करूणा, मैत्री, मुदिता  

आज षिवरात्रि है। वह षिव जिसे उपनिषद् का ऋषि ‘ईशावास्यमिदंसर्वं यत्किंच जगत्या जगत्, अर्थात वह शिव इस जग के कण-कण में विद्यमान है, कहकर वर्णन करता है। उस शिव से यह पूरा संसार निकलता है। यह अन्नत, असीम, आदि अन्तहीन विराट विश्व उससे ही निकला है। कल यह सब उस परम शिव में वापिस लौट जाएगा। यह पूरा दृश्य जगत उस अदृश्य सŸाा से निकला है जो ज्ञात होते हुए भी अज्ञात है, जो ससीम होते हुए भी असीम है। प्रतिपल अदृश्य, दृश्य में रूपान्तरित होता रहता है और दृश्य अदृश्य में खोता चला जाता है। वह शिवकर्Ÿाा, भर्Ÿाा और हर्Ÿाा है। वह ब्रह्मा बनकर सृष्टि की रचना करता है, विष्णु बनकर सृष्टि का पालन करता है।, रूद्र बनकर वह संहार करता है। त्रिनेत्र शिव भूत, वर्तमान एवं भविष्य के रूप में महाकाल है। वह आदि, मध्य एवं अन्त है। ऐसे शिव की यह रात्रि है। शिव भी सोते है ‘या निशा सर्वभूतानाम्, तस्याम् जाग्रति संयमी’। सोने का अर्थ है शिव समाधिस्थ है। त्रिगुण रहित शिव अपनी त्रिगुणी माया से उपराम है शिव का दिन तब होता है जब से स्वयं अपने ही स्परूप में मग्न होते हैं, अपने सिवाय और कुछ अस्तित्व नहीं रहता। ऐसे शिव का वर्णन करते हुए गोरक्षनाथजी महाराज कहते हैंः ‘न शून्य रूपं, न विशून्य रूपं, न शुद्ध रूपं न विशुद्ध रूवपं। रूपं विरूपं न भवामि किंचति, स्वरूप रूपं परमार्थ तत्वं।।

ऐसे शिव की शिव बनकर ही अनुभूति की जा सकती है। ‘शिवोभूत्वा शिवम् यजेत’ यह भी शिव है, वह भी शिव है। जो हम जानते हैं, वह भी शिव है, जो हम नहीं जानते हैं, वह भी शिव है। जो ज्ञात है, जो अज्ञात है, वह भी शिव ही है। वह अज्ञेय है अतः उसे ‘नेति-नेति कहा गया है। वह अपनी रात्रि में समाधिस्थ है, अपने दिवस में पूर्ण चैतन्य है। रात्रि में साक्षी बनकर स्थित है तथा दिवस में स्वयं भू बनकर स्थित है। ‘गोरख सिद्धान्त संग्रह’ में गोरखनाथजी महाराज कहते हैं-

शिवं न जानामि कथं वदामि, शिवं च जानामि कथं वदामि।
अहं शिवश्चेत परमार्थ रूपं, स्वच्छ स्वभावं गगनोपमं च।।’’

ऐसे शिव की व्याख्या बाबाजी महाराज इन पंक्तियों में करते हैं- ‘शिव का रूप अरूप है, रूप अरूप नहीं होय। निज स्वरूंप जब भेटिया, रूप अरूप ही होय

यह महापर्व हमें प्रतिवर्ष यह याद दिलाता है कि हमारी यह सृष्टि तभी तक है जब तक कि शिव अपनी रात्रि में सामाधिस्थ हैं, शिव के दो नेत्र खुले हैं, तीसरा बंद है। ज्यों ही तीसरा नेत्र खुलेगा, यह सृष्टि विलीन हो जाएगी, यह लीला समाप्त हो जाएगी, समेट ली जाएगी। उसके डमरू ने हमें जगाया था, उसका ताण्डव हमें सुलाएगा। दिवस का महत्व है, दिवस का आह्वान है, उतिष्ठित जाग्रत, प्राप्य वरानि बोधत’

रविन्द्रनाथ टैगोर एक गीत में ऐसा ही संकेत करते हैं- ‘बहु दूर तीरे, कारा डाके बांध अंजलि, एसो-एसो सूरे करूण मिनति मारवा ओरे विहंग। ओ रे विहंग मोर, एखनि अंध, बंध कोरो ना पाखां’

बहुत दूर, उस पार से किसकी पुकार आ रही? आओ, उसकी अंजलिबद्ध प्रार्थना के सुर बड़े ही करूण और हृदयाद्रावक है। हे पक्षी, हे प्यारे पक्षी ऐसे अंधेरे में, विपरीत काल में अपने पंख मत समेट, मत समेट।

बाबा जी महाराज का आदेश है-

 
‘तू चाहे तो शिव बन, तू चाहे तो जीव।
तू ही तेरी बहुरिया, तू ही तेरा पीव।।’’

