दुख के घटक हम 

 

हम सब दुःख से मुक्त होना चाहते हैं। हम ही नहीं संसार का प्रत्येक प्राणी दुःख से मुक्त होना चाहता है। सुख सब चाहते हैं, दुःख कोई नहीं चाहता। यह एक प्राकृतिक एवं सार्वभौमिक नियम है। प्रश्न होता है - जब हम सब दुःख से मुक्त होना चाहते हैं तो मुक्त क्यों नहीं हो पाते? यही जीवन का रहस्य है, यही जीवन का उद्देश्य है।
सुख दुःख की संवेदना क्यों?

 

सुख के घटक भी हमी हैं और दुःख के घटक भी हमीं। हम ही सुख-दुःख के बीज बोते है। हमीं उन्हें अंकुरित करते हैं, पुष्पित करते हैं। हमीं इन्हें बढ़ाकर विशाल वृक्ष के रूप में विकसित करते हैं। इन सारी क्रियाआंे में दूसरा कोई उत्तरदायी नहीं है। यह एक भ्रान्ति है कि हम दूसरों को सुख-दुःख देने वाला मानते हैं। दुनियां में कोई कुछ देने वाला नहीं है। यदि हम दुःख का संवेदन करें तो हमें दुःख होता है और हम दुःख का संवेदन न करें तो हमें दुःख नहीं होता। अनेक प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियों में भी यदि हम दुःख का संवेदन न करें तो हमें कोई दुःख नहीं हो सकता। हजार प्रकार की सुख सुविधाएं हो और हम सुख का संवेदन नहीं करें तो हमें कोई सुख नहीं हो सकता। सुख-दुख का संवेदन होना हमारे संवेदन केन्द्र पर निर्भर करता है। हमारा संवेदन केन्द्र कार्य करता है तो सुख-दुःख का संवेदन होता है और यदि वह यह कार्य न करें तो कोई संवेदन नहीं होता। हमारे मस्तिष्क के पीछे पीड़ा केन्द्र है। आज के वैज्ञानिक इसे निष्क्रिय करने के लिए प्रयोग कर रहे हैं। हमारे परिवार मेंें किसी निजी एवं प्यारे व्यक्ति की मौत होने के बाद यदि कोई मधुर संगीत या सुस्वादिष्ट भोजन उपलब्ध कराए तो क्या हम उसकी अनुभूति कर सकेंगे? जब पीड़ा केन्द्र केन्द्र पूर्ण रूप से निष्क्रिय हो जाता है तब पीड़ा का संवेदन समाप्त हो जाता है। हमारी भ्रांति यह है कि हम घटना एवं परिस्थिति को मुख्य मान लेते हैं। घटना, परिस्थिति एवं वातावरण ये सब अपना-अपना काम करते हैं, करेंगे एवं करते रहेंगे। परिस्थिति एवं वातावरण ये सब अपना-अपना काम करते हैं, करेंगे एवं करते रहेंगे। परिस्थितियां उतार-चढाव की होगी, ऊबड़-खाबड़ होगी। सारी दुनियां ऊबड़-खाबड़ है। समतल कहीं नहीं है। कहीं पहाड़ है, कहीं गड्ढे हैं। ये होगें। इन्हे मिटाया नहीं जा सकता। परिस्थितयां कभी एकसी नहीं होती। सर्दी के बाद गर्मी आती है, गर्मी के बाद वर्षा आती है। आप न सर्दी को रोक सकते हैं और न गर्मी को। पर आदमी बुद्धिमान प्राणी है। वह कपड़ा बुनना जानता है। मकान बनाना जानता है। आदमी ने प्रकृति के साथ समायोजन कर रखा है।

 

ऐसे ही हम परिस्थितियों को रोक नहीं सकते। परिस्थितियां आएगीं, अपना प्रभाव भी डालने की चेष्टा करेगीं। हम इनसे पैदा होने वाले प्रभावों को रोक नहीं सकते। पर एक बात हम कर सकते हैं - वह है हमारे संवेदन केन्द्रो पर नियंत्रण। दुःख से मुक्ति चाहते हैं तो संवेदन-केन्द्रो पर नियंत्रण करना ही होगा।

