अभय 

परम पूज्य श्रीबाबाजी महाराज की बरसौदी की इस पूर्व संध्या पर आप सबको सम्मिलित करते हुए श्रीबाबाजी महाराज के श्रीचरणों में इन शब्दां से श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं:-

1. हे गुरूदेव! आप श्रद्धा के साक्षात् स्परूप थे, हमारे जीवन में भी श्रद्धा भाव फले-फूले, ऐसा आशीर्वाद दीजिए।

2. हे गोरख स्वरूप नाथ जी महाराज! आप ज्ञान गरिमा से मण्डित ज्ञानी थे पर आपकी सरलता, निश्छलता व विनम्रता भी अनुपमेय थी। आप निर्द्वन्द्व व्यक्तित्व के धनी थे। हमें भी द्वन्द्व रहित जीवन की और प्रेरित करें।

3. हे प्रभो! आप मरजीवा थे। मरजीवा की मौत कैसे ? आपने मृत्यु में उतर कर अमृत्व को प्राप्त किया। मौत आपके समक्ष पराजित हुई।

4. हे अभय स्वरूप मुक्त आत्मा। आपने सिद्ध कर दिया कि जो अपने को बचाएगा, वह मिट जायेगा और जो अपने को मिटाऐगा उसको मिटाने वाला कोई भी नहीं हैं। जो अपने को खो देगा, वह पा लेगा और जो अपने को बचाएगा, वह खो जाएगा। हमें भी इस आशय का मार्ग दिखाओ।

मरो वे जोगी मरो,
मरो मरण हैं मीठा।
तिस मरणि मरो रे जोगी,
जिस मरणि मरि गोरख दीठा।‘

आप मरकर गोरख स्वरूप हो गए। आज आपका नश्वर शरीर हमारे मध्य नहीं हैं, पर आज आपकी सूक्ष्म उपस्थिति स्थूल की अपेक्षा हजार गुणा ज्यादा प्रतीत हो रही हैं। आज आप कदम-कदम पर हमें अंगुलि पकड़े दिखाई पड़ रहे हैं। हम कैसे मानलें कि आप चले गए हैं। आप यहां हैं, आप वहां हैं आप सर्वत्र हैं। इस पावन भूमि के कण-कण में आप विद्यमान हैं। आपको हम सबका कोटि-कोटि प्रणाम।

सनातन धर्म के चार विशिष्ट तत्व हैं - अभय, अहिंसा, अनासक्ति एवं शुचिता। बाबाजी महाराज इन चारों विशेषताओं से मंडित थे। वे सनातन धर्म के मूर्त रूप थे। शैव, वैष्णव एवं शाक्त सम्प्रदायों की मूल विशेषताएं आपके व्यक्तित्व की मौलिक विशेषताएं थी। आज इस अवसर पर इन मूलभूत विशेषताओं में से केवल एक विशेषता ‘अभय‘ को मेरी चर्चा का विषय बना रहा हूं।

उपनिषद् कहते हैं, ‘मा भैषी‘ डरो मत। भय क्या हैं ? भय के स्त्रोत क्या हैं ? भय की परिस्थितियां क्या हैं ? भय की प्रतिक्रिया क्या है ? अभय का उपाय क्या है ? आदि प्रश्नों के उत्तर खोजने हैं।

भर्तृहरि ने भय के संबंध में कहा है -

भोगे रोग भयं कुले च्युति भयं,
वित्ते नृपालाद भयं।
माने दैन्य भयं, बलेरिपुभयं
रूपे जराया भयं।।
शास्त्रे वादि भयं, गुणे खल भयं।
सर्वे वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां,
वैराग्यमेवाभयम्।

किसी को रोग का भय सता रहा है, किसी को निंदा का भय खाए जा रहा हैं, किसी को भूख सता रही हैं तो किसी को सम्पन्नता परेषान कर रही हैं। कोई शत्रु से भयभीत है तो कोई मित्र की अविष्वसनियता से शंकित हैं। बुढ़ापा और मौत के भय ने जीवन को छलनी कर दिया हैं। संयोग मे वियोग की कल्पना से पीड़ित हैं तो वियोग में पार्थक्य की वेदना से उद्वेलित हैं। कहीं कोई चैन नहीं है, सर्वत्र भय ही भय परिव्याप्त हैं। भय ने आदमी को विक्षिप्त कर दिया हैं। भय के कारण आज आदमी ने परमाणु अस्त्रों का जखीरा बना लिया हैं और उस आग में कूदने के लिए बड़ा बैचेन है।

जब तक भय है, तब तक धर्म एवं अध्यात्म की चर्चा व्यर्थ हैं। कोई भी व्यक्ति अभय बने बिना आध्यात्मिक नहीं हो सकता। भय और भौतिकता दोनों पर्यायवाची हैं। अभय और आध्यात्म दोनों पर्यायवाची हैं। धार्मिक भी डरता हो, आध्यात्मिक भी डरता हो तो यह मानिए हमारे धार्मिक होने में, हमारे आध्यात्मिक होने में कोई कमी हैं। भय हमारे शरीर दर्षन से जुडा हुआ हें। जो शरीर को देखता हैं, वह भय की सृष्टि करता है। भय उसी व्यक्ति में पैदा होता हैं जो मात्र शरीर को देखता हैं। जिसकी दृष्टि शरीर से परे नहीं जाती, शरीरातीत नहीं होती, वह अभय का अर्थ नहीं समझ सकता।