जिस शिव की महिमा को उपनिषदों के ऋषि गाते हैं, वह शिव है-
‘सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिलस्यं मध्ये,
विश्वस्य सृष्टारमनेक रूपम्।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं,
ज्ञात्वा शिवं शान्ति मत्यन्तमेति।

सूक्ष्म से भी अत्यन्त सूक्ष्म, हृदय गुहरा रूप, गुह्म स्थान के भीतर स्थित है, समग्र विश्व की रचना करने वाला है, अनेक रूप धारण करने वाला है, जिसने समस्त विश्व को घेर रखा है, ऐसे शिव को जानकर ही शान्ति मिल सकती है। ऐसे शिव को कैसे जाना जाए, उस शिव को पाने का रास्ता क्या है? यही है प्रश्न जिनके उŸार आज इस पर्व पर हमें खोजने हैं। आइए, इन प्रश्नों का उŸार बाबाजी महाराज के शब्दों में ही ढूंढें। प्रतिदिन प्रार्थना के बाद शान्ति प्रेम, आनंद का पाठ कोई निरा पाठ ही नहीं था, वह एक दिव्य संदेश था। वह प्रभु की ओर जाने वाली पगडंडियो की तरफ इशारा था। इन्हीं तीन मार्गो पर चर्चा कर रहा हूं, इन्हीं तीन संकेतों की व्याख्या करने की चेष्टा कर रहा हूं । मैं इन तीन शब्दों के माध्यम से प्रकट करूंगा- करूणा, मैत्री और मुदिता को। प्रभु के मन्दिर का प्रथम द्वार है- करूणा। प्रभु तक पहुंचने के लिए करूणा की गहराइयों में उतरना जरूरी है। हम सब कठोरता के सख्त पत्थर बन गए हैं। आदमी करीब-करीब एक पाषण हो गया है। जन्म से लेकर मृत्यु तक, सारा जीवन हिंसा का जीवन है, कठोरता का जीवन है, दुःख देने एवं कांटे फैलाने का जीवन है। किसी से मिलन ऐसा मिलन है जैसे दो मुर्दे मिल रहे हों। न हाथ में उष्णता है, और न आंखों में तरलता। करूणा विदा हो गई है हमारे जीवन से। करूणा यानि जीवन्त प्रेम का प्रवाह। करूणा का अर्थ है बहता हुआ प्रेम। जिसे हम प्रेम कहते हैं वह बंधा हुआ प्रेम है, वह किसी एक दो से बंधकर बैठ जाता है। ऐसे प्रेम अकरूणापूर्ण हो जाता है। जब मैं किसी एक को प्रेम करता हूं तो अनजाने में ही मैं शेष जगत के प्रति अप्रेम से भर जाता हूं। इतने विराट जगत के प्रति जिसका कोई प्रेम नहीं, उसका एक के प्रति प्रेम कैसे हो सकता है? एक फूल खिलता है एक बगीचे में और वह फूल कहने लगे कि मेरी सुगन्ध केवल एक को ही मिलेगी और किसी को नही ंतो वह फल फूल ही नहीं रहेगा उसकी सुगन्ध-सुगन्ध ही नहीं रहेगी। करूणा का अर्थ है- समस्त के प्रति प्रेम। करूणा का अर्थ है- प्रेम कहीं बंधे नहीं, बहता रहे, प्रेम रूके नहीं, चलता ही रहे, बहता ही रहे, जहां भी कुछ रूकता है, वहीं गन्दगी शुरू हो जाती है। रूका हुआ प्रेम गन्दगी हो जाता है जिसे हम मोह कहते हैं।

जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, वह बहता हुआ ही जीवित रहता है। जहां भी कुछ रूका, वहीं उसका अन्त हो जाता है। पूरा संसार एक दूसरे को प्रेम करने की दुहाई देता है, पर वास्तव में प्रेम कर नहीं रहे हैं। हम सब प्रेम को अपने अपने खूंटों से कसकर बांध रहे हैं। प्रेम को बांधा कैसे जा सकता है? सूर्य को अपने आंगन में कैसे बांधा जा सकता? सूर्य आपके आंगन में आता है पर इस शर्त पर कि वह सबके आंगन में जाता है। प्रेम बांधा कि मरा। प्रेम जितना बहता है, जितनी दूर एवं अनन्त तक पहुंचता है, उतना ही गहरा होता है, उतना ही जीवित होता है। अनन्त से प्रेम करने वाला किसी को भी प्रेम देने में समर्थ होता है। क्योंकि उसका प्रेम पूर्ण होता है। जहां भी वह बरसता है, पूरा का पूरा बरसता है। प्रेम उतना ही गहरा होगा जितना विस्तीर्ण होगा। प्रेम की गहराई और विस्तार सदा समान होते हैं। जिस पेड़ की जड़े जितनी गहरी गई हैं, वह उतना ही ऊपर उठता है। ऊपर उठने के लिए जड़ों की गहराई आवश्यक है।