 

भाषा नियंत्रण के लिए अभ्यास करना होता है, प्रयोगों से गुजरना होता है। हम पहले देखें और संकल्प-शक्ति का प्रयोग करें। देखने का अर्थ है साक्षात्कार करना। यह केवल मानना नहीं है, दूसरे के सहारे चलना नहीं है। इसमें न शब्दों का सहारा होता है, न मान्यताओं का सहारा। यह है अपना अनुभव। आज के विज्ञान ने जितना विकास किया है, जितने अविष्कार किए हैं वे सब अनुभव के आधार पर किए हैं। एक है पढ़ा-पढाया ज्ञान और एक है-प्रयोगसिद्ध ज्ञान। प्रयोग सिद्ध ज्ञान का नाम है - अनुभव। अनुभव जगत की पूंजी है, स्वयं की पूंजी है। देखने का अर्थ है - आत्मा है। आत्मा ही साधन है, आत्मा ही साध्य है। आत्मा ही ध्याता है, आत्मा ही ध्येय है। बड़ी जटिल पहेली है। किसे देखें ? कैसे देखें ? किसके द्वारा देखें ? क्या अखंड आत्मा के टुकडे हो गए ? आत्मा के तो टुकडे़ नहीं है, पर हमने आत्मा के अनेक खण्ड अवश्य कर लिए हैं। यह इस प्रकार हैं - जब तक आत्मा हमारे शरीर में है, हमारा शरीर भी आत्मा है, जब तक आत्मा मस्तिष्क में है हमारा मन भी आत्मा है जब तक इन्द्रियों में चेतना है, इन्द्रियां भी आत्मा हैं। इस तरह आत्मा बहुखंडी प्रतीत होती है। इन खंडो में भी सबसे ज्यादा प्रबल खंड मन का है जो जहां देखने का प्रश्न आता है तो उसका अर्थ होता है - मन के द्वारा मन को देखना। आपने कभी देखा है मन की प्रक्रिया को?

 

अन्तः करण के चार तत्व हैं: मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त। हमारे लक्ष्य में तीन विघ्न है:-

 

हमारे जीवन में चार स्थितियां आती हैं - व्याधि, आधि, उपाधि एवं समाधि। हम समाधि में जाना चाहते हैं, परम आनन्द की अवस्था में जाना चाहते हैं। ध्यान का प्रयत्न समाधि का प्रयत्न है। यह समाधि की यात्रा है। इस यात्रा में तीन बडे़ विघ्न आते है - व्याधि, आधि एवं उपाधि ये तीन अवरोध हैं। इनको पार करके ही साधक लक्ष्य तक पहंुच सकता है।

 

व्याधि का अर्थ है शारीरिक बीमारी। विभिन्न तरह की शारीरिक बीमारियां हमें परेशान करती है। ज्यों ही आप किसी पूजा-पाठ, ध्यान-धारणा में बैठते हैं तो शारीरिक बीमारियां अपने उग्र रूप में प्रकट होने लगती हैं। जहां कहीं भी दर्द महसूस नहीं होता था, वहां भी दर्द महसूस होने लगता है। दर्द सारी एकाग्रता को नष्ट कर देता है। ध्यान करें, जप करें, या रीढ़ की हड्डी को संभालें। पैर भी सुन्न होने लगते है। दीर्घ श्वास लेने से फेफडे़ या पेट में दर्द होने लगता है। यहां भी अवलोकन एवं पुरूषार्थ काम आते हैं। ज्यांे ही आप उस व्याधि की तरफ ध्यान देना बंद करते हैं, धीरे-धीरे दर्द कम महसूस होने लगता है। प्रक्रिया इस प्रकार है - पहले उस दर्द करने वाले स्थल को खूब गहराई से देखें अन्तर्चक्षु से तथा फिर उसे विस्मृत कर दें। ऐसा दिन कभी नहीं आएगा जब पूर्ण स्वस्थ हो एवं तभी अपनी साधना चालू करें। संत नदी के किनारे बैठे इन्तजार कर रहे थे - कब नदी का पानी रूके और कब पार करू नदी के पाट को।

