कहा करते थे। एक ने दूध की बात सुनी है, एक ने दूध देखा है और एक दूध पीकर मोटा हुआ है। प्रथम दोनों अज्ञानी हैं। तीसरा ज्ञानी है। वे रामकृष्ण की शैली में कहते थे, ’शास्त्रों में चीनी के साथ रेत व कंकड़ पत्थर भी मिले हुए हैं। सयाना वह है जो बालू व कंकड़ों को छोड़कर चीनी का हिस्सा ग्रहण कर लेता है।’
सार-सार को गहि गहि, थोथा देय उड़ाय।’
आप सब जो सामने बैठे हैं, नाथजी महाराज को मानने वाले हैं यह आश्रम महाराज श्री की कर्म-स्थली है। आप भी इसके सेवक व शुभ चिंतक हैं। आज की तरह से ही अपने-अपने जीवनकाल में यही भाव बनाए रखें। आदमी का जीवन छोटा होता है, संस्था का जीवन लम्बा होता है। कामना करें, नाथजी महाराज से कि यह आश्रम बाबाजी महाराज की स्मृति को हजारों वर्षों तक यों ही अक्षुण्ण बनाए रखें। समय के थपेड़े सभी को लगते हैं - क्या संस्था और क्या व्यक्ति। एकजुट रहें, एक दूसरे को प्रेम करें, एक दूसरे पर विश्वास रखें और अपनी इस आध्यात्मिक जन्म भूमि के प्रति पूर्ण समर्पित रहें।
अन्त में आप सब लोगों के साथ इन शब्दों में श्री बाबाजी महाराज को श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ-
नमोअस्तु बाबाजी महाराजाय तस्मै श्रीगुरूदेव नमः।
त्वदीयं वस्तु गोविंद, तुभ्यमेय समर्पये।।
हे नाथ, यह मेरा सर्वस्व तुझे समर्पित है।