करूणा का अर्थ है विस्तीर्ण प्रेम। करूणा मांगती नही, देती है। हमारा तथाकथित प्रेम मांगता पहले है, देता बाद में है। हम सुनिश्चित कर लेते हैं इतना प्रेम मिलता है तो उसी अनुपात में प्रेम देते हैं। हमारा प्रेम अंहकार की खुराक है। अहंकार की मांग है जो भी बाहर से लाया जा सके, उसे भीतर ले आओ ताकि मैं मजबूत बन सकूं। रूपए आए, ज्ञान आए, प्रेम आए, सब कुछ आए, वह चिल्लाता है- लाओ, लाओ। जितना संग्रह बड़ा होता है, अहंकार उतना ही बड़ा होता चला जाता है। जिसको लाख आदमी नमस्कार करते हों, उसका अहंकार सामान्य आदमी से लाख गुना बड़ा हो जाता है। अहंकार से प्राप्त प्रेम ‘मैं’’ को सबल शक्तिशाली बनाता है। हम मांग करते हैं- बाहर से, हमारे अन्तर को बाहर से भरने की चेष्टा करते हैं जबकि जीवन की गति भीतर से बाहर की ओर है। बीज अंकुर भीतर से बाहर की तरफ फैलता है, ऐसे ही करूणा भीतर से बाहर की तरफ बहती है। अहंकार सबसे बड़ी बाधा है करूणा के मार्ग में। अहंकार की सारी चेष्टा है भीतर लाने की और भीतर कुछ भी नहीं जाता। न धन जाता है, न त्याग जाता है और न ज्ञान जाता है। करूणा भीतर से बाहर की तरफ बहती हैै। प्रेम भीतर से बाहर की तरफ बहेगा इसलिए जीवन का सूत्र है - सदा बांटना, देना, लुटाना, फैल जाना। मृत्यु का सूत्र है- संग्रह करना, सिकुड़ जाना, बांध लेना, मां कहती है बेटा मुझे प्रेम नहीं देता, बेटा कहता है पिता मेरी फिक्र नहीं करता, पति कहता है पत्नी मुझे प्रेम नहीं देती। इस संसार में कोई किसी को प्रेम नहीं देता। प्रेम दिया नहीं जाता, प्रेम लिया जाता है। तुम्हें प्रेम देना पड़ेगा, प्रेम बांटना होगा। जो व्यक्ति जितना प्रेम बांटता है, उससे अनन्त गुना उसे प्राप्त हो जाता है। प्रेम आता है, मांगा नहीं जाता।

करूणा का अर्थ है- अपने आपको दे देना। पूरे जगत में अपने अस्तित्व को बिखेर देना। हमारे जीवन की जड़ता तभी टूट सकती है जब इस जड़ जगत को आसपास के इस जड़-जंगम को अपना माने। एक जर्मन विचारक था। वह जापान गया हुआ था। जल्दी में था, जाकर जूते उतारे, दरवाजे को धक्का दिया और भीतर पहुंचा। फकीर को नमस्कार किया और कहा ‘मैं जल्दी में हूं, आपसे कुछ पूछना है। फकीर ने कहा, ‘बातचीत बाद में होगी। पहले दरवाजे से क्षमा मांगो जो तुमने दुर्व्यवहार किया है उसके लिए जूतों से माफी मांगो, क्रोध में डूबे हुए हो।

करूणा के विकास की तीन अवस्थाएं है, एक जगत है जिसे हम जड़ कहते हैं, क्योंकि उसमें चेतना इतनी प्रसुप्त है कि जब तक हम पूर्ण गहराई में नहीं उतरेंगे, तब तक उसकी चेतना का अनुभव हमें नहीं होगा। सबसे पहले जड़ जगत के प्रति अपने प्रेम, अपनी करूणा को विकसित करना जरूरी है। जो झाड़ू को जोरों से पैरों में फेंककर चलता बनता है, वह कभी भी प्रेमिल नहीं हो सकता। फिर उसके बाद पौधों का, पशुओं का जगत है जो जीवन्त तो है, पर विवेक शून्य है। उस जगत के प्रति करूणापूर्ण होना जरूरी है। फिर मनुष्यों का जगत है। जो जड़ को प्रेम दे सकेगा, जो पेड़-पौधों व पशुओं को प्रेम दे सकेगा, वह मनुष्य को भी प्रेम दे सकेगा। महापुरूषों की जीवनियां इस बात की प्रमाण हैं कि किस तरह वे लोग जड़ जगत व पशु पक्षियों व पौधों से प्रेम करते थे। बाबाजी महाराज ने सर्प जैसे विषैले जीव तक को भी कभी मारने नहीं दिया, उसे पकड़कर बाहर फिंकवा देते थे।

