आज का विषय है - पुरूषार्थवाद और नियतिवाद। दूसरे शब्दों में कर्मवाद। और आदमी कर्म करता है - इसके दो कारण है - एक यह है कि आदमी कर्म किए बिना रह नहीं सकता। शरीर तंत्र की बनावट ही ऐसी है कि वह गति चाहता है। हाथ-पैर हिलना चाहते हैं कान सुनना चाहते हैं, आंखे देखना चाहती हैं इस तरह कमेंन्द्रिय एवं ज्ञानेन्द्रिय दोनों ही सहज रूप से अपने-अपने नियत कर्म करना चाहती हैं। यदि इन्हें बलात््् रोका जाता है तो ये निष्क्रिय होकर बेकार हो जाती हैं ये मृत हो जाती हैं। उदाहरण के लिए वाणी को ही लीजिए। यदि आप थोडी देर भी वाणी यंत्र को रोकते हैं तो आपमें बैचेनी हो जाती है क्योंकि आपके भावों को प्रकट करने का यही तो एक मात्र साधन है। प्रकृति ने जो शरीर की रचना रची है वह कर्म प्रधान है बिना कर्म किए मह रह नहीं सकते। कर्म ही प्रेरणा का दूसरा कारण है। हमारी एषणाओं की पूर्ति हर आदमी के जीवन की आकांक्षाओं की पूर्ति लोग चाहते हैं। कुछ लोग लोकेषणा की पूर्ति चाहते हैं। कुछ लोग अर्थेषणा की पूर्ति चाहते है तो कुछ लोग कामेंषणा की पूर्ति चाहते हैं। इस तरह विभिन्न एषणाओं की पूर्ति के लिए आदमी भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियां करते है। सब सुख चाहते हैं। दुःख कोई नहीं चाहता। दुख निवारण के लिए एवं सुख प्राप्ति के लिए आदमी किसी ना किसी कर्म में लगा हुआ है। अतः यह स्वयं सिद्ध तथ्य है कि प्रवृत्ति आदमी की सहज वृत्ति है।
कर्म के चार तत्व है - बुद्धि, भाव, श्रम एवं संकल्प। किसी भी कर्म को करने के लिए ये चार तत्व काम आते है। बुद्धि दिशा सूचक है कब और कैसे करना है-यह बुद्धि सुनिश्चित है। कैसी प्राप्ति होगी- राग की या द्वेष की यह भाव का कार्य है। शरीर की कर्मेंन्द्रियां एवं ज्ञानेन्द्रिया कर्म - संपादन में जुटकर कर्म को फल की ओर अग्रसर करती हैं तथा संकल्प, शक्ति, बुद्धि, भाव एवं इन्द्रियों को दृढता से उस निश्चित प्रवृत्ति में लगाए रखती हैं। इस तरह किसी प्रयोजन की पूर्ति हेतु बुद्धि, भाव, इन्द्रियों एवं संकल्प का सम्यक् आयोजन पुरूषार्थ कहलाता है।
पुरूषार्थ की सफलता के लिए तीन शर्तें हैं - सम्यक् दृष्टि, सम्यक् उपाय, सम्यक् आस्था। उद्देश्य प्राप्ति के लिए हमारी देखने की दृष्टि, समझने की दृष्टि की सम्यक् होनी चाहिए। क्या प्राप्त करना चाह रहे हैं ? क्या बनना चाह रहे हैं? कहां पहुंचना चाह रहे हैं ? यह लक्ष्य पूरा स्पष्ट होना चाहिए। सम्यक् दृष्टि या समझ के अभाव के कारण हम कभी कभी भारी हानि उठा लिया करते हैं। विश्वास जगत के अंध विश्वास में फंस जाते हैं। सन्यासी ने कहा - सब में परमात्मा है। हाथ में भी और चींटी में भी। किसी जिज्ञासु ने इसे यों का यों स्वीकार कर व्यवहार चालू कर दिया। एक दिन पागल हाथी से सामना हो गया।
यह दुर्घटना सम्यक दृष्टि के अभाव में घटी। तीन शिष्य थे। तीनों को तीन कबूतर दिये। सन्यासी ने कहा ‘जहंा कोई न दिखे इन्हें मार देना ...............