हम भयभीत हैं क्योकि हम मूर्च्छा में हैं। सारी मूर्च्छा शरीर से पैदा होती है। मूर्च्छा ही भय का मूल कारण हैं। मूर्च्छा है तो भय है। यदि मूर्च्छा नही ंतो, भय नही है। सोया हुआ डरता है, जागने वाला नहीं डरता। शरीर दर्षन के कारण ही हम माने बैठे है कि शरीर छूट गया तो सब कुछ छूट गया। शरीर के प्रति इतनी प्रगाढ़ आस्था के कारण ही मृत्यु का भय इतना डराता हैं।

जैसे पानी के जमने के नियम हैं वैसे ही मनुष्य के भय के जमने का नियम हैं। नियम वही हैं कि ठण्डे होते चले जाएं। जो जितना ठण्डा है वह उतना सख्त हैं, उतना ही मूर्च्छित हैं। जो गर्म हैं वह उतना ही तरल हैं, उसमें बहाव है अतः वह जाग्रत है। अहंकार जमी हुई बर्फ हैं उस बर्फ को मृत्यु दर्षन ही पिघला सकता हैं। अहंकार ही हमारी मूर्च्छा का मुख्य कारण हैं। इस अहंकार के कारण हमें हमारे जीवन की अनुभूति नहीं हैं। जीवन ज्ञान हैं, मृत्यु अज्ञान हैं। यदि हम उस जीवन से परिचित होते जो भीतर हैं, तो उसके परिचय की एक किरण भी सदा-सदा के लिए इस अज्ञान को तोड़ देती कि क्या मैं मर सकता हूं ? या कभी मरा हूं या कभी मर जाऊंगा ?

मृत्यु की स्वीकृति में ही अभय है। फैलाव के साथ ही सिकुड़न को स्वीकार कर लिया तो भय का कारण नहीं रह जाता । जन्में हैं उसी दिन जाना कि विदा हो रहे हैं, ऐसी स्वीकृति मृत्यु के भय से मुक्ति है। मैं पहले था तभी तो मैं जन्म सका, नही तो मैं जन्मता कैसे? मृत्यु के बाद भी मैं रहूंगा तो मृत्यु हो सकती है, नही तों मृत्यु होगी किसकी? मृत्यु है इसलिए जन्म है। जन्म भी जीवन के बीच घटी एक घटना हैं जो इस व्यवस्था को जान जाता है, वह मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है।

प्रष्न उठता है ऐसा भय जो विभिन्न रूपों मेें हमारे जीवन को प्रभावित कर रहा है, जीवन के षिवं व सुन्दरम् को जिसने वीभत्स कर दिया है, वह वास्तव में है क्या?

भय एक मानसिक भ्रान्ति है। भय का आधार भ्रान्ति है। जिस प्रकार रस्सी में सर्प एवं आक में प्रेत की प्रतीति एक भ्रान्ति है उसी प्रकार भय भी मन की एक भ्रान्ति हैं। भ्रान्ति उसे कहते है जो न होते हुए भी होती हुई प्रतीत होती है। मित्र की विष्वसनीयता उतनी ही बड़ी भ्रान्ति हैं। जितनी बड़ी उसकी अविष्वसनीयता पूराका पूरा निषेधात्मक पक्ष भ्रान्ति है, भ्रान्ति ही भय की जननी है।

भय उत्पन्न होने के चार मुख्य कारण हैः-

1. प्राकृतिक नियमों को न जानना।
2. शरीर के नियमों को न जानना।
3. मन के नियमों को न जानना।
4. चेतना के नियमों को न जानना।

हम बिजली की गड़गड़हट, बादलों का गर्जन, धरती के कम्पन से डरते हैं। ऐसा लगता है बिजली अपने ही सिर पर गिरने को है। जितने भी प्राकृति के उपादान है, वे सब अपने-अपने नियमों से संचालित है। जब रात को हम उल्का टूटते देखते हैं, भीम शरण करने लग जाते है। हम कहते हैं तारा टूट रहा है, तारा टूटने का अर्थ है महाप्रलय। पुच्छल तारे के उदय एवं अस्त से न जाने कितने भय एवं आषंकाएं जुड़ी हुई है। जंगल की सांय-सांय हमें डराती है। श्मषान से गुजरते हैं, हनुमान चालीसा का पाठ करने लग जाते हैं। वास्तविकता यह है कि श्मषान से ज्यादा कोई भय रहित स्थान ही नहीं है। वहां षिव का स्थल माना गया है। प्राकृतिक नियमों की जानकारी के अभाव में ही हमारा आदि पूर्वज सदैव भयभीत एवं सषंकित रहता था। इस मामले में आज भी आदमी जंगली ही है । जो व्यक्ति इन जागृतिक नियमों को नहीं जानता, वह हर बात से डर जाता है बच्चा जितना डरता है, बड़ा नही डरता और वह इसलिए नहीं डरता कि वह अनके नियमों को जानता है।