एक निर्जन रास्ते पर फूल खिला है। रास्ते से कोई निकले या न निकले, फूल अपनी सुगन्ध बिखेरता रहेगा। फूल को परवाह नहीं है कि कौन आ रहा है, कौन नहीं निकला। फूल के तो प्राणों में सुगन्ध भरा है, वह बंटती चली जा रही है। करूणा इसी तरह की बात है। करूणा एक भावदशा है। अकेला व्यक्ति करूणापूर्ण हो सकता है, उसे दूसरे की कोई आवश्यकता नहीं है। प्रेम ही जब विकसित होकर विराट हो जाता है और सम्बन्धों के पार चला जाता है तो करूणा हो जाता है। करूणा प्रेम की परिपूर्णता है। जब प्रेम दो व्यक्तियों के बीच का सम्बन्ध न रहकर एक और अनन्त के बीच हो जाता है तो वह करूणा बन जाता है। प्रेम पहला चरण है, करूणा अन्तिम मंजिल है।

प्रभु के मन्दिर का दूसरा द्वारा मैत्री है। करूणा है पहला द्वार, मैत्री है दूसरा द्वार। करूणा है बरसात के दिनों में आकाश में छाए बादलों की भांति जो पानी से भरे हैं। मैत्री है उस पानी की भांति जो जमीन पर बरस जाता है। आकाश में पानी से भरे हुए बादल छाए रहते हैं लकिन पृथ्वी की प्यास उनसे नहीं बुझती है। करूणा है हृदय में भरा हुआ बादल। जब तक करूणा मैत्री बनकर जगत तक न पहुंच जाए, फैल न जाए तब तक करूणा पूरे अर्थो में सार्थक नहीं होती। करूणा है- आत्मा मैत्री है अभिव्यक्ति। करूणा है- आत्मा, मैत्री है शरीर। करूणा है- निराकार, मैत्री है साकार। करूणा है- ऐसा गीत जो कवि के मन में गूंजा हो और मैत्री है ऐसा गीत जो उसके होठों से प्रकट हो गया हो और गा दिया गया हो।

मैत्री है सक्रिय करूणा। करूणा जब साकार हो उठती है, करूणा जब सक्रिय हो उठती है तब वह मैत्री बन जाती है। करूणा है- हृदय में उठा हुआ बादल। फिर जब व्यक्तित्व में सब द्वारों से प्रकट होने लगता है और उसका बहाव अनन्त तक पहुंचने लगता है, तब वह मैत्री बन जाती है। विवेकानंद अमेरिका जा रहे थे। रामकृष्ण की मृत्यु हो गई थी। मां शारदा से वे आज्ञा मांगने गए। आशीर्वाद लेने गए। शारदा ने विवेकानंद को उपर से नीचे तक देखा। चाकू मंगवाया। विवेकानंद ने फलक अपने हाथ में पकड़कर चाकू की मूठ शारदा मां के हाथ में दी। शारदा कहने लगी- ‘तुम्हारे मन में मैत्री का भाव है, तुम जाओ, तुमसे कल्याण होगा। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।

मैत्री आत्मरक्षा से भी उपर उठ जाती है। दूसरे की रक्षा महत्वपूर्ण हो जाती है, मैत्री का अर्थ है मुझसे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है, मुझसे जो इतर है। अमैत्री का अर्थ है- मैं सबसे ज्यादा मूल्यवान हूं। सारा जगत मिट जाए लकिन मेरी रक्षा जरूरी है। में हूं जगत का केन्द्र। मैत्री के केन्द्र में ‘मैं’ नहीं है, सर्व है। मैत्री है मंगत की कामना। मैत्री का अर्थ- उठते, बैठते, चलते, फिरते स्वांस-स्वांस में सर्वमंगल के लिए समर्पित होना।