दूसरी शर्त है सम्यक् उपाय की। बीमारी का निदान हो जाता है पर यदि उसी बीमारी की दवा यदि रोगी को न दी गई तो बीमारी ठीक नहीं हो सकती। श्वास के रोगी को दही खिलाना मौत से लडाना है। सम्यक् उपाय के लिए गहन अनुभव एवं गहरी व्यवहारिकता की आवश्यकता होती है। क्रोधी आदमी के क्रोध को शांत करने के लिए कठोर वचन सहायक नहीं हो सकते। वहां तो ठंडा लोहा ही गर्म लोहे को काट सकता है। पर आक्रामक शत्रु के लिए किसी भी सिपाही को गोली का ही उपयोग करना पड़ता है। पुरूषार्थ की सफलता के लिए सम्यक उपाय परम जरूरी है।
तीसरा सूत्र है - सम्यक आस्था। आस्था और उपाय दोनों का योग होना चाहिए। उपाय ठीक है और आस्था नहीं है कि जो करने जा रहा हूं वह होगा कि नहीं होगा तो मानिए वह काम बिल्कुल नहीं होगा। पहले के क्षण में जब आस्था भंग हो गई, विश्वास खंडित हो गया तो फायदा कभी नहीं होने वाला है। सही उपाय और झूठी आस्था है तो भी नहीं होगा। कोरी आस्था से भी काम नहीं चलेगा। कोरी आस्था अंध विश्वास ही साबित होती है या फिर दिवा स्वप्न बन जाती है। आस्था है और सही उपाय का योग है तो कुछ बातें ऐसी घटित हो जाती है कि जिनकी हम कल्पना नहीं कर सकते।
कोई सन्यासी था। भीड बहुत होती। शिष्य परेशान हो गया। गुरू ने कहा तुम एक काम करो - गरीब लोग आए तो उनको कर्ज देना शुरू कर दो और जो धनवान लोग आएं तो उनसे मांगना शुरू कर दो। प्रयोग किया गया। भीड़ छंट गई। कर्जदार क्यों आते मुफ्त में मिला था, आते तो लौटाना होता। धनियों ने सोचा जाते ही लाओ, लाओ की पुकार तैयार है।
हमने देखा - पुरूषार्थ की सफलता के लिए तीन सूत्र हैं - सम्यक् दृष्टि, सम्यक् उपाय तथा सम्यक् आस्था। यदि तीनों सूत्रों का योग हो जाता है तो सफलता सुनिश्चित है। पर कभी-कभी ऐसा भी होता देखा गया है जब तीनों सूत्रों के योग के बावजूद हमारा पुरूषार्थ सफल नहीं हो सकता।
पुरूषार्थ की तीन स्थितियां हैं:- एक हम जो पुरूषार्थ करते हैं, उसमें शत-प्रतिशत सफल हो जाते हैं। थोडे़ से प्रयास, थोडे से समय में सफलता हमारे हाथ चूमने लगती है और आदमी अहंकारवश सोचने लगता है - में एक सफल आदमी हूं। दूसरी स्थिति वह होती है जब तीनों सूत्रों के सामेंजस्य के बावजूद आंशिक सफलता मिलती है। ऐसी स्थिति जिसे न सफल कह सकते हैं और न विफल। ऐसी स्थिति से एक बडी प्रतिशत आदमियों की गुजरती है।
तीसरी स्थिति वह होती है - जब सम्यक् दृष्टि, सम्यक उपाय और सम्यक् आस्था के बावजूद भी आदमी सफल नहीं हो पाता। जो करता है उसी में विफल होता है। हजार सिर पटकने के बाद सफलता प्राप्त नहीं होती। पुरूषार्थ वाष्प बनकर उड़ने लगता है। यह स्थिति अधिकांश व्यक्तियों के जीवन में एकाध बार आ ही जाती है। वही व्यक्ति है, वही बुद्धि है, वही प्रयास है पर सफल नहीं हो पा रहा है। यहां विवश होकर सोचना पडता है कि क्या पुरूषार्थ के अतिरिक्त भी कोई और शक्ति है जो लक्ष्य तक नहीं पहंुचने देती। बड़े से बडे़ आदमियों के जीवन में ऐसे प्रसंग आए है जब उनको हारकर यहीं कहना पड़ा ‘अब सब कुछ ऊपर वाले के हाथ में हैं।‘
यही वह स्थिति है जिसे हम नियति का खेल कहते हैं। सामान्य आदमी इसे भाग्य कहते है। देखना यह है कि नियति क्या है ?