शरीर के नियमों के बारें में हमें बहुत कम जानकारी हैं। आज के इस वैज्ञानिक युग में शरीर एवं मन के बारे में बहुत गहन खोज हुई है। शरीर के एक-एक कण के विषय में जितनी स्पष्ट अवधारणा आज हमें प्राप्त है वैसी पहले कभी नहीं हुई थी। आत्मा को मानते हैं या नहीं मानते, ईष्वर को मानते हैं या नही मानते, बनिस्पत इन प्रष्नों में उलझने के मुख्य प्रष्न यही है कि आप शरीर को मानते है या नहीं। शरीर को जानते हैं या नहीं जानते। आत्मा को जानने मानने की बात छोड़ दंे। ईष्वर को जानने मानने की बात छोड़ दंे। आप सबसे पहले शरीर को जानने मानने की कोषिष करें। जब तक आपने शरीर को नहीं जाना, आप आत्मा कैसे जान पाएगें? आपके पास शरीर के अलावा अन्य कोई माध्यम है? जिसके सहारे आप आत्मा को जान सकें? हमारा यह शरीर इतना निर्बल एव अनुषासनहीन है कि आप आत्मा तक की छलांग नहीं लगा सकते।

हमारे पास आत्मा परमात्मा की जानकारी के तीन स्त्रोत हैं-साधन, शास्त्र और तर्क। शास्त्र उन लोगों ने लिखे है जो साधक थे या तर्कबाज थे। कैसे पहिचानें, क्या सत्य है क्या झूठ है? एक कहता है आत्मा है, दूसरा कहता है आत्मा नहीं है। एक कहता है ईष्वर है, दूसरा कहता है ईष्वर नहीं है। कहीं एकरूपता नहीं हैं। यह स्थिति तर्क की है। दुनिया में ऐसा कोई तर्क नहीं जिसका खण्डन न किया जा सकें। सत्य तक पहुंचने के लिए हमारा स्वयं का साक्षात्कार परम जरूरी है। प्रमाण बनाता है दर्षन साक्षात्कार पर कोई तर्क प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है। साक्षात्कार है- जानो और देखो। जितना जाना-देखा है वह सही है, प्रामणिक हैं।

हम सही मार्ग को स्वीकार करें। सही मार्ग है शरीर को जानना, शरीर के नियमों को जानना। मूर्च्छा के नियमों को जानना मूच्छा के दो माध्यम है-कर्मषास्त्रीय भाषा में सूक्ष्म शरीर और शरीर शास्त्रीय भाषा में ग्रंथियाँ, ग्रंथि-तंत्र। सुक्ष्म शरीर में ऐसे संस्कार एकत्रित है, मूर्च्छा के इतने परमाणु संकलित है कि जब जब वे सक्रिय होते है तब तब संवेग की विभिन्न अवस्थाएं निर्मित होती है। कभी क्रोध, कभी अंहकार, कभी वासना, कभी घृणा का भाव, कभी ईर्ष्या एवं आसक्ति का भाव, कभी अप्रियता और भय का भाव-ये रूप निर्मित होते हैं।ये सारे मूच्छार्, संवेग और आवेग है। ये संवेदात्मक व्यवहार पैदा होते रहते हैं, इनका अनुभव हमें होता रहता है। यह है कर्मषास्त्रीय दृष्टिकोण।

शरीर शास्त्रीय दृष्टिकोण यह है- बाहृय निमितों और उददीपनों की स्थिति से शरीर में जो प्रतिक्रियाएं होती है उनसे संवेग जागते हैं कभी भय का, कभी क्रोध का तो कभी लड़ने का। हमारे सारे भावों का नियंत्रक है- हाइपोथेलेमस। हाइपोथेलेमस पीनियल और पिच्यूटरी ग्रंथियोें पर नियंत्रण कर रहा है। पिच्यूटरी सारी ग्रंथियों पर नियंत्रण कर रही हैं। विभिन्न गं्रथियों के विभिन्न स्त्रोतों से भिन्न-भिन्न भाव पैदा होते हैं। इन स्थूल शारीरिक प्रक्रियाओं को बोध होना जरूरी है। शरीर की क्रिया प्रतिक्रिया की जानकारी के अभाव में हम पागलपन, हिस्टीरिया जैसी व्याधियों को भूत-पिषाच का प्रभाव मान बैठते हैं।