जो मैत्री को उपलब्ध होते हैं, वे ही अभय को उपलब्ध होते हैं। क्योंकि फिर मिटने-मिटाने का सवाल न रहा। वे खुद ही मिट गए। अब कोई कैसे उन्हें मिटाएगा। ‘मरो वे जोगी मरो, मरण है मीठा। तिस मरणि मरो जिस मरणि मरि गोरख दीठा।’ चीनी दार्शनिक लाओत्से कहता था, ‘धन्य हैं वे लोग जो हारे हुए हैं, क्योंकि उन्हें कोई हरा नहीं सकता। धन्य है वे लोग जो मिट ही गए, क्योंकि अब उन्हें कोई मिटा नहीं सकता। धन्य है वे लोग जो जीते जी मर गए, अब उनकी मृत्यु संभव नहीं है। तूफान आता है, छोटे-छोटे वृक्ष झुककर पुनः खड़े हो जाते हैं। हवाएं निकल जाती हैं और वे हंसने-नाचने लग जाते हैं। परन्तु, बड़े वृक्ष, अहंकार से भरे वृक्ष झुकने को तैयार नहीं होते। वे टकराते हैं, प्रतिरोध करते हैं। जितनी उनकी अकड़ तेज होती है, उतनी ही संभावना उनके टूटने की होती है। मैत्री जीवन का बुलावा है। अमैत्री मृत्यु का निमंत्रण है। मैत्री का अर्थ है निरहंकारिता। मैत्री तभी जन्मेगी और सक्रिय होगी जब भीतर ‘मैं’ का भ्रम टूट जायेगा। अहंकार से भरा हुआ आदमी प्रेम कर ही नहीं सकता क्योंकि प्रेम में किसी को निकटता देनी पड़ती है। अहंकारी प्रेम से भागता है, डरता है। हम कहर बने बैठे हैं। अहंकार के खोले में मुंह छिपाए बैठे हैं। बाप भी जब बेटे से बात करता है तो इस तरह से पेश आता है जैसे एस.पी. किसी पुलिसमैन से पेश आता है। इस लौह कवच को तोड़ देना जरूरी है। हमने अपनी रक्षा के लिए अहंकार का कवच पहन रखा है। हम भूल रहे हैं कि जिसे हम बचाने में लगे हैं, उसका अस्तित्व ही कहां है? हम कहां अलग हैं इस विराट जगत से? हम इस विराट जगत के हिस्से हैं। सागर में लहरें नाच रही है। हर लहर को भ्रम हो सकता है कि मैं हूं लेकिन जो किनारे खड़े देख रहे हैं, वे हंसेंगे और कहेंगे, ‘पागल लहर, तूं कहां है ? तेरा अस्तित्व ही कहां है ? हवा के झोंके से जल में उठी एक आकृति का नाम लहर है। झोंका निकल जाएगा, आकृति गिर जाएगी। सागर पहले भी था, बीच में भी है, बाद में भी होगा। सागर बिना लहरों के हो सकता है लकिन लहर बिना सागर के नहीं हो सकती। इसलिये सागर है सत्य, लहर है सपना। लहर का अपना कोई मस्तित्व नहीं है। यह जीवन हमारे बिना था, यह जीवन हमारे बिना भी रहेगा लेकिन हम इस जीवन के बिना नहीं हो सकते। जीवन है सागर में उठी हुई एक लहर, हवा द्वारा निर्मित एक आकृति है। जीवन सदा है, सदा था, सदा रहेगा। जीवन है सत्य, मैं हूं एक सपना। आया और गया हवा की एक लहर की तरह। इसी लहर को बचाने में लगे हैं हम लोग। जो हैं ही नहीं, उसे मिटाया कैसे जा सकेगा। जो नहीं हैं उसको मिटाना कैसा ? जो है, उसको मिटाना कैसा ? जो दोनों के बीच में है, वह मिटता है।

सन् 1857 के गदर के दिनों की बात है। एक संन्यासी को कुछ अंग्रेजों ने भाला भोंककर मार डाला। वह सन्यासी 15 वर्ष से मौन था। उसने व्रत लिया था कि कभी जरूरत होगी तो बोलूंगा। 15 वर्ष तक कोई जरूरत नहीं हुई। एक दिन अंगेजों की छावनी के समीप से निकल रहा था। जासूस समझकर पकड़ लिया गया। पूछा- तुम कौन हो ? वह हंसने लगा। उसकी हंसी देखकर सिपाहियों को संदेह हुआ। उन्होंने कहा- हम मार देंगे। लेकिन ये मारेंगे किसको ? मरते वक्त एक शब्द बोला, ‘तत्व मसि’ तुम वही हो जो मैं हूं। जो आदमी जीवन में ही यह कह देता है कि तुम भी वही हो, जो मैं हूं, वह मैत्री भाव को उपलब्ध हो जाता है। मैत्रीभाव उत्पन्न होते ही जीवन के सारे दुःख उसके दुःख हो जाते हैं, जीवन के सारे सुख उसके सुख हो जाते हैं। सारे आंसू भी उसके, सारी मुस्कान भी उसकी। ऐसा जो अद्वैत भाव है, उस अद्वैत भाव का नाम है मैत्री। मैत्री के जगत तक उठने के लिए तीन बातें ध्यान में रखने योग्य हैंः

1. इस बात की अथक खोज कि मेरा कोई पृथक अस्तित्व है इस विराट जगत में ? मैं श्वांस ले रहा हूं लेकिन श्वांस तो मेरी नहीं है। अगर हवाएं बंद हो जाए तो मेरी श्वांस का क्या होगा ? सूरज की किरणें आ रही है कोई डेढ़ करोड़ मील दूर से। हमारा जीवन तो यह सूर्य ही है। क्या इस सूर्य के बिना मेरा जीवन रह सकेगा ? पृथ्वी हमारा जीवन है। यदि पृथ्वी नहीं होगी, क्या मेरा जीवन रह सकेगा ? पूरा विराट जगत जीवन का स्त्रोत है। हमारा कोई अलग अस्तित्व नहीं है। यह समग्र जीवन अनन्त शक्तियों का एक जोड़ हैं। हम भी इसके एक पुर्जे हैं।