भारतीय शास्त्रकारों ने तीन तरह के कर्म बतायें हैं - प्रारब्ध, संचित एवं क्रियामाण। जब से हमें मनुष्य योनि मिली है तब से लेकर हमारे पूर्व जीवन तक किए गए हमारे सद् असद् कर्मों का का प्रभाव अंकन एक सुपर कम्प्यूटर से संगृहित हो गया है। प्रकृति की ऐसी जटिल व्यवस्था रखी गई है कि एक सूई की नोक के स्थान पर अरबों प्रभाव अंकन तरंगो के रूप में अंकित हैं। महत्वपूर्ण एवं मुख्यकर्मों का ही अंकन यहां होता है। अनावश्यक छोटे-मोटे कर्मों का प्रभाव अंकन तो मृत्यु से थोड़ी देर पूर्व ऑटोमेंटिक प्रक्रिया से मिटा दिया जाता है। अन्तः करण एक विराट एवं जटिल कम्प्यूटर है जिसमें मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार-अपने-अपने स्वरूप लेकर आत्मा के साथ चिपके हुए जन्म-जन्मान्तर में चलते रहते हैं। अन्तः करण नामक इस सुपर कम्प्यूटर में जहां, असंख्य तरंगे कर्मों के प्रभावों की हैं, वहां समय परिपाक भी सुनिश्चित है। किसी समय पर कैसे क्या घटने वाला है इसका सुनिश्चित प्रोग्राम इस कम्प्यूटर में फिक्स है। पूरी प्रक्रिया इस प्रकार है - किसी भी आलंबन से या आब्जेक्ट से प्रभावित होकर आलम्बन से सम्बन्धित ज्ञानेन्द्रिय द्वारा आलम्बन की सूचना दिमाग को दी जाती है। दिमाग की प्रतिक्रिया का प्रभाव ग्लेंड्स अथवा गं्रथियों में पहुंचता है। ग्रन्थियां विषयानुसार रस करती है। परिणामस्वरूप तमाम कर्मेद्रियां एवं ज्ञानेन्द्रियां सक्रिय होकर उस विषय विशेष के उपभोग या प्रतिकार में जुट जाती है। यह प्रक्रिया जब लंबे समय तक तथा कई बार दोहरायी जाती है तो वैसी क्रिया करने की आदत बन जाती है। वही आदत कई बार दोहराई जाने पर हमारी प्रवृत्ति बन जाती है। एक ही प्रवृत्ति कई बार दोहराई जाने पर संस्कार बन जाती है। कोई संस्कार बन जाती है। कोई संस्कार जब स्थायी रूप ले लेता है तो वह हमारी मूलवृत्ति (Instinct) बन जाती है। यही मूलवृत्ति संचित कर्म बनकर मृत्यु के समय सूक्ष्म स्वरूप में प्रारम्भ के पूर्व खाते में जमा हो जाती है तथा हमारे अस्तित्व का अभिन्न एवम् अमिट अंग बन जाती है। इस तरह हम अपने ही किए गए कर्म के बंधन में जन्म-जन्मान्तर में बंधते चले जाते हैं। इसी प्रारम्भ के जमा खाते को नियति कहा जाता है। इसे अंग्रेजी में (Destiny) कहते है तथा सामान्य सीधी-सरल भाषा में भाग्य कहते हैं। यह नियति अपरिवर्तनीय है। इसे सहज ही नष्ट भी नहीं किया जा सकता। महापुरूषों के जीवन अपरिवर्तनीय है। इसे सहज ही नष्ट भी नहीं किया जा सकता। महापुरूषों के जीवन इस बात के प्रमाण है कि वे भी नियति को नहीं बदल सके। कृष्ण की मृत्यु का निमित कुछ न कुछ बना। इस युग में रामकृष्ण परमहंस का उदाहरण दे सकते हैं। स्वामी रामतीर्थ ने गंगा में कूदकर इहलीला समाप्त की। रमण महर्षि को हाथ के केन्सर की पीड़ा भोगनी पडी। पवहारी बाबा आग में कूदकर मृत्यु को प्राप्त हुए। सामान्यजन की तो बात ही क्या ? बडे-बडे महापुरूषों को भी प्रारब्ध का फल भोगना ही पडा। प्रश्न यह उठता है - तब क्या इस नियति को नष्ट करने का कोई भी उपाय नहीं ? महापुरूषों एवं शास्त्रों की मान्यता है कि प्रारब्ध कर्म को परम ज्ञान की ज्वाला से जलाया जा सकता है। पर यहां भी यह शर्त है कि परम ज्ञानी बुद्धत्व प्राप्ति के बाद पूर्ण अकर्म की स्थिति में कुछ दिनों या महिनों तक शरीर को बनाए रख सके। वर्ना तो परम ज्ञानी को भी प्रारब्ध कर्म को भोगना ही होगा।