मन के बारे में हमारी जानकारी नगण्य है। मन की मुख्य दो विषेषताएं है-कल्पना और चंचलता। शायद ही कभी हम एकान्त में बैठकर देखते होंगे कि किन परिस्थितियों में मन चंचल होता है, किस खुराक में मन ज्यादा अस्थिर होता है। मन की कल्पना के आधार क्या है? किन-किन साधनों द्वारा मन कुछ देर के लिए रूकता है, ठहरता है? मन के नियमों की जानकारी के अभाव में भय विकराल रूप धारण कर लेता है। किसी ने किसी को धोखा दिया तब मन कहता है भागो-भागो धोखा है। सर्वत्र धोखा है और उसकी यह अंध दौड़ उसे पागल बना देती है। उसके विनाष का कारण बनती है।

हमारे भय का एक प्रमुख एवं महत्वपूर्ण कारण है- चेतना के नियमों की जानकारी का न होना। शरीरातीत स्थिति का अनुभव ही चेतना के नियमों की जानकारी दे सकता है। हमारा मूल स्वरूप क्या है? उसके अनुभव की प्रतीति क्या है? जब तक आत्मा तत्व की अनुभूति नहीं होती, अभय नहीं हुआ जा सकता। आत्मा की अनुभूति सत्यं षिवं सुन्दरं की अनुभूति है। वहां भय के लिए कहां स्थान? पष्चिम में जीवन की परिभाषा है-एक मूर्ख के द्वारा कही गई वह कहानी जिसमें शोरगुल बहुत है लेकिन मतलब बिल्कुल नहीं। हम जीवन को सागर मानते है, मेरा अस्तित्व एक लहर की तरह है पर लहर भी तो सागर का हिस्सा है। जीवन सदा था, सदा है, सदा रहेगा। यहां मिटता क्या? ऐसे जीवन दर्षन में भय के लिए क्या स्थान?

हमने भय उत्पन्न होने के कारण देखे, अब देखे, कि भय के मूल स्त्रोत क्या है? भय के चार मूल स्त्रोत है-

1. सत्वहीनता -षक्तिहीनता
2. बौद्धिक निर्बलता
3. भय का सत्त चिंतन
4. भय के परमाणुओं का उत्तेजित होना

व्यक्ति में पराक्रम नहीं है, बल नहीं है, शक्ति नही है, सत्व नही है। जब शक्ति पराक्रम और सत्व का अभाव होता है तब अकारण ही भय पैदा होता है। ‘दूबळो ‘र दो षाढ’ सत्व अन्तकरण से सबंधित पराक्रम हैं जिस व्यक्ति को अपने अस्तित्व का निरन्तर बोध होता है, जिस व्यक्ति में अपने अस्तित्व के प्रति ग्लानि या हीनता का भाव नहीं है वह चेतना, सत्व चेतना होती है। शक्तिहीन एवं दुर्बल व्यक्ति की कोई सहायता नहीं करता। ‘अजा पुत्र बलि दधात् देवो दुर्बल घातकः’ हमारा ऋषि कहता है ‘बंल उपास्य कृष्ण कहते हैं, ‘क्लैब्यं मा स्म गम पार्थ’ एक संस्कृत कवि ने लिखा है ‘सखा भवति मारूतः’ जब दावानल सुलगता है आग सारे जंगल को भस्मसात् करती है तब हवा उसका सहयोग करती है। वायु की सहायता के बिना आग फैलती नहीं। आग को फैलाने में वायु में सखा का काम करती है। प्रष्न है सहयोग क्यों करती है? आग शक्तिषाली है अतः हवा बिना निमन्त्रण के ही सहयोगी हो जाती है। लेकिन जब कमजोर हो जाती है, हवा उसे बुझाने में लग जाती है। जब दीप टिमटिमाने लगता है, हवा का झोंका उसे बुझा देता है। दीप बेचारा दुर्बल था। जो शारीरिक एवं बौद्धिक रूप से निर्बल हैं, वे सदैव भयभीत है। जो बौद्धिक रूप से निर्बल है उनका अपनी वाणी पर से नियंत्रण समाप्त हो जाता है। उनकी वाणी से ऐसा जहर बरसता है जो भय में अधिक वृद्धि करता है। हमने जितने भय पैदा किए है, उनका सत्तर फीसदी वाणी के दुरूपयोग के कारण हैं गोरखनाथजी महाराज कहते हैः-

‘इन्द्रिय का लड़बड़ा, जिभ्या का फूहड़ा
गोरख कहते प्रत्यक्ष ही चूहडा।

वाणी का असंयम व्यक्ति को विनाष के कगार तक पंहुचा देता है। इसलिए नीति कहती है ‘सत्यं ब्रूयात प्रिंय बू्रयात न बू्रयात सत्यम प्रिंय’। वह निर्भय है जिसने इन्द्रियों व वाणी को संयम में ले लिया है।

भय का तीसरा स्त्रोत- भय का सतत चिंतन। डर की बातें करना, डर के विषय में सोचते रहना भयावना साहित्य पढ़ना भयावह-बलात्कार, हत्या धोखा आदि से पूरित दृष्य देखना ये सारे भय की उत्पत्ति में सहायक होते हैं। बुढ़ापे में क्या होगा? इस स्थान को कौन संभालेगा? मेरे बाद क्या होगा? ये ऐसे प्रष्न है। जो अकारण ही आदमी को डराते रहते है। भय का चिंतन करने से भय पैदा होता है।