 

समाधिक का दूसरा अवरोधक तत्व है - आधि। आधि का अर्थ है मानसिक अस्वास्थ्य। हम मन की उपेक्षा करते हैं। उस पर ध्यान नहीं देते। जबकि सबसे अधिक ध्यान देने योग्य वस्तु है मन। सभी व्यक्ति मन की भयंकर बीमारी भोगते हैं। व्यक्ति कभी प्रिय संवेदनाओं का शिकार होता है।, कभी अप्रिय संवेदनाओं का। पदार्थाें की प्रचुरता में भी वह दुखी बना रहता है। संयोग दुख बढ़ाता है, वियोग भी निश्चित घटना है। कोई इन्हंे टाल नहीं सकता। संयोग होगा तो वियोग निश्चित होगा। वियोग होगा तो संयोग निश्चित ही होगा। संयोग होना सुख नहीं है वियोग होना दुःख नहीं है। पर मनुष्य भ्रान्ति में है। अप्रिय का संयोग होता है आदमी दुःखी हो जाता है। प्रिय का वियोग होता है आदमी दुखी हो जाता हे। प्रिय के संयोग एवम अप्रिय के वियोग से आदमी सुखी हो जाता है। इसी तरह मृत्यु एक अनिवार्य घटना है। जो जन्मता है, वह निश्चित मरता है। पर इस नियति पर भी हम सुखी व दुःखी होते हैं। मित्र की मृत्यु दुःख का संवदेन पैदा करती है। शत्रु की मुत्यु सुख का संवेदन पैदा करती है। जीवन में बहुत सारी घटनाएं ऐसी घटित होती हैं कि उनका घटित होना टाला नहीं जा सकता। चाहे बचने का कितना ही प्रयास किया जाए। कई बार तो हमें स्वयं को भी यह अहसास होने लगता है कि यह तो घटित होकर ही रहेगा। फिर भी हम विचलित होते हैं। पडौसी के घर में दही मथनी चलने पर मां दुखी रहने लगी। बेटे ने कारण पूछा। मां ने कहा ‘मथनी दही में नहीं मेंरी छाती में चलती है। ऊंचा मकान देखकर दुखी होना। मकान का अहं तुझे तृप्ति दे रहा था। अब दूसरे का ऊंचा मकान देखकर मेंरे अहंकार पर चोट करता है। उसे देखते ही उदासी छा जाती है। दुखी कौन करता है? क्या बडा मकान उसे दुखी बना रहा है ? नहीं हमारे ही मन में अहंकार एवं ममकार परिस्थिति का निमित्त पाकर जागृत होते हैं और दुखी बना देते है।

 

प्रियता एवं अप्रियता का संवेदन सुख-दुःख का निमित्त बनता है। मन के स्वास्थ्य का शरीर के स्वास्थ्य पर प्रभाव पडता है। आधि, व्याधि की जननी है। विचार ही आदमी को स्वस्थ करते हैं, विचार ही आदमी को अस्वस्थ करते हैं।

 

आधि एवं व्याधि का उपचार हमें ही करना होगा। हमें ही हमारा डॉक्टर बनना होगा। आत्मा में तीन तत्व हैं - चेतना, शान्ति और आनंद। हम चेतना का उपयोग करें, देखें और जाने। हम अपने पुरूषार्थ का उपयोग करें, परिवर्तनों को घटित करें, स्वभाव को बदलें, आदतों को बदलें, प्रतिक्रियाओं को बदलें। हम संकल्प शक्ति कल्पना शक्ति, इच्छा शक्ति और एकाग्रता का उपयोग करें। बैठे-बैठे कुछ होना जाना नहीं हे।

 