प्रारब्ध या नियति के सम्बन्ध में यह एक बड़ी भ्रान्ति बन चली है कि आदमी पूरे जीवन भर पूरे चौबीस घंटे प्रारब्ध के अधीन है। सच्चाई यह नहीं है। यह तो आलसी (भाग्यवादी) व्यक्तियों की मानसिकता है। प्रारब्ध समय-समय पर सक्रिय होता है। यह एक रील की तरह चलता है कुछ समय चलकर सुनिश्चित प्रक्रिया से बंद हो जाता है। जिस समय प्रारब्ध की रील बंद रहती है उस समय पुरूषार्थ को मौका दिया जाता है। प्रारब्ध - पुरूषार्थ, पुरूषार्थ-प्रारब्ध यह प्रक्रिया चलती रहती है। यही कारण है कि किसी समय थोड़ा सा पुरूषार्थ करते ही सफलता प्राप्त हो जाती है और कभी-कभी विकट पुरूषार्थ के बावजूद भी हम अपने कार्य में ंसफल नहीं हो पाते। बाबाजी महाराज का यह कथन अक्षरशः सत्य है कि ‘हम बहुत कुछ कर सकते है‘ पर सब कुछ नहीं कर सकते‘ हम पुरूषार्थ में भी काफी स्वतंत्र है।
एक प्रश्न यह है कि हमें कैसे मालूम चले कि वह रील प्रारब्ध की चल रही है? आंधी को आती हुई देख कर यह कहना आसान हो जाता है कि अंधड़ आ रहा है। प्रारब्ध - प्रभाव में अकारण घटनाएं घटती हैं, बुद्धि एवं मनोबल गिर जाता है, भय एवं शंका घेर लेती है, व्यक्ति अकेला हो जाता है, एक के बाद एक विफलता आने लगती है, जीवन में अंधकार सा छा जाता है - यह है प्रारब्ध की नकारात्मक दिशा की पूर्व भूमिका।
प्रारब्ध की दूसरी दिशा है - सकारात्मक। थोडे से प्रयास से सफलता, उत्साह एवं मनोबल ऊंचा, सहयोगियों का संगम, सही समय पर सही निर्णय आदि। रहीम ने इसी ओर संकेत किया है -
जब नीके दिन आइ हैं बनत न लग हिं बेर।।
संचित कर्म से तात्पर्य इसी जन्म में किए गए कर्मों के संचय से है। दस वर्ष की उम्र से वर्तमान क्षण तक किए गए सदसद कर्माें का संचय संचित कर्म-कोष में जमा होता है। यह कम्प्यूटर प्रारब्ध कर्म के कम्प्यूटर से सटा हुआ बाहरी दीवार के रूप में विद्यमान रहता है। इस कोष की तरंगे प्रारब्ध कोष की तरंगो से ज्यादा स्थूल होती हैं। वर्तमान में किए जाने वाले प्रत्येक महत्वपूर्ण कर्म का प्रभाव इस कम्प्यूटर में अंकित होता चला जाता है। संचित कर्म-कोष को क्रियमाण कर्म के द्वारा घटाया बढाया जा सकता है। यदि असत्कर्मों का ज्यादा संचय हो गया हो और उनका क्षरण करने का संकल्प हो तो असत्कर्मों के विपरीत सत्कर्मों के संचय द्वारा इस कोष को क्षरित किया जा सकता है। प्रारब्ध एवं संचित दोनों कोषों का स्थान सिर का पृष्ठ भाग है।