भय की उत्पति का चौथा स्त्रोत है- भय के परमाणुओं का उत्तेजित होना। व्यक्ति के समक्ष कोई भय की स्थिति नहीं है, भय का कोई उद्दीपक नहीं है, भय का कोई चिंतन नहीं है फिर भी हम बैठे डरने लग जाते हैं। यह बाहरी कारणों से होने वाला भय नहीं है। इसकी उत्पति का मूल कारण है आन्तरिक। यह केवल अपने भीतर संचित भय के परमाणुओं की सक्रियता से उत्पन्न होता है। जन्म जन्मान्तरों से जो भय की ग्रंथियां हमारे संस्कारों में जमी हुई हैं, वे ग्रंथियों प्रकट होती हैं। हमसब अनुभव करते हैं, एक दिन में पचासों बातें मन में आती है और दूसरे दिन सब भुला दी जाती है। कहां चली जाती है ये बातें? हमारे मन के तीन स्तर है-चेतन मन, अवचेतन मन तथा अचेतन मन । जो हम चेन मन से सोचते है वह साथा साथ अवचेतन मन में अंकित होता रहता है। एक ही विचार यदि कई दिनों एवं वर्षो तक चिन्तन में अटका रहता है तो वह संस्कार बनकर अवचेतन में अंकित होता हुआ अचेतन में अंकित हो जाता है। पूरा का पूरा कर्म सिद्धांत इसी आधार पर खड़ा हुआ है कि चेतन मन की प्रत्येक घटना सूक्ष्म शरीर में जाती है। उसका प्रकम्पन सूक्ष्म शरीर में होता है। सूक्ष्म शरीर बहुत बड़ा तंत्र है। उतना बड़ा तंत्र दुनिया में दूसरा है ही नहीं। संसार के सारे तंत्रों, राज्य तंत्रों, समाज तंत्र, उद्योग तंत्र को तुला के एक पलड़े पर रखा जाए और सूक्ष्म शरीर के तंत्र को तुला के दूसरे पलड़े पर रखा जाए तो सूक्ष्म शरीर के तंत्र वाला पलड़ा भारी होगा। वह इतना बड़ा तंत्र है कि जहां असंख्य वृतियों के असंख्य स्थान अलग-अलग बने हुए है। असंख्य-असंख्य शक्तियां है और असंख्य असंख्य स्थान है। आप अनुमान लगाइए आपके स्थूल दिमाग में एक खरब न्यूरोन है। आपके शरीर में 60 खरब ज्ञान के कोष है। यह तो स्थूल रचना है। कोई भी स्पंदन या कंपन व्यर्थ नहीं जाता। उसका अंकन होता है। ये सारे अंकन भीतर पड़े रहते हैं। भीतर इतना बड़ा कम्प्यूटर है कि वह प्रत्येक छोटे बड़े स्पंदन का रिकार्ड कर लेता है और समय का परिपाक होने पर उसका फल भी प्रस्तुत कर देता है। उस सूक्ष्म शरीर में, कर्म शरीर में सारे तंत्रों के बीच भय का भी एक पूरा तंत्र है। कई बार आदमी शांत बैठा है, पर अचानक उदास हो जाता है। कोई परिस्थिति नहीं होती पर आदमी हर्षित हो जाता है। अकस्मात् क्रोध क्यो आता है? अकस्मात भय क्यों उत्पन्न हो जाता है? यह सब होता है भय के परमाणुओं की सक्रियता के कारण।

भय एक भयावना भूत है जो जीवन को श्मषान बनाकर छोड़ देता है। भय की पांच प्रतिक्रियाएं होती है- रोग, बुढ़ापा, मृत्यु, विस्मृति और पागलपन।

1. आदमी डरता है, बहुत डरता है और डर के कारण अनेक रोगों को पाल लेता है। कैंसर का रोग इतना कष्टकारी नहीं होता जितना इसका भय कष्टकारी होता है। किसी असाध्य बीमारी का नाम सुनते ही व्यक्ति की जिवेषणा समाप्त होने लगती हैं। वह उसी दिन से मरने लग जाता है। परिणाम यह होता है कि शरीर में बीमारी से लड़ने वाली फैकल्टी निष्क्रिय हो जाती है। ज्यादा डर के कारण ग्रंथियों के स्त्राव अस्त व्यस्त हो जाते है। शुरू में बीमारी एक होती है। धीरें-धीरें भय के कारण कई बीमारियां हो जाती है।

2. भय की दूसरी प्रतिक्रिया है- बुढ़ापा। भय के कारण आदमी बूढ़ा बनता है। उसकी शारीरिक शांति चूकने लगती है। आलस्य एंव प्रमाद छा जाता है। पाचन-तंत्र खराब हो जाता है। असमय बुढ़ापा भय के कारण ही आता है।