2. सोचना ही काफी नहीं है, अनुभव जरूरी है। प्रकृति के उपादानों के बीच बैठकर यह अनुभव करें कि यह मेरा ही स्वरूप है। फूल का सौंदर्य हमारे दिल का सौंदर्य बन जाए। सूर्य की किरणें हमारी मुस्कान बन जाए।

3. तीसरी बात है मैत्री के अनुभव का सक्रिय प्रकाशन। मैत्री का सक्रिय जीवन। मेरे कृत्य में, मेरे विचार में मेरे अनुभव में मैत्री प्रविष्ट हो। मैं जो करूं, वह मैत्री प्रेरित हो। सक्रिय मैत्री का तीसरा चरण, चारों तरफ जीवन में कितना दुःख है, कितनी पीड़ा है, कितनी चिन्ता है, चारों तरफ जीवन कितना कुरूप है, कितना विकंलाग है- यह अनुभूति मेरी अनुभूति बन जाए और उसको कम करने के लिए मैं सक्रिय हो जाऊं। एक छोटा सा घाव भी भर सकूं, एक छोटी सी पीड़ा दूर कर सकूं, एक छोटा सा कांटा किसी रास्ते से उठा सकूं। जो भी मैं करूं, वह चारों तरफ विस्तीर्ण जीवन के लिए हो। मैं विचार में, अनुभव में, अभिव्यक्ति में करूणा बन जाऊं।

एक फकीर था जापान में। पहली बार जापानी भाषा में पाली से बुद्ध के ग्रंथ अनुवाद किए जाने वाले थे। फकीर गरीब था। उसने दस साल तक भीख मांगी। 10 हजार रूपये इकट्ठे किए। लेकिन तभी अकाल आ गया, उसने रूपये अकाल राहत में दे डाले। फिर दस वर्ष भीख मांगी, कि बाढ़ आ गयी। मित्रों ने मना किया। कहा धर्म का काम है, मरना जीना तो चलता ही रहता है। लेकिन उसने फिर दे डाले। फिर आखिरी दस वर्ष में 10-15 हजार रूप्ये इकट्ठे किए। अनुवाद का काम चालू हुआ। पहली पुस्तक अनुवादित हुई। पहली पुस्तक में लिखा- तीसरा संस्करण। मित्रों ने कहा, ‘पहले दो संस्करण कहां है ? फकीर ने कहा, ‘वे निराकार संस्करण थे। एक अकाल के वक्त- तब भी बुद्ध की वाणी निकली थी। दूसरा बाढ़ के वक्त - तब भी बुद्ध की वाणी निकली थी। लेकिन उस वाणी को वे ही सुन और पढ़ पाये होंगे जिनके पास मैत्री का भाव है। यह संस्करण सबसे सस्ता है। इसे कोई भी पढ़ सकता है।

बाबाजी महाराज मैत्री के साकार स्परूप थे। मैत्री का अर्थ वही है जो बाबाजी महाराज प्रेम के नाम से प्रकट करते थे।

मंसूर को फांसी दी गई। एक लाख लोग इकट्ठे थे। मंसूर को सूली लटकाते वक्त लोग पत्थर फेंक रहे थे, गालियां दे रहे थे। मंसूर हंस रहा था। जब सूली पर उसे लटकाया गया तो उसने हाथ जोड़े और परमात्मा से कहा, ‘देखते हो इन प्यारों को ? यह सोच रहे हैं कि मुझे मार कर ये तेरे प्यारे बन जाएंगे लेकिन इन पागलों को कुछ भी पता नहीं है कि ये क्या कर रहे हैं ? यह भाव मैत्री भाव है। इस भाव स्थिति में कोई दुश्मन रहता ही नहीं। बाबाजी महाराज ने अन्तिम दिनों में ऐसा ही भावपूर्ण दृश्य उपस्थित कर दिया था।

एक फकीर औरत थी राबिया। उसके धर्मग्रन्थ में कहीं लिखा था - ‘शैतान से घृणा करो।’ उसने धर्मग्रंथ की उस पंक्ति को काट दिया। दूसरे किसी फकीर ने इस पर आपŸिा की। राबिया ने कहा, ‘जब तक मेरे भीतर प्रेम पैदा नहीं हुआ था तब मुझे भी यह पंक्ति ठीक लगती थी लेकिन अब मैं मुश्किल में पड़ गई हूं। जबसे प्रेम पैदा हुआ है तबसे मैं घृणा करने में असमर्थ हो गयी हूँ। मैं घृणा कैसे कंरू ? मेरे भीतर तो घृणा बची ही नहीं, मेरा तो हृदय का कोना कोना प्रेम से भर गया है। मैं शैतान से भी प्रेम ही कर सकती हूं। अब मेरे लिए यह पहचानना कठिन हो गया है, कौन शैतान है और कौन भगवान है ? यह है मैत्री की पराकाष्ठा।