क्रियमाण कर्म से तात्पर्य वर्तमान कर्म से अर्थात् वर्तमान क्षण में किए जा रहे कर्म से है। मनसा, वाचा, कर्मणा जो भी कर्म प्रतिक्षण संपादित हो रहे हैं, उनका अंकन एक कच्ची रील में अंकित होता रहता है तथा इसी कच्ची रील से आवश्यक-अनावश्यक, महत्वपूर्ण अमहत्वपूर्ण कर्मों की काट-छांट होकर संचित कर्म की रील में अंकित होती चली जाती है। यह पूरी प्रक्रिया ऑटोमिक है उसी प्रकार, जिस प्रकार हमारे शरीर तंत्र द्वारा खाद्य पदार्थों के सत्व को ग्रहण कर कचरे को बाहर फंेक दिया जाता है।
इस चर्चा के बाद यही तथ्य निलकता है कि पुरूषार्थ से तात्पर्य क्रियमाण कर्म से है। वर्तमान क्षण में हम जो कर रहे हैं, यही पुरूषार्थ है। भूतकाल हमारे अधीन नहीं, भविष्य भी हमारे अधीन नहीं। हमारे अधीन तो केवल वर्तमान है, जो प्रतिक्षण भूतकाल बनता जा रहा है। इस क्रियमाण कर्म को करने में हम स्वंतत्र भी हैं तथा परतंत्र भी। हम चैतन्यवान हैं। हमारा स्वभाव सभी दृश्यों से विलक्षण है। हमारा स्वभव चैतन्य है, अतः हम स्वतंत्र हैं। किन्तु चैतन्यानुभव जब-जब विस्तृत होता है, इस चैतन्य की आग पर जब-जब कोई राख आ जाती है, तब-तब यह जलती हुई आग उस राख से ढक जाती है तब तक हम परतंत्र हो जाते हैं।
हमने कोई क्रिया की, कर्म किया। निश्चित ही क्रिया की प्रतिक्रिया होगी। क्रिया करने में आदमी स्वतंत्र है, किन्तु वह प्रतिक्रिया परतंत्र है। एक आदमी कोई काम करता है। दूसरी बार उस को दोहराना जरूरी हो जाता है, क्योंकि उसका संस्कार बन जाता है। दोहराने की हमारी मानसिक आदत बन जाती है। व्यक्ति मूढ बनकर उस क्रिया को देहराता जाता है। तब हम परतंल ही गये। कर्म प्रधान हो गया, हम गौण हो गए। नशाखोरी की आदत इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। एक आदमी नारियल, खजूर या ताड के वृक्ष पर चढ गया। चढने में वह स्वतंत्र है। वह अपनी इच्छा से ऊपर चढ़ गया। अब उतरो में वह स्वतंत्र नहीं हे। अब उसे उतरना इसलिये पडे़गा कि वह चढ़ गया। बिजली के तार को छूने में हम स्वतंत्र है पर बिजली का प्रवाह हमारे में होने के बाद उससे पिंड छुड़ाना बडा मुश्किल है। मोहम्मद साहब का एक शिष्य अलि। अलि ने एक दिन मुहम्मद से पूछा ‘ हम काम करने में स्वतंत्र है या परतंत्र ?‘ मोहम्मद साहब ने कहा ‘अपने बाएं पैर को उठाओ।‘ उसने अपना बायां पैर उठा लिया। मोहम्मद ने कहा ‘अच्छा सब अपना दायां पैर उठाओ। अलि असमेंजस में पड गया। बायां पैर तो पहले से ही उठाया हुआ था, अब दायां पैर कैसे उठाया जाए ? शिष्य ने कहा ‘साहब यह कैसे संभव है ?‘ मोहम्मद ने कहा ‘एक पैर उठाने में तुम स्वतंत्र हो, दूसरा पैर उठाने में परतंत्र हो।‘ आदमी अपने कर्तव्य में स्वतंत्र है, पर परिणाम भोगने में परतंत्र है।
आत्मा के साथ शरीर जुड़ा हुआ है। शरीर है अतः भूख है, भूख है तो भाग दौड़ है। शरीर है, अतः काम वासना है, अतः चतुर्दिक अपराध वृत्ति है। शरीर की सभी वृत्तियां हमारी परतंत्रता है। इन वृत्तियों के कारण ही हममें राग-द्वेष हैं। एक वाक्य में - शुद्ध चैतन्य है, इसलिए हम स्वतंत्र है। राग-द्वेष-युक्त चैतन्य है, इसलिए हम परतंत्र है। कर्म का केन्द्र बिन्दु है मूर्च्छा। साधना का केन्द्र बिन्दु है - जागृति। आदमी मूर्च्छित है। मूर्च्छा