3. भय की तीसरी प्रतिक्रिया मृत्यु है। मरते तो सभी हैं पर डरने वाला व्यक्ति स्वाभाविक मौत से नही मरता, आत्मघात करके मरता है। आत्महत्या करने वाले तो थोड़े होते हैं पर आत्मघात करने वालों की संख्या बड़ी है। जिसे टालने की बात करते हैं और डरते हैं वह टलता नहीं, शीघ्र आ जाता है।

4. भय की चौथी प्रतिक्रिया है- विस्मृति। आदमी डरता है और उसकी स्मृति कमजोर होने लगती है। 80 वर्ष का बुढ़ा कहे कि उसकी स्मृति कमजोर हो गई है तो बात समझ में आ सकती है किन्तु 15 वर्ष का किषोर जब स्मृति दौर्बल्य की बात कहता है तब आष्चर्य होता है। इसका मूल कारण है कि भय जीवन में इस प्रकार घुल मिल गया है कि वह सारे दोष उत्पन्न कर रहा है। भय के कारण हमारे ज्ञान तंतु सिकुड़ जाते है, उनके सिकुड़ने से स्मृति कमजोर हो जाती है।

5. भय की पांचवी प्रतिक्रिया- पागलपन। सतत् बेचैनी असुरक्षा, प्रेमषून्यता स्नायु मण्डल को झकझोर देती है, तोड़ देती है, निष्क्रिय कर देती है। अतिषय भय के कारण रक्त का प्रवाह धीमा हो जाता है। दिमाग को खुराक मिलना बंद हो जाती है और आदमी पागल हो जाता है।

हमने विभिन्न कोणों से भय को समझने की चेष्टा की है यथा- भय क्या है? भय के कारण क्या है? भय के स्त्रोत क्या है? भय की क्या प्रतिक्रिया होती है? अािद प्रष्नों के उत्तर खोजने की चेष्टा की है। अब हम भय- निवारण के उपायों की चर्चा करेगे। भर्तृहरि ने अभय होने के लिए ‘‘ वैराग्यमेवा भयम्’’ कहकर सुुझाव दिया है कि वैराग्य से ही अभय हुआ जा सकता है। वैराग्य का अर्थ जो पूर्णतया राग मुक्त हो गया हो। जो राग मुक्त हो गया है, द्वेष से मुक्त हो ही गया। जो जीतने की कामना करता है उसे ही हार का भय सताता है। जो जीतेने की कामना से उपर उठ गए, उन्हें कोई नहीं हरा सकता। वैराग्य का अर्थ है पूर्ण अनासक्ति। जिसकी आसक्ति पिघल गई है, वह वैरागी है। वैराग्य में केवल अनुराग बचता है और सब छूट जाते हैं। पर प्रत्येेक व्यक्ति के लिए वैरागी होना संभव नहीं है। किसी प्रारब्ध कर्म से ही वैराग्य उत्पन्न होता है। बूढ़े रूग्ण एवं मृत व्यक्ति तो सभी देखते हैं। किसको वैराग्य होता है, पर बुद्ध ने ज्यांे ही बीमार बूढ़ा और मृत को देखा, वैराग्य हो गया। तुलसीदास ने अपनी पत्नी रत्नावली द्वारा दी गई एक झिड़की पर ही संसार से मुख मोड़ लिया।

‘ अस्थि चर्ममय देह मम, तामें इतनी प्रीत।
इतनी प्रीत हो राम में तो छूट जाय भवभीत।।

इन शब्दों ने तुलसी को झकझोकर दिया। प्रारब्ध कर्म जागे, वे प्रभु प्रेम में लीन हो गए। भर्तहरि को उसकी पत्नी ने धोखा दिया, वह ‘अलख‘ जगाने को राजमहल से निकल पड़ा। जाने कितनों की पत्नियां अपने पतियों का कई तरीकों से स्वागत करती रहती हैं पर किसी को वैराग्य होता देखा ? तो समाधन यही मिलता हैं क वैराग्यभाव तो प्रारब्ध कर्मजन्य हैं। तो क्या किया जाए ? गीता में भगवान कृष्ण ने मन को नियंत्रित करने के लिए अर्जुन को दो सूत्र बताए हैं- 1. वैराग्य 2. अभ्यास। पहला सूत्र सबके बस की बात नहीं हैं। हां, दूसरा सूत्र सबके लिए उपयोगी हैं, व्यवहार्य भी हैं। अभ्यास काहे का किया जाए ? अभ्यास के लिए हमारे पास तीन आधार हैं।

1. शरीर, 2. वाणी, 3. मन।

शरीर को साधना पहली शर्त है यदि एक आसन में हम एक घंटा भी नहीं बैठ सकते, तो साधना करना बिल्कुल संभव नहीं हैं। अभ्यास में साधना क्रम ही तो हैं। साधना के लिए शरीर को साधना बहुत जरूरी हैं।