प्रभु के मन्दिर का तीसरा द्वार है- मुदिता। मुदिता का अर्थ है प्रफुल्लता, आनंदभाव, अहोभाव। श्रावण में बादल घिरते है, उनमें भरा हुआ जल करूणा है फिर वह जल बरसता है प्यासी पृथ्वी पर। यह बरसा हुआ जल मैत्री है और फिर उस बरसे हुए जल से तृप्ति हो जाती है पृथ्वी के प्राणों में और धरती पूर्णतया हरियाली से भर जाती है और धरती का चप्पा चप्पा खुशी एवं आनन्द से नाच उठता है। वह हरियाली, वह प्रफुल्लता, वे खिले हुए फूल, वे पर्वत, वे गांव, धरती का कोना-कोना जिस खुशी को जाहिर करने लगता है वह मुदिता है, वह प्रफुल्लता है। जो करूणा और मैत्री से गुजरते हैं वे अनिवार्यतः तीसरे द्वारा मुदिरा के समक्ष खड़े हो जाते हैं। उनके जीवन की सारी उदासी तिरोहित हो जाती है, उनके जीवन की सारी पीड़ा सारा दुःख सारा बोझ समाप्त हो जाता है। वे निर्भय एवं मुक्त होकर आनंद की एक नई ध्वनि से अनुप्रेेरित हो उठते हैं।

जो परमात्मा के द्वार पर हंसते हुए नहीं पहुंचते हैं वे कभी भी परमात्मा तक नहीं पहुंच सकते।

उदास आत्मायें, थके और हारे हुए मन, दुःख पीड़ा उदासी से घिरा हुआ चिŸा परमात्मा तक नहीं पहुंच सकता। वह धर्म जो उदासीनता सिखाता है वह धर्म मरीजों का समूह बन जाता है। उनके मन्दिरों की हवा, अस्पतालों की हवा जैसी हो जाती है। इसलिए गोरखनाथजी महाराज कहते हैंः-

 
हंसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानं।
अहनिसि कथिबा ब्रह्म गियानं।
हंसे खेले न करे मन भंग
ते निश्चल सदा नाथ के संग।।

अंधकार को समाप्त करने के लिए अंधकर से लड़ने की क्या आवश्यकता है? अंधकार से लड़ा नहीं जा सकता। जिसकी सŸाा ही नहीं है, उससे लड़ाई कैसे होगी ? सŸाा तो प्रकाश की है। प्रकाश के अभाव का नाम, अनुपस्थिति का नाम ही अंधकर है। प्रकाश पैदा कर लिया जाए तो अंधकार मिट जाता है। प्रकाश आ जाए तो अंधकर नहीं है।

अशान्ति भी अभाव है, दुःख भी अभाव है, घृणा भी अभाव है। घृणा है प्रेम की अनुपस्थिति। प्रेम बढ़े, प्रेम जगे, प्रेम गहरा हो तो घृणा विलीन हो जाएगी। असत्य सत्य की अनुपस्थिति है। सत्य बढे, सत्य विकसति हो तो असत्य क्षीण हो जायेगा। अशान्ति शान्ति की अनुपस्थिति है। शान्ति जगेगी, शान्ति बढ़ेगी तो अशान्ति विदा हो जाएगी। अतः शान्ति को बढ़ाओ और जगाओ।

जो फूलों में जीना चाहता है वह किसी के रास्ते पर कांटा न बिखेरे। जो आदमी प्रफुल्ल्ति होना चाहता है उसे चारों ओर खुशी बांटनी होगी क्योंकि कोई आदमी अकेले खुश नहीं रह सकता। अकेला आदमी उदास रह सकता है लेकिन खुशी में, आनंद में, प्रसन्नता में आदमी अकेला नहीं रह सकता। आदमी उदास अकेला हो सकता है लेकिन आनन्दित होना एक भागीदारी है, एक शेयरिंग है। जो आदमी प्रेम, आनंद को उपलब्ध होते हैं उनके लिए इस जगत का कण-कण मित्र हो जाता है। ऐसे लोग ही परमानंद को उपलब्ध होते हैं। आनंद है मित्रों के बीच बंटवारा। दुःख है अकेलापन। जब आप दुःखी होते हैं तो आप अकेला रहना चाहते हैं। जब दुःखी होते है तो दरवाजा बंद कर लेते हैं और एक कोने में पड़ जाते हैं। दुःखी होने के लिए अकेले होने में सर्वाधिक सुविधा होती है। लकिन जब आप आनंद से भर जाते हैं तो दरवाजे तोड़ दते हैं जनता में आ जाते हैं और पुकारने लगते हैं लोगो को ‘आओ, मेरे पास आओ, मैं खुश हूं।’ खुशी बांटनी होती है।

महावीर, बुद्ध, गोरक्ष जिस दिन आनंद से भर गए, उस दिन पहाड़ों और जंगलों को छोड़कर बस्तियों की तरफ भागे। जब दुःखी थे तब तो गए जंगल में, पहाड़ पर, जब भर गए आनंद से तो भागे बस्तियों की ओर लोगों के बीच। महापुरूषों को एकान्त की तरफ जाते देखा है, एकान्त से भीड़ की ओर भी आते देखा है। अपना आनंद बाटने के लिए जनता के बीच। बुद्ध पुकारने लगे-