साधक के पथ पर तीसरा अवरोधक है - उपाधि। यह हमारी चेतना का सबसे भीतर का स्तर है। ये स्तर है:- क्रोध, आवेग, ईर्ष्या, लोभ आदि। षट्विकार ही हमारी वृत्तियां है। हमारी वृत्तियां चेतना का आन्तरिक स्तर हैं। बीमारियां वहां से आती हैं। चरित्र भी वहीं से आता है। मस्तिष्क से चरित्र नहीं आता। चरित्र आता है वृत्तियों से और आता है ग्रंथि-तंत्र से। आज तक यही माना जाता था कि मस्तिष्क ही हमारे शरीर का मुख्य अवयव है। हृदय एवं गुर्दे भी महत्वपूर्ण माने गए हैं। पर अब शरीर-शस्त्रीय नए अविष्कारों ने यह प्रमाणित कर दिया है कि शरीर का सबसे महत्वपूर्ण अवयव है - हमारा ग्रंथि का तंत (Ductless Glands) अन्तः स्त्रावी ग्रन्थियों का स्त्राव बाहर नहीं होता। वह सीधा रक्त में ही मिल जाता है। सभी मानसिक आवेगों के निमित्त ग्रंथि तंत्र है। इसके लिए -
1. हमारी आवेग की प्रक्रिया को समझना।
2. आवेग की स्थिति में पूर्ण तटस्थता एवं अक्रियता बरतनी,
3. भ्रष्ट आवेग के प्रतिवाद में शुद्ध आवेग का चिंतन करना।
4. विश्वस्त व्यक्ति के पास रेचन करना।

 

हमारे जीवन का लक्ष्य है आनन्द प्राप्त करना। आनन्द सबसे बडी उपलब्धि है। वैज्ञानिक के अनुसार हमारे मस्तिष्क में विभिन्न तरह की तरंगे होती है यथ अल्फा, बीटा, डेटा, लेटा आदि-आदि। जब अल्फा तरंगे अधिक होती है तब आदमी आनन्द से भर जाता है, उसके सारे अवसाद समाप्त हो जाते है। जब बीटा तरंगे अधिक होती हैं तब आदमी अवसाद से भर जाता है। उसमें उत्तेजनाएं उभरती है। इस प्रकार दिमागी तरंगो द्वारा आदमी कभी सुख का अनुभव करता है और कभी दुख का अनुभव करता है अध्यात्म का सूत्र है कि अल्फा तरंगो को पैदा किया जाए और आनन्द को बढ़ाया जाए। उस आनन्द की इतनी वृद्धि हो कि इन्द्रियो के संवेदनों से होने वाली क्षणिक आनंदानुभूति उसके सामने फीकी पड जाए। बडे़ आनन्द के लिए छोटा आनन्द छोड़ा जा सकता है। अल्फा तरंगो की स्थिति में हृदय में इतनी सरसता छा जाती है कि उसके सामने सब कुछ नीरस लगने लगता है। अल्फा तरंगो के लिए ध्यान बहुत जरूरी उपाय है। ध्यान का अर्थ है - सम्यक् ठहराव। सोचना, विचारना, क्रिया करना सबका ठहराव। नींद स्थूल मन को विश्राम देती है, शरीर के बाहरी अवयवों को भी विश्राम देती है पर हृदय, श्वास-तंत्र, किडनी आदि तो अपना काम करते ही रहते हैं। पूर्ण विश्राम तब होता है जब स्थूल अवयव ही नहीं शरीर की एक-एक कोशिका सो सके। महावीर ने कहा है - सिद्धि का साधन है अक्रिया। क्रिया से सिद्धि नहीं मिलती। सिद्धि का मार्ग अक्रिया से ही गुजरता है। जब हम पूर्ण विश्राम में होते हैं, तब अल्फा किरणों का उत्पादन तीव्र गति से होता है। आज के युग में हम एक भयानक मानसिक वात्या-चक्र में फंस गए हैं। सब अशान्त हैं, मायूस हैं, हीन हैं, कायर हैं। मनोबल गिरता ही चला जा रहा है। जगह-जगह देवी-देवताओं एवं साधुओं की शरण में रक्षा चाहते हैं। हमारी मदद देवी-देवता भी तभी करेंगे, जब हम हमारी मदद करने के लिए कमर कस लेंगे। अतः प्रतिदिन हमें एकान्त में बैठकर शरीर, वाणी एवं मन को अक्रिय बनाने के लिए किसी न किसी साधना पद्धति का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। अन्यथा हमारा व्यक्तित्व ही बिखरने की तरफ बढ़ रहा है।