गोरखनाथ जी महाराज कहते हैं - ‘आसन दृढ़ आहार दृढ़ जे निद्रा दृढ़ होई।

गोरख कहे सुनो र पूता मरे न बूढ़ा कोई।।

साधना के लिए ये तीनो बातंे जरूरी हैं। ये तीनों साधना की पूव शर्ते हैं। बैठने का आसन दृढ़ होना चाहिए। भले ही वह सुखासन ही हो। कोई जरूरी नहीं हैं कि वह पद्मासन या सिद्धासन ही हो। आसन वही स्वीकार्य हैं जिसमें बैठकर आप तकलीफ महसूस नहीं करे। पर एक घंटे की बैठक का अभ्यास होना जरूरी है। शरीर को साधने के लिए दूसरी आवष्यकता हैं - संयमित आहार। आयुर्वेद में स्वास्थ्य के लिए तीन आहार बताए गए हैं - हितभुक, मितभुक, ऋतु भुक। वही खाया जाए जो शरीर के अनुकूल हो। शरीर की अपनी-अपनी प्रकृति हैं, खोज के द्वारा ढूंढा जाये कि मेरे शरीर को कौन-कौन सी खाद्य सामग्री अनुकूल पड़ती है। उसी खाद्य सामग्री का प्रयोग किया जाए। मितभुक का अर्थ होता है, भूख से कुछ कम खाया जाये। फेफड़ांे व आंतो को राहत देने के लिए भूख से कम भोजन उपादेयी होता है।

ऋतभुक का अर्थ होता हैं- खरी कमाई की रोटी खाई जाए। कुटिल तरीकों से अर्जित खाद्यान्न का उपयोग न किया जाए। ‘जैसा खाए अन्न वैसा होय मन।‘ शरीर साधना के लिए तीसरी आवष्यकता हैं नींद पर नियंत्रण। नींद पर नियंत्रण का अर्थ यह नहीं कि नींद ही नहीं ली जाये। जितनी देर साधना क्रम अपनाया जाये, हम पूर्ण जागरूक रहें। हमारा रोम-रोम जाग्रत रहे। पूर्ण चैतन्य रहे। परीक्षार्थी को जब पेपर दिया जाता है तो उसका रोम-रोम चैतन्य हो उठता है, देखें क्या-क्या आता हैं, मुझे इस पेपर में। ऐसी ही चेतन्यता जरूरी हैं। आप किसी जंगल से गुजर रहे हैं, अंधेरा हो गया हैं, अकेले हैं, प्रकृति से डरपोक हैं, याद कीजिए उस स्थिति को, मनः स्थिति को, जब आपका रोम-रोम जाग्रत रहता हैं, खतरे का सामना करने के लिए। ऐसी ही जागरूकता, चैतन्यता का नाम ही ‘दृढ़ निद्रा‘ हैं। हमारे पहले आधार के लिए शरीर को तीन तरीकों से तैयार करना हैं - आसन दृढ़़, दृढ़ आहार और दृढ़ निद्रा।

हमारा दूसरा आधार हैं - वाणी। वाणी का मतलब हैं - शब्द, शब्द की शक्ति असीमित हैं। गोरखनाथजी महाराज कहते हैं -

‘षबदहि ताला, सबदहि कूंची, सबदहि सबद जगाया।
सबदहि सबद सूं परचा हआ, सबदहि सबद समाया।।‘

ऐसी विराटता हैं इस ‘षब्द‘ की। यह ‘षब्द‘ क्या है ? यह षब्द ऊँ है। सृष्टि के आदि, मध्य और अन्त का नाम एक ही शब्द है और वह हैं ऊँ। इस ऊँ महाषब्द के साथ अपने इष्ट का नाम जोड़कर हम किसी भी रूप में यथा - ऊँ नमः षिवाय, ऊँ षिव, ऊँ नमो वासदेवाय, ऊँ कृष्णाय, ऊँ रामाय अपनी-अपनी श्रद्धा एवं विष्वास के अनुसार किसी भी शब्द को साधना का आधार बना सकते हैं। नये साधक के लिए जप बढ़ता है, हमारे कायिक ब्रह्मण्ड़ में वह शब्द गूंजने लगता हैं। इस भाण्डे की शुद्धि के लिए जप बहुत जरूरी है। अपनी-अपनी श्रद्धा एवं विष्वास के अनुसार किसी भी शब्द के जप का अनुष्ठान किया जाए। इष्ट के नाम के साथ ऊँ होना जरूरी हैं।

अब तीसरे आधार ‘मन‘ के नियंत्रण की चर्चा कर ली जाए। गोरखनाथ जी महाराज मन के प्रसंग में कहते हैं -

यह मन शक्ति, यह मन षिव।
यह मन पांच तत्व का जीव।
यह मन ले जे उनमन रहे।
तो तीन लोक की बांता कहे।।

मन को ‘षिव‘ भी बताया गया है, मन को शक्ति भी बताया गया है। यह मन ‘षक्ति‘ रूप में हमें नचा रहा है - कठपुतलियों की भांति। यही मन ‘षिव‘ बन कर कल्याण का मार्ग दिखाता है मन को स्थूल बताया गया है पर यह सूक्ष्म तक ले जाने का प्रबल आधार है। जिसनें इस मन को अमन (Normal) कर दिया, वह सर्वज्ञ हो गया। बाबाजी महाराज ने मन के सम्बन्ध में बड़ी मार्मिक उक्ति कही है -