‘इट्टी पस्सिको’ आओ और देखो। भगवान कृष्ण ने घोषणा की ‘सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरण ब्रज....।

चतुर्दिंक लालिमा से उल्लसित कबीर ने हलकारा दिया-

 
‘कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लकुटिया हाथ।
जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ।।
गोरख ने शंखनाद किया।
‘सुणी गुणवंता, सुणि बुधवन्ता अमर सिद्धां की वाणी।
शीश नवावत सद्गुरू मिलिया जागत रैण विहाणी।

दुःख सिकोड़ता है, आनंद फैलाता है। परमात्मा की तरफ जाना है तो फैलना पड़ेगा, इतना फैलना पड़ेगा, इतना फैलना पड़ेगा कि अपने जैसा कुछ न रह जाए- केवल एक फैलाव रह जाए, केवल एक विस्तार रह जाए। अपने फैलाव में वह सिमेट लेता है चांद सूर्य तारे एवं पूरे जगत को। हम जो बांटते हैं, वही लौट आता है, हम जो देते हैं वही गूंजता है। जीवन एक प्रतिध्वनि है। हम जो कहते हैं, हम जो करते हैं, हम जैसे होते हैं, बस वैसा ही चारों तरफ से लौटना शुरू हो जाता है।

हम दुःखी है इसलिए कि जो प्रभु ने हमें दिया है उसके प्रति हम कृŸाज्ञ नहीं है। दुर्घटना में एक व्यक्ति का पैर टूट जाता है और शिकायत शुरू हो जाती है कि परमात्मा है भी या नहीं। लेकिन बरसों तक दोनों पैरों पर चलते रहे उसकी कृतज्ञता भी तो हमारे दिलों में नहीं है। जो हमें मिला है, उसकी कोई खुशी नहीं, जो नहीं मिला है उसके लिए पीड़ा होती है। परमात्मा ने हमें बहुत कुछ दिया है जिसके लिए हमें परमात्मा के प्रति अनुगृहित होना चाहिए। पर हम हैं कि अभावों एवं कमियों के लिए कभी भाग्य को कोसते हैं तो कभी परमात्मा को।

एक बादशाह के पास नौकर था। बूढ़ा नौकर सदैव राजा के साथ रहता। शिकार खेलते राजा जंगल में भटक गया। राजा को भूख लगी। घोड़े पर चढ़े-चढ़े एक फल को चाकू से तोड़ लिया। राजा ने फल की एक फांक बनाकर नौकर को दी। नौकर ने कहा, हां महाराज, जरूर लूंगा। बड़ा स्वादिष्ट फल है। राजा ने यह कहते हुए फांक अपने मुंह में रखली कि पूरा का पूरा ही तू खायेगा क्या ? रखते ही राजा का मुंह खारा हो गया। खारेपन के कारण राजा को कै होने लगी। राजा ने नौकर से कहा, ‘यह क्या किया तूने ? तू तो इस फल को बड़ा मीठा और स्वादिष्ट बता रहा था। यह तो खारा जहर है।’ नौकर ने कहा, ‘स्वामी जिन हाथों से बहुत मीठे फल खाने को मिले थे, उन हाथों से एक कड़वा फल खाकर उसकी शिकायत करूं ? मैं इतना अकृतज्ञ नहीं हूं कि आपके हाथ से दिए गए फल को कड़वा बताकर फैंक दूं।

ल्ेकिन हम सब अकृतज्ञ हैं। जीवन के अनन्त आनंद की वर्षा का हमें बोध नहीं है लेकिन जरा सी गड़बड़ के बोध से हम भर जाते हैं। अगर मुदिता को उपलब्ध होना है तो जो मिला है उसके लिए धन्यवाद को गहरा करना होगा। जो पाया है उसके लिए कृतज्ञता का ज्ञापन करना होगा। जो मिला है, जो मिलता रहा है, जो बरस रहा है चौबीस घंटे उस अनन्त आनंद राशि के लिए पं्रशसा का भाव हो तो हम प्रमुदित हो सकते हैं, आनन्दित हो सकते हैं। मुदिता फलित होती है, जब कोई व्यक्ति जीवन को आशावादी दृष्टि से देखना शुरू करता है।

नाथजी महाराज से प्रार्थना है कि आप सब लोगों का जीवन करूणा, मैत्री और मुदिता के भाव से भर जाए। बुद्ध के शब्दों में, ‘अप्प दीपों भव’ आप आने दीपक बन जाएं। परम पूज्य बाबाजी महाराज के चरणों में सादर नमन करता हूं तथा प्रार्थना करता हूं

‘हे गुरूदेव ! अज्ञान और अंधकार से उठाकर प्रकाश की ओर ले चलो, क्योंकि हम आपकी शरण में हैं।’

 

फोटोगैलेरी

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