 

साधुओं के पास विश्वासी आदमी जाते हैं। कई ऐसे साधु मिल भी जाते हैं जिनके सानिध्य से आपको दृढ़ता, शान्ति व उत्साह मिलता है। आप अपने आपको कुछ हल्का महसूस करने लगते हैं। इसका सहज और वैज्ञानिक समाधान यह है कि जिस महापुरूष के मस्तिष्क में अल्फा तरंगो की मात्रा अधिक होती है, उसके आस-पास बैठने वालों में वे तरंगे संप्रेषित होती है और वे आनन्द की अनुभूति कराती हैं। यही कारण है कि आस्थावान् व्यक्ति पवित्र धार्मिक स्थानों में बार-बार जाकर अपनी मानसिक स्थिति में सुधार लाते है। समय का तकाजा है कि हम स्वयं भी कुछ निकालकर ध्यान प्रक्रिया द्वारा शरीर, वाणी एवं मन को विश्राम दें।

 

रॉक फेलन आज के युग का एक धनाढ्य व्यक्ति था। उसे विश्राम की राय दी गई। उसने अपनी आत्मकथाओं में लिखा है - ‘मेंनंे सब कुछ छोड़कर सब कुछ पा लिया‘।

 

कर्म की प्रेरक है वृत्ति। वृत्ति से प्रेरित होकर ही मनुष्य और पशु कर्म करते हैं। वृत्तियां अनेक हैं - आहार, भय, मेंथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि-आदि। प्रत्येक कर्म के पीछे इनमें से एक या अधिक वृत्तियों की प्रेरणा मिलेगी। वृत्ति से प्रवृत्ति और प्रवृत्ति से पुनरावृत्ति। यह चक्र निरन्तर चलता रहता है। वृत्ति जागी, प्रवत्ति हुई। प्रवृत्ति से मनुष्य को बांध दिया गया। अब पुनरावृत्ति होना अनिवार्य है। उसको बार-बार दोहराना होगा। संस्कार से संस्कार बनता है। जिस संस्कार से चित्त एक बार ग्रस्त हो जाता है उस संस्कार को दोहराना ही पड़ता है। हमें शोधन करना है। शोधन कर्म का नहीं करना है, कर्मेंन्द्रिय का नहीं करना है। हाथ एक कर्मेंन्द्रिय है उसका क्या शोधन होगा ? वह चलता है। आप चाहे इससे किसी को चांटा मारें या आशिर्वाद दें। किन्तु हाथ को अनुचित कार्य करने में प्रेरित करने वाली वृत्ति का शोधन करना है। कर्म, अकर्म तब बनता है, जब वृत्ति का शोधन होता है।

 

वृत्ति का शोधन आदमी ही कर सकता है, पशु नहीं। यही पशु एवं आदमी में मौलिक अन्तर है। एक क्रम है - वृत्ति-प्रवृत्ति-पुनरावृत्ति। इसका प्रतिपक्षी क्रम होगा - वृत्ति का शोधन-प्रवृत्ति-निवृत्ति। एकदिन स्वादिष्ट भोजन खाया स्मृति में पुनरावृत्ति होगी। वृत्ति-शोधन के बाद पुनरावृत्ति न होकर निवृत्ति हो जायेगी।

 

गीता में कृष्ण ने चार प्रकार के उपासक बताए हैं - आर्त्त, जिज्ञासु, ज्ञानी और अर्थार्थी। ज्ञानी कौन ? ज्ञानी बांटता है, बौद्धिक बटोरता है।

 

बौद्धिक का प्रलाप:- ‘आत्मा ही नहीं है तो फिर कर्म क्यों ? ध्यान, जप, साधना किसलिए? सारा जगत प्रकृति की लीला है। सब कुछ भौतिक है। तत्वों का मिलन ही चेतना है। यह सब बौद्धिक के अज्ञान का सूचक है। बौद्धिक अपनी सीमित दृष्टि को सब पर लादना चाहता है।