‘मन की चाला चिरत घणी,
मन ही ज्ञान अज्ञान।
‘श्रद्ध‘ मन को उलट दे,
धरि उनमनि ध्यान।

यह उनमनि ध्यान क्या हैं ? मन है - अज्ञान है, मन नही है- ज्ञान है। ‘उनमनि ध्यान‘ से तात्पर्य है मन के अस्तित्व को समाप्त करना। मन के द्वारा ही मन को मारना। मन को मारने के लिए हमारे पास तीन पद्धति हैं -

1. दृष्य-दर्षन
2. नाद-श्रवण
3. शून्य-विचरण

हमारी पूरी साधना-यात्रा स्थूल से सूक्ष्म की ओर हैं, ज्ञात से अज्ञात की ओर है। तीनों पद्धतियों मंे पहली दृष्य-दर्षन में आंख एवं मन का संयोग है, दूसरे नाद श्रवण मे ंकान एवं मन का संयोग है, तीसरे शून्य विचरण में केवल मन का रमण है। पहले दो तरीके स्थूल है तीसरा इनकी अपेक्षा सूक्ष्म है।

दृष्य-दर्षन से तात्पर्य हैं - किसी भी स्थूल बिन्दू पर दृष्टि टिकाकर धारणा करना। वह बिन्दू ऊँ हो सकता है, राम या कृष्ण या षिव की मूर्ति हो सकती है। अपने गुरू की मूर्ति हो सकती है। अपने शरीर का कोइ भी संवेदनषील अंग हो सकता है यथा - नासाग्र-नाक के आगे का हिस्सा, भृकुटी -भौहों के बीच का हिस्सा, नाभि, हृदय आदि-2। प्राण दर्षन भी सुगम एवं सरल है। प्राण-दर्षन से तात्पर्य सांस दर्षन से है।

दूसरा तरीका है नाद-श्रवण का। संगीत के स्वरों से भी यह साधना संभव है कानों की आवाज सुनकर भी यह साधना की जा सकती है।

तीसरा तरीका शून्य विचरण काफी कठिन एवं श्रम साध्य है।ं इस साधना में किसी प्रकार का नियंत्रण वर्जित हैं। विचार आए तो आने दो उन्हें रोको मत। विचारों को देखो। संकल्प-विकल्प आए तो आने दो, उन्हे देखो। करना कुछ नहीं हैं, केवल देखना हैं, जान लेना हें कि यह ऐसा हो रहा हैं। जैसे ही विचारों को देखना प्रारम्भ करते हैं, विचारों का आना बंद हो जाता हैं। विचार रूकते ही एक शून्य स्थिति पैदा हो जाती हैं उस शून्य स्थिति में रहना शून्य विचरण कहलाता हैं।

आपको बहुत सारे साधनापरक व्यावहारिक सुझाव दिए गए हैं, जो भी आपको अनुकूल पड़ता हो, तुरन्त प्रारम्भ कर दीजिए। बाबाजी महाराज के चरणों में जो लोग बैठे हैं उनके लिए साधना एक जरूरी चीज हो गई है। सूखे-सूखे, खाली-खाली कब तक रहेंगे ? बालाजी, श्याम जी की तरह दर्षन किए, प्रसाद चढ़ाया और प्रसाद लिया और फंस गए गृहस्थी की उधेड़बुन में।

आज देष को निर्भय एवं साहसी व्यक्तियों की बड़ी आवष्यकता हैं। सभी क्षेत्रों यथा धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक इत्यादि में आज अभय प्राप्त व्यक्तियों की महती आवष्यकता है जो निर्भय होकर अपने-अपने क्षेत्र में मानवता, देष एवं जन जन में कल्याण के लिए अपने कर्तव्य का निर्वाह करें। स्थिति यहां तक आ गई हैं - साधु भी डरपोक होते जा रहे हैं। यह सब इसलिए हैं कि हम सब साधना विमुख हो गए हैं। आदमी के सही विकास के लिए किसी न किसी आध्यात्मिक साधना की परम आवष्यकता हैं।

आषा हैं आप सब अभय होने के लिए अपने जीवन के आन्तरिक विकास के लिए, अपने गुरू पीरों के विचारों एवं सिद्धान्तों को आगे बढ़ाने के लिए अवष्य ही कोई ना कोई साधना अपनाएंगे। दिषा निर्देष देने वाले बहुत मिल जाएगे। पंथी बहुत कम हैं।

परम पूज्य बाबाजी महाराज से प्रार्थना हैं - हे गुरूदेव! अज्ञान और अंधकार से उठाकर प्रकाष की ओर ले चलो। ऊँ शान्तिः!प्रेम।।आनन्द।।

 

बाबाजी महाराज की द्वितीय निर्वाण तिथि की पूर्व संध्या पर प्रवचन, 31 जुलाई 1987

 

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