में सब क्रियाएं किए जा रहा है। आदमी जानता है पर कर नहीं पाता। वह जानता कुछ है और करता कुछ है। कहता कुछ है और करता कुछ है। यही कारण है कि हमारा पुरूषार्थ भी एक तीर व तुक्का जैसा होता है। पुरूषार्थ की शत-प्रतिशत पवित्रता एवं सफलता के लिए वर्तमान में जीना बहुत जरूरी है। महावीर के शब्दों में ‘खणंजाणिए पंडिए‘ वर्तमान क्षण को जिसने देखना जान लिया, उसने भविष्य भी देखना जान लिया। हमारा वर्तमान क्षण सदैव मूर्च्छा में ही बीत रहा है। हम चिन्ता या तो भविष्य की करते हैं या फिर भूतकाल की। जिस क्षण आपने कोई कार्य चालू किया उसी क्षण से यदि पूरे संकल्प एवं बौद्धिक योग्यता से कर्म करने का तरीका एव परिणाम के बारे में सोच लें तो निश्चित ही परिणाम सुखद होगा। किसी भी कर्म को आवेग के अधीन होकर करने से सफलता एवं विफलता दोनों ही संदिग्ध हो जाती है। आप सोचते वक्त जरा इस तथ्य की तरफ देख लें कि मेरा सोच हितकर है या अहितकर ? तो तुरन्त अहितकर चिंतन पर नियंत्रण हो जाएगा। पर हम हैं, जब सोचते है तो बे-लगाम सोचते ही चले जाते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि चिंतन ही हमारे कर्म का ब्ल्यू पिं्रट (रूप रेखा) है। यही हाल बोलने में है। जब बोलते हैं तो यह भूल जाते हैं कि मेंरी वाणी कितनी अनर्गल है अथवा कटु है ? अतः मूल बात यह है कि हमें हमारे वर्तमान चिंतन, अनुभव, वाणी एवं क्रिया को सघनता के साथ देखना चाहिए। इस निरीक्षण को दर्शन कहा जाता है। जीवन के साथ दर्शन जुडा हुआ होना चाहिए। दर्शन से जागरूकता पैदा होती है। जागरूकता किसी भी साधना का मूलाधार है। हमारे सभी कर्म साधना बन जाए। यही कारण है कि हमारे पूर्वजों ने पुरूषार्थ के चार सोपान बताए हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। वर्णाश्रम व्यवस्थानुसार हमारे जीवन का प्रारम्भ ब्रह्यचर्य अर्थात धर्म से होता है तथा अंत मोक्ष से। एक बडा सुन्दर क्रम पुरूषार्थ का निश्चित किया गया है। कोई भी कार्य करना हो तो उसके आदि मेंे धर्मतत्व का होना जरूरी है। धर्म से तात्पर्य उस कृत्य से है जिसमें स्वहित एवं परहित दोनों समाहित हो। अर्थ प्राप्ति में यह नियम बहुत जरूरी है कि जो भी भौतिक सम्पदा अर्जित की जाए - वह ऐसी हो कि उससे स्वहित के साथ-साथ परहित संपादन भी होता रहे। हमारी ऐहिक कामनाओं की पूर्ति में भी यह मर्यादा होनी चाहिए कि वे कामनाएं कहीं अधार्मिक तो न हों। प्रत्येक कर्म अन्त में अकर्म में समा जाए। पूर्ण अकर्म की स्थिति ही मोक्ष की स्थिति है। हम कर्म करते-करते ही मर जाएं। यह तो कोई कर्म-विधान नहीं हुआ। रिटायरमेंट के बाद भी ट्यूशन करते रहना कर्म का उचित विधान नहीं है। अकर्म का अर्थ होता है पूर्ण विराम की स्थिति। यह पूर्ण विराम ही पूरूषार्थ का चरम लक्ष्य है। इस प्रकार किया गया पुरूषार्थ शत-प्रतिशत सफल होता है तथा उसका प्रारब्ध कोष को पुष्ट करने में कोई योगदान नहीं होता। आशा है आप अपने पुरूषार्थ को अर्थात् कर्म को इसी तरह प्रायोजित करने की चेष्टा करेंगे।