 

सामने यह आकाश है। इसमें अनन्त-अनन्त परमाणु है। विश्व में जितने तत्व हैं, उन सबके परमाणु हैं। क्या हम उन्हें जानतें है ? देखते हैं ? हमारे न जानने या न देखने से इनके अस्तित्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला है। आज का विज्ञान प्रयत्नशील है - हजारों वर्ष पूर्व की वाणी को पकड़ने के लिए। हमारी इन्द्रियों की क्षमता बहुत ही सीमित हैं।

 

ज्ञानी, किसी भी नए तथ्य को विनम्रतापूर्वक स्वीकारता है तथा अज्ञान तथ्य के प्रति मुक्त भाव से अपनी अज्ञानता प्रकट करता है। ज्ञानी सदैव अप्रमत्त रहता है, सतत जागृत रहता है, भाव-क्रिया में संलग्न रहता है। वह किसी भी क्षण मूर्च्छा में नहीं रहता।

 

जो व्यक्ति तक्र के द्वारा, शाब्दिक - प्रपंच के द्वारा अपने आपको जानने का प्रयत्न करता है, वह पानी को मथकर मक्खन निकालने का प्रयास - सा है। क्या किसी ने मिट्टी से चीनी बनाने की दो शताब्दी पूर्व कल्पना की थी ? आज तारकोल से चीनी बनाई जाती है। मिट्टी से भी चीनी निकालने की तकनीक विकसित हो सकती है। पंडित ज्ञानी को नहीं हरा सकता। इतिहास साक्षी है कि पंडित सदा ज्ञानी के पास जाते रहे हैं और परास्त होते रहे हैं।

 

संत के पास पंडित पहुंचे। शास्त्रार्थ करने की बात कही। संत ने कहा ‘मुझे परास्त करना चाहते हो ? में तो एक चींटी से भी परास्त हो सकता हूं। मान लो में हार गया और तुम जीत गए। यह प्रचार भी जोर-जोर से कर दो।‘ पंडित ही परास्त हो गया।

 

ज्ञानी वह, जो स्वयं को पढ़े:

आज की दुनियां जिन तत्वों को मानकर चल रही है, वे तत्व ऐसे व्यक्तियों द्वारा उद्घाटित हुए जो पढे़-लिखे नहीं थे। ईसाई धर्म का संस्थापक ईसा, इस्लाम धर्म का संस्थापक मुहम्मद, मूसा सब अशिक्षित थे। वाल्मीकि से तो ज्यादा वज्रमूर्ख कौन होगा ? सूर, तुलसी व कृष्ण सामान्य पढ़े-लिखे आदमी थे। बुद्ध महावीर सामान्य अक्षर-ज्ञान रखते थे।

 

‘ढाई आखर प्रेम के पढ़ै सो पंडित होय।‘ कबीर कब स्कूल गए। गांधी दसवीं पास थे। हमारा ज्ञान जगत बहुत छोटा है, किन्तु मनुष्य अहंकार के कारण इसे बहुत बड़ा मानकर निर्णय लेता है। अज्ञान असीम एवं अनन्त है। अज्ञान को जानना ही ज्ञानी होना है। यूनान में डेल्फी ने घोषणा की कि सुकरात सबसे बड़ा ज्ञानी है। जिस व्यक्ति को यह ज्ञान हो जाता है कि वह अज्ञानी है, वहीं वास्तव में बड़ा ज्ञानी होता है।

 

इस तरह सुख-दुःख का सम्बन्ध हमारे संवेदन केन्द्रों के साथ जुड़ा हुआ है उनकी अनुभूति कई बार मजबूरी हो जाती है तो कई बार ज्ञान पक्ष से सहन शक्ति की दृढ़ता भी आती है।

 

महा शिवरात्रि - 12 फरवरी, 1997 की पूर्व संध्या पर दिया गया प्रवचन

 

फोटोगैलेरी

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